Kargil War कारगिल युद्ध 1999 के सबक, जो हमेशा याद रखना आवश्यक

Aanchalik Khabre
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kargil war

(डॉ. राघवेंद्र शर्मा – Author)

कारगिल का युद्ध Kargil War और उस पर स्‍थापित भारत की विजय कई मायनों में विलक्षण हैं। Kargil War एक ऐसा व्‍यापक विषय है, जिसके बारे में गहन अध्‍यन किए जाने की आवश्‍यकता है और Kargil War इससे सीखने की भी व्‍यापक संभावनाएं अस्तित्‍व में बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए शुरूआत राजनैतिक विषमताओं भरे माहौल पर गौर किया जाना सर्वथा उपयुक्‍त रहेगा।

Kargil War: विभाजित राजनीति में एकता की ऐतिहासिक मिसाल

जैसा कि हम सभी जानते हैं,कि कारगिल Kargil War पर पाकिस्‍तान के नापाक कब्‍जे का प्रयास तब हुआ जब केंद्र में जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी और स्‍वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। ये अपने आप में ऐतिहासिक कीर्तिमान है कि उनकी सरकार में लगभग दो दर्जन राजनैतिक दल भागीदार रहे। वो भी ऐसे ऐसे कि अधिकांश दल और नेता पारंपरिक रूप से ही एक दूसरे काे फूटी आंख नहीं सुहाते थे। सबके अपने अपने राजनैतिक स्‍वार्थ थे। तब कारगिल Kargil War जैसे गंभीर मुद्दे पर सभी को एक राय करना मेंढ़कों को तराजू के पलड़े में तौलने जैसा दुष्‍कर कार्य था। जैसा कि हम अक्‍सर देखा करते हैं, कई राजनैतिक दल राष्‍ट्रीय और क्षेत्रीय तौर पर ऐसे हैं जो हमेशा पाकिस्‍तान के साथ बातचीत करने की हिमायत करते रहते हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी की शांतिपूर्ण सोच और पाकिस्तान की धोखेबाज़ी

ऐसा भी नहीं है कि इस तरह की बात करने वाले दल अथवा नेता आश्‍वस्‍त हों कि वार्ता शुरू होने से पाकिस्‍तान अपनी नापाक हरकतों से बाज आ जाएगा। बल्कि सही बात ये है कि देश के मतदाताओं में एक वर्ग ऐसा भी है जो मजहबी तौर पर पड़ौसी दुश्‍मन देश के प्रति व्‍यक्तिगत स्‍तर पर दोस्‍ताना रवैया अख्तियार करता है और चाहता है कि हमारे वोट के जरूरतमंद नेता भी पाकिस्‍तान के साथ ऐसा ही भाईचारे वाला व्‍यवहार करें।

Kargil War बस इन्‍हें ही तुष्‍ट बनाए रखने के लिए कई बार हमारे कई राजनैतिक दल और नेता तुष्‍टीकरण की नीति अपनाए रह‍ते हैं। ऐसे में जरूरी हो गया था कि तत्‍कालीन प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ऐसी नीति पर काम करें कि पाकिस्‍तान को ईंट का जवाब पत्‍थर से दिया जाए और आपसी सियासी लाभ हानि के गणित को हर हाल में निष्‍फल किया जा सके, ताकि देश पर कोई राजनैतिक संकट खड़ा न हो जाए। तब उन्‍होंने सेना के हाथ खुले छोड़ते हुए ये संदेश आम किया कि सरकारें आएंगी जाएंगी, राजनैतिक परिस्थितियां बनती बिगड़ती रहेंगी, लेकिन ये देश सलामत रहना चाहिए और मैं वही करने जा रहा हूं।

