लोकतंत्र की मर्यादा और डिजिटल युग की अराजकता: सोशल मीडिया पर बढ़ती नफ़रत की राजनीति

Aanchalik Khabre
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लोकतंत्र में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मर्यादा की एक लक्ष्मण रेखा होती है। और जब वही रेखा लांघी जाती है तब कानून बोलता है।”

यह सिर्फ़ एक टीवी चैनल का स्लोगन नहीं है, बल्कि हमारे जीवंत लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। जब तक वैचारिक बहस और राजनीतिक मतभेद होते हैं, तब तक लोकतंत्र स्वस्थ और मजबूत होता है। लेकिन जब यह बहस व्यक्तिगत हमलों, अभद्र भाषा और अमर्यादित टिप्पणियों में बदल जाती है, तो यह लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने लगती है। आज, सोशल मीडिया के इस तेज़-तर्रार युग में, यह ‘लक्ष्मण रेखा’ लगातार धुंधली होती जा रही है, और इसका ताजा उदाहरण हमें झांसी से मिलता है।

झांसी में कांग्रेस पार्टी के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी ने न केवल सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है, बल्कि एक गंभीर बहस को भी जन्म दिया है। यह बहस है सोशल मीडिया पर बढ़ती अराजकता, अनियंत्रित भाषा और नफ़रत की राजनीति की। मामला तब सामने आया जब कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल, जिसमें कांग्रेस जिलाध्यक्ष अधिवक्ता देशराज रिछारिया और भारतीय राष्ट्रीय युवा कांग्रेस के नेशनल कोऑर्डिनेटर एडवोकेट वैभव भारत बट्टा शामिल थे, ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) से मुलाकात की। उन्होंने अनिल शर्मा नामक एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई की मांग की, जिसने फेसबुक पर राहुल गांधी के लिए ‘अभद्र भाषा और अशोभनीय टिप्पणी’ की थी।

यह मामला सिर्फ़ एक नेता की गरिमा का नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर हर दिन होने वाले उन अनगिनत उल्लंघनों का प्रतिनिधित्व करता है, जो हमारे समाज को बांटने और राजनीतिक वातावरण में तनाव पैदा करने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि इस प्रकार की अवमानना योग्य टिप्पणियाँ न केवल नेता के सम्मान को ठेस पहुँचाती हैं, बल्कि समाज में अराजकता फैलाने का काम भी करती हैं। यह घटना हमें मजबूर करती है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके साथ आने वाली ज़िम्मेदारी के बीच के नाजुक संतुलन पर विचार करें।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम डिजिटल अराजकता

भारत का संविधान हमें अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यह अधिकार हमारे लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। लेकिन, इस स्वतंत्रता पर कुछ तर्कसंगत प्रतिबंध भी हैं, जैसा कि अनुच्छेद 19(2) में बताया गया है। ये प्रतिबंध लोक व्यवस्था, नैतिकता, मानहानि और सुरक्षा के आधार पर लगाए गए हैं। सोशल मीडिया ने इन प्रतिबंधों को एक नई चुनौती दी है। एक ओर, यह जनता को अपनी बात रखने के लिए एक शक्तिशाली मंच प्रदान करता है, लेकिन दूसरी ओर, यह गुमनामी और जवाबदेही की कमी का लाभ उठाकर नफ़रत फैलाने और अफवाहें फैलाने के लिए भी इस्तेमाल होता है।

झांसी का यह मामला इसी द्वंद्व को उजागर करता है। जब एक व्यक्ति किसी राजनीतिक नेता के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करता है, तो वह न केवल उस व्यक्ति की मानहानि करता है, बल्कि उस पार्टी के समर्थकों और उनके विचारों का भी अपमान करता है। इससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है और राजनीतिक बहस का स्तर गिरता है। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या सोशल मीडिया पर राजनीतिक मर्यादा का पालन होना चाहिए? और क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहां विचारों का आदान-प्रदान गाली-गलौज और व्यक्तिगत हमलों तक सिमट गया है?

