चलिए अन्याय-अन्याय खेलते है-आंचलिक ख़बरें-संजय दुबे           

News Desk
6 Min Read
09 04 2018 24 04 2017 supremecourt

 “डेथ वारंट” नाम सुनकर ही पैर तले जमीन खिसक जाये लेकिन कानून अपने आपको कितना निर्वस्त्र कर सकता है,निर्लज्ज हो सकता है अगर इसे देखना हो तो आइए निर्भया मामले को देखे और जाने कि कैसे न्याय की सीढ़ियों पर चढ़ने के साथ साथ फिसलने का संकट  सामने आते रहता है।

हमारी न्याय प्रणाली का पहला ठौर बलात्कार जैसे मामले में जिला एवं सत्र न्यायाधीश न्यायालय  में लगते है। आरोपी के तरफ से उनके वकील ओर विरोध में सरकारी वकील पैरवी करते है। गवाहो का परीक्षण और प्रति परीक्षण होता है।मेडिकल रिपोर्ट के लिए डॉक्टर   को भी इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।एक गवाह  को सामान्य रूप से न्यायालय के द्वारा 3 बार  संमन्स उस थाने मे के माध्यम से भेजा जाता है जिस थाने में रिपोर्ट लिखी गई होती है । यहाँ पर दिक्कत इस बात की होती है कि यदि गवाह संबंधित थाने से बाहर किसी और थाने के क्षेत्र में रहता है तो कठनाई होती है। 2 तामील के बीच  न्यूनतम 15 दिन का अंतर होता है। 3 बार तामील होने बाद अगर गवाह नही आता तो मानिये 45 दिन बेकार हो जाते है। इसके बाद जमानती वारंट निकलता है जिसमे  गवाह  की जमानत  200 से 500 ₹अदा करने की जिम्मेदारी किसी को लेनी होती है।जमानती वारंट पर भी गवाह न आये तो फिर गैर जमानती वारंट निकलता है जिसमे गवाह को लेकर आने की जिम्मेदारी पुलिस  की होती है।इन दो प्रक्रिया में  भी 30 दिन निकल जाते है।यानी 1 गवाह औऱ75 दिन।
सामान्य रूप से इस प्रक्रिया में वकील की अनुपस्थिति,न्यायालय में किसी जज की मृत्यु,बैठक, बीमारी औऱ भी दीगर वजह है जो  व्यवस्था को प्रभावित करते है। जिन प्रकरणों  को लंबा खींचना है तो गवाहों की फौज खड़ी कर दो।समय ऐसे ही लग जायेगा।यद्यपि आजकल न्यायालयो में त्वरित सुनवाई के दौर चल रहा है।प्रकरण को उनकी आयु के हिसाब से लिस्टिंग की गयी है।20 से अधिक 20,15,10,05 साल से कम अवधि के प्रकरण  को निपटाने के लिए कोशिश जारी है परंतु सकारात्मक निर्णय की प्रतीक्षा है।
जिला न्यायालय से निर्णीत  मामले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की व्यवस्था है।इस न्यायलय में गवाहों की सुनवाई नही होती बल्कि पक्ष विपक्ष के द्वारा परीक्षण और प्रति परीक्षण के आधार पर सुनवाई और निर्णय होते है। उच्चतम न्यायालय में भी यही प्रक्रिया है।
इन दोनों न्यायालय में सज़ा में कमी य बढोतरी दोनों हो सकती है।बावजूद ये भ्रम है कि इन दोनों न्यायालय में सज़ा कम होती है।अब प्रश्न ये खड़ा होता है कि केवल गुण दोष के आधार पर निर्णय करने में देरी क्यो? आप किसी भी उच्च न्यायालय में चले जाइये और देखेंगे तो पायेंगे कि एक प्रकरण में बमुश्किल 5 मिनट लगते है। कुछ विशेष मामलों को छोड़ दे तो। ये भी संवैधानिक मामले हो तो।
निर्भया के मामले में फ़ास्ट ट्रेक न्यायलय ने 244 दिन(8माह 4 दिन) में सुनवाई पूरी कर फांसी की सज़ा सुना दी।उच्च न्यायालय दिल्ली ने180 दिन(6 माह)  में अपना निर्णय सुनाते हुए फांसी की सज़ा बरकरार  रखी।अब उच्चतम न्यायालय की बारी थी।इस न्यायालय ने2 साल14 दिन बाद निर्णय सुरक्षित रखा और 1 साल 1 माह 3 दिन बाद निर्णय  सुनाया। कुल3 साल 1माह 17 दिन। आप इस विलम्ब का कारण किससे पूछ सकते है।
आगे देखिए
उच्च न्यायालय से फांसी का निर्णय की कापी ज्यादा से ज्यादा 15 दिन मे तिहाड़ जेल के अधिकारियों के पास पहुंच गई होगी।उन्हें तत्काल निर्णय पर अमल करना  था।इससे दोषी अपने बचे अधिकार के रूप में कयुरेटिव पिटिशन / दया याचिका के विकल्प पर जाते तो भी चारो महीनों पहले लटक गए होते। मैने सुना कि जेल अधिकारी मौखिक रूप से जानकारी देते थे।  प्रशासन लिखे पर चलता है कलम से,मुँह की कोई कीमत नही है।इस कारण सबसे पहले तिहाड़ जेल के अधिकारियों पर कार्यवाही होना चाहिए।जिनके  लापरवाही के कारण देर हुई।
अब प्रश्न ये भी उठता है कि कानूनी दांव पेंच का क्या हल है?
न्यायालय में  प्रकरण के निपटारे के लिए limitation act 1963 है। क्यो न  इस प्रकार की व्यवस्था न्याय के लिए भी हो। न्याय में  देरी भी अन्याय है(delaying in justice is injustice) ऐसे ही नही कहा गया है। निर्भया के मामले में सभी ये देख रहे है।
निर्भया के मामले में   बचे 4 दोषी जब एक साथ अपराध किये उनको फांसी भी एक साथ होना है तो उन्हें अलग कयुरेटिव पिटीशन ,दया याचिका लगाने का अधिकार कैसे मिल रहा है।
कानून बनाने वाले क्या इतना दिमाग लगाएंगे?

Share This Article
Leave a Comment