सरकार जाती है तो अभी चली जाए, किंतु देश के भाल को कलंकित कर रहा दुश्‍मन बचकर नहीं जाना चाहिए। सबको पता है और उस समय के नेता भी जानते थे कि श्री अटल बिहारी वाजपेयी की नीयत पर शक शुबहा की कोई गुंजाईश जनता के बीच कभी रही ही नहीं, सो तब भी जनता उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रही। बस यही वजह रही कि अनेक आपसी मतभेद होने के बाद भी सरकार में शामिल सभी राजनैतिक दल इस फैसले में सहज ही प्रधानमंत्री के साथ हो लिए और विपक्ष ने भी देशहित के सवाल पर सकारात्‍मक रवैया अपनानाया जाना उचित जाना।

नतीजा सबके सा‍मने है, हमने सीमित समय में बेहद विपरीत हालातों के बावजूद उस युद्ध को जीता और दुश्‍मन को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सका। बाद में तत्‍कालीन राजग सरकार को कारगिल Kargil War में जीत का इतना अच्‍छा प्रतिसाद मिला कि चौबीस दलों वाली श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार केवल देश में ही नहीं, दुनियाभर में सराहना की पात्र बनी और आपदकाल में एकता की मिसाल कायम करने में सफल साबित हुई।

विदेश नीति में बदलाव: अब ‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ ही समाधान

Kargil War अंतर्राराष्‍ट्रीय स्‍तर India’s Foreign Policy पर भी देखें तो खुद को दुनियां का ठेकेदार समझने वाला अमेरिका हमारी नाक में कौड़ी डालने को आतुर नजर आ रहा था। क्‍योंकि वो नहीं चाहता था कि भारत परमाणु शक्ति बने, लेकिन देश का हित सर्वोपरि रखते हुए श्री अटल बिहार वाजपेयी जी की राजग सरकार ने एक साल पहले ही Pokhran Nuclear Test पोखरण में परमाणु परीक्षण कर दिखाया था। इससे अमेरिका बौखलाया हुआ था, नतीजतन हमारे देश पर अनेक आर्थिक प्रतिबंध लागू किए जा चुके थे। Kargil War शायद उसे उम्‍मीद थी कि आर्थिक दवाब में आकर चौबीस दलों वाली वाजपेयी सरकार जल्‍दी ही घुटनों के बल दिखाई देगी।

लेकिन वो ये बात भूल गया कि तत्‍कालीन भारत सरकार का नेतृत्‍व एक ऐसा नेता कर रहा था, जिसने राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ की शाखाओं में देशभक्ति के तराने केवल गाए ही नहीं थे, उन्‍हें आत्‍मसात भी किया था। अत: अटल सरकार Indian Democracy in War का झुकना असंभव था और वो झुकी भी नहीं। जैसे ही भारतीय तोपों ने गरजना शुरू किया और जब कारगिल Kargil War का दांव पाकिस्‍तान पर उल्‍टा पड़ता दिखाई दिया तो वो कश्‍मीर और परमाणु परीक्षण का मुद्दा लेकर अमेरिका की शरण की ओर भागा। वहां उसने भारत के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने की बात रखी और युद्ध में पाकिस्‍तान का साथ देने की गुहार लगाई।Kargil War

Kargil War की विषम भौगोलिक स्थितियों में भारतीय सेना की वीरता

India USA Relations Kargil अमेरिका को भी ऐसा करना सहज लगा सो वहां के शीर्षस्‍थ नेता ने हमारे प्रधानमंत्री को फोन लगा दिया और अपेक्षा जताई कि जब पाकिस्‍तान वार्ता की टेबिल पर बैठने की पहल कर रहा है तो भारतीय प्रधानमंत्री को भी शांति का महत्‍व समझते हुए अमेरिका आ जाना चाहिए, ताकि युद्ध विराम की शुरूआत की जा सके। Kargil War लेकिन श्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी आदत के मुताबिक इस मामले में भी हाजिर जवाब ही रहे। उन्‍होंने अमेरिका के तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति से स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कह दिया था कि जब तक पाकिस्‍तान को उसकी नापाक हरकतों का मुंहतोड़ जवाब उसी की भाषा में मिल नहीं जाता, तब तक तो मैं पाकिस्‍तान से बात करने के बारे में नहीं सोचूंगा, फिर भले ही मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर इसकी कोई भी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़ जाए। Kargil War जरा गौर करें, ये टके सा जवाब भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा एक ऐसे देश के शीर्षस्‍थ नेतृत्‍व को दिया गया था, जो ये मानकर चलता रहा कि उसके सामने न कहने की हिम्‍मत तो दुनिया के किसी देश या नेता में है ही नहीं।

