आज़ादी के बाद कश्मीर मुद्दे की शुरुआत
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दा स्वतंत्रता के बाद से ही सबसे संवेदनशील और जटिल विषय रहा है। यह केवल एक क्षेत्रीय विवाद नहीं बल्कि राष्ट्र की एकता व अखंडता से जुड़ा हुआ प्रश्न है, जो आज भी करोड़ों देशवासियों की भावनाओं को उद्वेलित करता है। जब 1947 में देश आज़ाद हुआ, तो देशी रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान में विलय करें या स्वतंत्र रहें। कश्मीर मुद्दा उसी समय जन्मा, जब जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरीसिंह ने तत्काल किसी पक्ष में न झुकते हुए राज्य को स्वतंत्र रखने का प्रयास किया।
महाराजा हरीसिंह का संतुलन और पाकिस्तान का हमला
राजा हरीसिंह की सोच थी कि अगर कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होता है, तो जम्मू के हिन्दू और लद्दाख के बौद्ध समुदायों के साथ अन्याय होगा और यदि भारत में शामिल होता है तो मुस्लिम बहुल आबादी के साथ अन्याय होगा। इस संतुलन के प्रयास ने कश्मीर मुद्दा को और पेचीदा बना दिया। स्थिति तब और गंभीर हुई जब पाकिस्तान ने कबायलियों की आड़ में कश्मीर पर हमला कर दिया, जिससे भारत ने सुरक्षा के बदले विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराए और सेना भेजी। यही वह मोड़ था जिसने कश्मीर मुद्दा को अंतरराष्ट्रीय बना दिया।
संयुक्त राष्ट्र का हस्तक्षेप और पाकिस्तान की हठधर्मिता
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस विषय में हस्तक्षेप करते हुए पाँच देशों की एक समिति गठित की, जिसने कश्मीर जाकर कश्मीर मुद्दा पर रिपोर्ट तैयार की। उन्होंने पाकिस्तान से मांग की कि वह अपनी सेना और बाहरी लोगों को कश्मीर से हटाए। तभी भारत को अपनी सेना घटाने के निर्देश दिए जा सकते हैं। किंतु पाकिस्तान इन शर्तों को मानने को तैयार नहीं हुआ, जिससे कश्मीर मुद्दा अनसुलझा रह गया।
युद्धविराम और जनमत संग्रह का अवरोध
1 जनवरी 1949 को दोनों देशों ने युद्धविराम पर सहमति तो दी, लेकिन जनमत संग्रह की प्रक्रिया में अवरोध बना रहा। अमेरिकी प्रशासक की नियुक्ति के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार कश्मीर मुद्दा बार-बार टलता रहा और तनाव की जड़ बना रहा।
1954 के बाद पाकिस्तान की नीतियाँ और भारत की प्रतिक्रिया
1954 में पाकिस्तान ने अमेरिका से सन्धि कर सामरिक अड्डे प्राप्त किए और पाकिस्तान की भारत विरोधी नीतियां और अधिक मुखर हो गईं। पाकिस्तान ने ‘सेण्टो’ जैसे सैन्य संगठन में शामिल होकर भारत पर दबाव बनाने का प्रयास किया, जिससे भारत को भी अपनी कश्मीर नीति में परिवर्तन करना पड़ा। नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना नहीं हटाता, तब तक जनमत संग्रह की कोई संभावना नहीं है।
भारत में विलय और अनुच्छेद 370
6 फरवरी 1954 को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने भारत में विलय का प्रस्ताव पारित किया और भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 के तहत राज्य को विशेष दर्जा दे दिया। इसके बाद 1957 में जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान भी लागू कर दिया गया। यह भारत की ओर से कश्मीर मुद्दा पर अंतिम राजनीतिक समाधान था, लेकिन पाकिस्तान ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया और कश्मीर मुद्दा को बार-बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की कोशिश की।