सोशल मीडिया नियमों का उल्लंघन: एक गंभीर समस्या

झांसी का मामला कोई अकेला नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में, सोशल मीडिया नियमों के उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं। 2020 में, सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए सख्त नियमों की आवश्यकता पर जोर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि सोशल मीडिया मध्यस्थ (intermediaries) अपने मंचों पर पोस्ट की गई सामग्री के लिए ज़िम्मेदार हैं। इसके बाद, भारत सरकार ने 2021 में सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 (IT Rules, 2021) जारी किए। इन नियमों का उद्देश्य सोशल मीडिया कंपनियों को अधिक जवाबदेह बनाना और ऑनलाइन नफ़रत, फ़र्ज़ी ख़बरों और मानहानि को रोकना है।

इन नियमों के तहत, सोशल मीडिया कंपनियों को आपत्तिजनक सामग्री को 36 घंटे के भीतर हटाना होता है, और कुछ मामलों में, उन्हें सामग्री की उत्पत्ति के बारे में जानकारी भी देनी पड़ सकती है। हालांकि, इन नियमों के बावजूद, इनका उल्लंघन जारी है।

राजनीतिक मानहानि: आए दिन, राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता एक-दूसरे पर अपमानजनक और झूठे आरोप लगाते हैं। ये आरोप अक्सर सोशल मीडिया पर वायरल होते हैं, जिससे जनता के बीच भ्रम और नफ़रत फैलती है। उदाहरण के लिए, चुनाव के दौरान, फ़र्ज़ी ख़बरें और भ्रामक वीडियो का इस्तेमाल विरोधी दलों को बदनाम करने के लिए किया जाता है।

समुदायों के बीच नफ़रत: धार्मिक और जातीय समूहों के ख़िलाफ़ भड़काऊ पोस्ट और कमेंट सोशल मीडिया पर आम हैं। ये पोस्ट अक्सर हिंसा और दंगों को भड़काते हैं।

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध: सोशल मीडिया पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा, साइबर बुलिंग और यौन उत्पीड़न के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। इन मामलों में अक्सर पीड़िता को चुप कराने की कोशिश की जाती है।

हाल ही में, कई हाई-प्रोफाइल मामलों में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हुई है। लेकिन, यह भी एक सच्चाई है कि कई मामलों में दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाती है। यह दर्शाता है कि कानून का पालन कराने में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं।

आगे का रास्ता: कानून और नैतिकता का संतुलन

झांसी पुलिस पर अब सबकी निगाहें टिकी हैं। क्या अनिल शर्मा के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की जाएगी? क्या यह मामला आईटी एक्ट और आईपीसी की धाराओं में दर्ज होगा? कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल त्वरित कार्रवाई की मांग कर रहा है। यह मामला सिर्फ़ एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ कार्रवाई का नहीं है, बल्कि यह एक संदेश देने का भी है कि सोशल मीडिया पर अराजकता की कोई जगह नहीं है।

इस समस्या से निपटने के लिए हमें दो मोर्चों पर काम करना होगा:

कानून का प्रभावी क्रियान्वयन: पुलिस और न्यायपालिका को सोशल मीडिया पर होने वाले अपराधों पर त्वरित और प्रभावी कार्रवाई करनी होगी। आईटी एक्ट और आईपीसी की धाराओं का सही तरीके से इस्तेमाल होना चाहिए, ताकि दोषियों को सज़ा मिले और एक मजबूत निवारण (deterrent) स्थापित हो सके।

डिजिटल साक्षरता और नैतिकता: हमें लोगों को यह सिखाना होगा कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल ज़िम्मेदारी से कैसे किया जाए। हमें उन्हें यह बताना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब दूसरों का अपमान करना नहीं है। शिक्षा संस्थानों और सामाजिक संगठनों को इस दिशा में पहल करनी होगी।

नेताओं के बीच वैचारिक मतभेद लोकतंत्र की ताकत हैं, लेकिन व्यक्तिगत हमले और अमर्यादित भाषा उस ताकत को कमजोर कर देते हैं। सोशल मीडिया पर मर्यादा का पालन करना सिर्फ़ कानून का पालन करना नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र के सम्मान की बात भी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि डिजिटल युग की यह नई शक्ति हमारे समाज को जोड़ने का काम करे, न कि तोड़ने का। इस पूरे घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है? क्या आप मानते हैं कि सोशल मीडिया पर राजनीतिक मर्यादा का पालन होना चाहिए? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हम सभी को मिलकर ढूंढना होगा, ताकि हम एक स्वस्थ और समावेशी समाज का निर्माण कर सकें।

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