यानि हम कारगिल Kargil War की चोटियों पर ही नहीं लड़ रहे थे, दुनिया के ठेकेदारों को भी सबक सिखाने एक मोर्चा हमें अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी लेना पड़ रहा था। काबिले गौर बात ये रही कि हम दोनों ही मोर्चों पर सफल रहे, सीमा पर भी और वैश्विक चौधराहट को ठीक करने के मामले में भी।

Kargil War इस लड़ाई की एक और विशेषता ये रही कि जब दोनों देशों की सेना आमने सामने थी तो हम नीचे थे और दुश्‍मन हमसे सैकड़ों फुट ऊपर कारगिल की चोटियों पर डटा हुआ था।Kargil War ऐसे में कुछ विश्‍लेषक असंभव परिणामों की कल्‍पना भी करने लगे थे। बात सही भी लगती है कि जब दो सेनाओं के बीच ठनी हो और एक सेना सैकड़ों फुट की ऊंचाई पर जमी हो और दूसरी गहरी खाइयों से लोहा ले रही हो तब कौन कहेगा कि नीचे वाले जीतेंगे और ऊपर बैठे लोग मुंह की खाएंगे। लेकिन हुआ वही जो करने के लिए भारतीय सेना विख्‍यात रही है। पहले तो हम किसी को छेड़ते नहीं और यदि हमें कोई छेड़े तो उसे हम छोड़ते नहीं। एक निश्चित समय में हमने कारगिल युद्ध में विजय पाई और पाकिस्‍तान को उसकी औकात समझाने में हमेशा की तरह ही सहज सफल साबित हुए।

सीमा पर स्थानीय नागरिकों की भूमिका और सुरक्षा तंत्र की मजबूती

यहां समझने वाली बात ये है कि यदि परिस्थितियां विपरीत हों या संसाधनों की विषमता, हमें अपने आत्‍मबल को बेहतर बनाए रखना चाहिए। यदि लक्ष्‍य स्‍पष्‍ट हो और नीयत साफ तो फिर सामने पाकिस्‍तान हो या फिर अमेरिका, जीत हमेशा सत्‍य की ही होती है। दुनियां ने देखा कि हमने पाकिस्‍तान को तो ठीक किया ही, अमेरिका को भी ये अहसास कराने में सफल रहे कि वो संसाधनों की दृष्टि से भले ही साधन सम्‍पन्‍न देश क्‍यों न हो, लेकिन यदि भारतीय संप्रभुता की बात आएगी तो यहां का प्रधानमंत्री किसी की भी चौधराहट बर्दाश्‍त नहीं करेगा। एकदम यही रवैया वैश्विक स्‍तर पर वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी अपना रखा है।

Kargil War अब बात करते हैं हमेशा की तरह कारगिल Kargil War में भी मुंह की खाने वाले पाकिस्‍तान की । ये एक ऐसा देश है जिसकी करतूतों की तुलना कुत्‍ते की दुम से की जा सकती है। एक कहावत विख्‍यात है कि कुत्‍ते की दुम को सालों तक भी लोहे की सलाखों के साथ बांध के रख दिया जाए तो भी वो सीधी नहीं हो सकती। इस देश का रवैया भी एकदम कुत्‍ते की दुम के जैसा ही है। हमारे नेताओं ने कभी भी पाकिस्‍तान का बुरा तो नहीं चाहा, ये बात डंके की चोट पर कही जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्‍यजनक बात ये है कि पाकिस्तान की तो नींव ही भारत विरोधी एजेंडे पर टिकी हुई है। यही वजह है कि वहां के हुक्‍मरान हों या फिर सेना, ये जब कभी भी अपनी दिग्‍भ्रमित कार्यप्रणाली के चलते जनता की नजरों में निष्‍फल साबित होने लगते हैं, वैसे ही भारत को पानी पी पी कर कोसना शुरू कर देते हैं। उस पर फिर राग कश्‍मीर तो इन्‍हें सियासी तौर पर अतिरिक्‍त सुरक्षा मुहैया कराता ही है।