देश के भीतर राजनीतिक मतभेद
भारत ने हमेशा राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए यह स्पष्ट किया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। मगर समस्या यह है कि भारत में ही एक वर्ग ऐसा भी है, जो दलगत राजनीति के कारण कश्मीर मुद्दा जैसे गंभीर विषय पर भी राष्ट्र के हितों के खिलाफ खड़ा हो जाता है। यह वर्ग न तो आतंकवाद के ख़िलाफ़ मुखर होता है और न ही पाकिस्तान के हस्तक्षेप का विरोध करता है।
उमर अब्दुल्ला का स्पष्ट रुख़
इस राजनीतिक पृष्ठभूमि में उमर अब्दुल्ला बयान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जहाँ कश्मीर के कुछ अलगाववादी नेता पाकिस्तान से बातचीत को प्राथमिकता देते हैं, वहीं उमर अब्दुल्ला ने स्पष्ट रूप से कश्मीर मुद्दा की सच्चाई स्वीकार की। उन्होंने पहलगाम में आतंकी हमले के बाद कहा था कि पाकिस्तान की भारत विरोधी नीतियां जम्मू-कश्मीर के विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं। उनके अनुसार, किसी भी आतंकी गतिविधि को युद्ध माना जाएगा और इसके लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।
आतंकवाद बनाम राष्ट्र सुरक्षा
आतंकवाद और राजनीति का यह घातक मेल जम्मू-कश्मीर की शांति और विकास को रोकता रहा है। अगर कश्मीर में पर्यटक नहीं आते, तो इसका दोष सीमा पार से आ रहे आतंकियों पर जाता है, न कि उन सैनिकों पर जो वहाँ शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देते हैं।
विरोध की राजनीति और पाकिस्तान को लाभ
आज भी जब कभी कश्मीर में विकास की कोई नई पहल होती है, कश्मीर मुद्दा को लेकर विरोध का एक नया स्वर देखने को मिलता है। विपक्ष द्वारा सड़क से संसद तक केवल विरोध के लिए विरोध करना अब सामान्य बात हो गई है। यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि इससे केवल पाकिस्तान को फायदा होता है और कश्मीर मुद्दा को जीवित रखने की उसकी साजिशों को बल मिलता है।
राष्ट्रीय एकता का व्यापक दृष्टिकोण
राष्ट्रीय एकता केवल भौगोलिक सीमाओं से नहीं बनती, उसमें भावनात्मक, सांस्कृतिक और वैचारिक एकता का होना अनिवार्य होता है। जब तक भारत के नागरिक राष्ट्र की एकता व अखंडता के प्रति सजग नहीं होंगे, तब तक कश्मीर मुद्दा जैसे विषय केवल राजनीतिक बयानबाज़ी का माध्यम बने रहेंगे।
निष्कर्ष: कश्मीर भारत का अभिन्न अंग
इस लेख के माध्यम से यह संदेश देना आवश्यक है कि कश्मीर मुद्दा को केवल एक राज्य या सरकार की समस्या नहीं समझा जाना चाहिए, यह पूरे भारत की प्रतिष्ठा, अखंडता और आत्मसम्मान से जुड़ा विषय है। हमें सतर्क रहना होगा कि कोई भी दलगत राजनीति इसे कमजोर न कर सके और देश की आंतरिक शक्ति को चुनौती न दे।
आज जब पूरा देश आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से प्रगति की ओर बढ़ रहा है, तब कश्मीर मुद्दा को बार-बार उछालना न केवल एक प्रतिगामी दृष्टिकोण है बल्कि राष्ट्रहित के भी विरुद्ध है। समय आ गया है जब भारत को इस विषय पर एक मत होकर आगे बढ़ना चाहिए, ताकि पाकिस्तान को यह स्पष्ट संदेश मिल सके कि कश्मीर भारत का था, है और रहेगा — यह कोई बहस का विषय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मा का प्रतिबिंब है।
Also Read This – Mahatma Gautama Buddha