लिहाजा ये हर कहीं भारत की खिलाफत करते और राग कश्‍मीर आलापते दिखाई देते रहते हैं। उनकी इसी फितरत का कारण बनकर कारगिल कांड सामने आया। दरअसल भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी उन दिनों पाकिस्‍तान के साथ सम्‍बन्‍धों को मजबूती प्रदान करने के महती कार्य को अंजाम दे रहे थे। Kargil War वे ऐसा मानते थे कि पड़ोसी वो प्राकृतिक अवस्‍था है जिसे बदला नहीं जा सकता। अत: जहां तक हो सके अपने विकास के साथ साथ उसकी बेहतरी के प्रयास आम सहमति के आधार पर बने रहना चाहिए। वो कहते भी थे कि भारत और पाकिस्‍तान को आपस में लड़ने की बजाय अपने यहां की गरीबी और अशिक्षा से एक साथ लोहा लेने की जरूरत है।

Kargil War और भारत की विदेशी नीति पर उसका प्रभाव

इसी सोच के चलते वे बेहद सौहार्दपूर्ण वातावरण में बस में बैठकर लाहौर तक गए। वहां पर उन्‍होंने पाकिस्‍तानी जनता का वह खौफ भी दूर किया जो वहां के नेताओं ने व्‍यापक पैमाने पर फैला रखा था कि भारत के परमाणु बम और अत्‍याधुनिक हथियार अंतत: पाकिस्‍तान के खिलाफ ही काम आने वाले हैं। तब अटल जी ने ये हस्‍ताक्षरित भरोसा वहां की जमीन पर खड़े होकर वहां की जनता को दिलाया था कि शुरूआत कभी भी हमारी तरफ से नहीं होगी। परमाणु बम का इस्‍तेमाल भी भारत कभी अपनी ओर से नहीं करेगा, लेकिन यदि हमें अकारण छेड़ा गया तो युद्ध भले ही कोई शुरू करे, उसे खत्‍म हमारी सेना ही करेगी।

अटल जी का ये साफ सुथरा रवैया पाक जनता की समझ में ताे आया, लेकिन सत्‍ता पर गिद्ध दृष्टि जमाए बैठी सेना को रास नहीं आया। नतीजा ये निकला कि उनकी आपसी सिर फुटव्‍वल ने कारगिल का षड़यंत्र रचा जो तीन महीने और तेईस दिन तक चलने वाले युद्ध का कारण बना।Kargil War इससे समझ में आता है कि हम कितने भी सही क्‍यों न हों, यदि पड़ोसी नापाक नीयत पालकर बैठा है तो एक जिम्‍मेदार देश को अपनी संप्रभुता को लेकर अतिरिक्‍त सावधानी बरतना जरूरी हो जाता है। साथ में ये पाठ सिखाना भी अनिवार्य हो जाता है कि उसकी बार बार की घृष्‍टताओं को न तो अब क्षमा मिलेगी और न ही उन्‍हें नजरंदाज किया जाएगा। अत: हमारी विदेश और रक्षा नीति अब पाकिस्‍तान के साथ शठे शाठ्यम समाचरेत के बोध वाक्‍य से सज्‍ज अस्तित्‍व में है।

Kargil War ये हमने अटल सरकार की सहृदयता और पाकिस्‍तान द्वारा पीठ में छुरा घोंपने की फितरत से ही सबक लिया है कि अब यदि उस ओर से किसी प्रकार की हिमाकत की जाती है तो बात केवल गोली और गोलों से ही की जाए। साथ में जरूरत लगे तो उसे उसके घर में घुसकर ठीक करने की रणनीति पर भी अमल किया जाए और ऐसा किया भी जा रहा है।
कारगिल का युद्ध Kargil War हमें एक और ऐसा सबक देता गया, जिस पर अधिकांश विश्‍लेषकों की नजर कम ही गई है।Kargil War वो ये कि सामरिक रूप से बेहद महत्‍वपूर्ण कारगिल की चोटियों पर पाकिस्‍तानी सेना ने आतंकवादियों के साथ मिलकर कब्‍जा जमा लिया है, ये जानकारी किसी खुफिया एजेंसी के माध्‍यम से नहीं मिली थी।

Kargil War से सीखा गया सबसे बड़ा सबक: नागरिक-सेना समन्वय जरूरी

दरअसल वहां की वादियों में भेड़ें चराने वाले एक देशभक्‍त बालक ने हमारी सेना को यह चौंकाने वाली जानकारी मुहैया कराई थी। उस बालक ने ही सबसे पहले ये बताया था कि उसने कारगिल की कुछ चोटियों पर दुश्‍मन देश के सैनिकों और कुछ संदिग्‍ध लोगों को देखा है। सेना ने तत्‍परता के साथ जब ये जांच पड़ताल की तो बालक द्वारा मुहैया कराई गई सूचनाा शत प्रतिशत सच निकली। तत्‍काल एहतियाती कदम उठाते हुए सरकार को इस गंभीर हालात से अवगत कराया गया। जल्‍दी ही ईट का जवाब पत्‍थर से देने का राजनैतिक निर्णय अटल सरकार की ओर से प्राप्‍त हो गया और दुश्‍मन की अक्‍ल ठिकाने लगाई जा सकी।

Kargil War इस पूरे परिदृश्य में वह बालक और उसकी भूमिका अहम हो जाते हैं, जिसने हमारी सेना को सर्व प्रथम वास्‍तविकता से अवगत कराया और देश के प्रति अपने कर्तव्‍य का पूरी निष्‍ठा के साथ निर्वहन किया।Kargil War आशय ये कि सीमाओं पर बेहद प्रतिकूल वातावरण होने के बाद भी हमारी सेना का तालमेल स्‍थानीय जनता के साथ बेहद शानदार है,Kargil War इसे एक सबक के रूप में भी लिया जाना चाहिए। यदि वह वीर बालक सेना के व्‍यवहार से आश्‍वस्‍त न होता या फिर किसी प्रकार से आतंकित, उपेक्षित होता तो हमें समय पर सूचना मिलना संभव न हो पाता।

नतीजतन सेना को कारगिल पर विजय पाने के लिए अतिरिक्‍त मेहनत करनी पड़ती। जाहिर है हमें केवल गुप्‍तचर एजेंसियों पर निर्भर होकर स्‍वयं को संकुचित अवस्‍था में कैद नहीं करना है।Kargil War जरूरत इस बात की है कि सीमाओं पर सेना और स्‍थानीय जनता के बीच जो बेहतर तालमेल पारंपरिक रूप से चला आ रहा है, उसे और मजबूत एवं व्‍यवहारिक बनाया जाना चाहिए। ये संतोष की बात है कि सीमाओं पर हमारी सेना जनहित के अनेक कार्य जनता के बीच रहकर चलाती रहती है।

स्‍थानीय नागरिकों की ओर से भी सैनिकों को वांछित सहयोग और अपनापन मिलता रहता है। लेकिन अब इसे और व्‍यापक प्रशिक्षण की जरूरत प्रतीत होती है। दुर्भाग्‍यवश हमारा पड़ोसी नीयत से ही बेईमान और अमानुष ही है। हमें उस पर सतत निगरानी की आवश्‍यकता है। यदि इस सावधानी में सेना और सरकारी एजेंसियों के साथ आम नागरिकों का जुड़ाव भी आकार पाता है तो दावे के साथ लिखा जा सकता है कि शत्रु देश भविष्‍य में किसी भी प्रकार के नए कारगिल Kargil War जैसा षड़यंत्र कभी कर ही नहीं पाएगा। (विनायक फीचर्स)

 

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