भारतवर्ष का इतिहास शौर्य, बलिदान और स्वाभिमान से भरा पड़ा है। ऐसे ही एक महान राजा थे Prithvi Raj Chauhan, जिन्हें भारत का “अंतिम स्वतंत्र हिन्दू सम्राट” कहा जाता है। उनका जीवन एक ऐसी वीर गाथा है जिसमें साहस, प्रेम, रणनीति और दुखद अंत सबकुछ समाहित है। उन्होंने सिर्फ एक राजा के रूप में नहीं, बल्कि एक राष्ट्ररक्षक के रूप में भी इतिहास में अपनी पहचान बनाई।
प्रारंभिक जीवन और राजतिलक (Early Life & Coronation)
Prithvi Raj Chauhan का जन्म 1166 ईस्वी के आसपास हुआ था। वह चौहान वंश के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के पुत्र थे। प्रारंभ से ही वह बुद्धिमान, पराक्रमी और रणनीतिक सोच वाले थे। उनकी शिक्षा-पद्धति में शस्त्रविद्या, राजनीति, धर्म और दर्शन शामिल थे। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने अपने पिता के निधन के बाद अजयमेर की गद्दी संभाली।
युवावस्था में ही Prithvi Raj Chauhan ने अपनी बुद्धिमत्ता और युद्ध कौशल से यह साबित कर दिया था कि वे केवल एक राजा नहीं, बल्कि एक कुशल योद्धा और दूरदर्शी शासक हैं। उनका राज्य अजयमेर से लेकर दिल्ली तक विस्तृत था, जो उस समय के सबसे समृद्ध और सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक था।
Prithvi Raj Chauhan का नाम मात्र सुनते ही दुश्मनों के हौसले पस्त हो जाते थे। उनकी वीरता और न्यायप्रियता के कारण वे जनता में अत्यंत लोकप्रिय थे। उनके राजदरबार में कई विद्वान, कवी, और योद्धा शामिल थे, जिनमें प्रमुख थे चंदबरदाई – जो उनके मित्र और राजकवि थे।
संयोगिता और प्रेमगाथा (Sanyogita & Love Saga)
Prithvi Raj Chauhan की प्रेमगाथा भारतीय इतिहास की सबसे रोमांचकारी और प्रेरणादायक कथाओं में से एक है। कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता अत्यंत रूपवती और बुद्धिमती थीं। वह Prithvi Raj Chauhan की वीरता से अत्यधिक प्रभावित थीं, हालांकि उनके पिता जयचंद, Prithvi Raj से शत्रुता रखते थे।
जयचंद ने अपनी पुत्री संयोगिता के स्वयंवर का आयोजन किया और सभी राजाओं को आमंत्रित किया, पर Prithvi Raj Chauhan को अपमान स्वरूप नहीं बुलाया। इसके बजाय उनकी मूर्ति दरवाजे पर द्वारपाल के रूप में लगाई। लेकिन संयोगिता पहले से ही Prithvi Raj से प्रेम करती थीं।
स्वयंवर के दिन, संयोगिता ने सभी राजाओं की उपेक्षा कर Prithvi Raj Chauhan की मूर्ति को वरमाला पहना दी। उसी क्षण, पहले से छिपे Prithvi Raj Chauhan ने उन्हें कन्नौज से भगा लिया और विवाह कर लिया। इस प्रेमकथा ने Prithvi Raj को केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि प्रेम के प्रतीक रूप में भी अमर कर दिया।
यह प्रसंग आज भी भारतीय संस्कृति में प्रेम और साहस का प्रतीक है। यह दिखाता है कि Prithvi Raj Chauhan ने न केवल युद्धभूमि में विजय प्राप्त की, बल्कि अपने प्रेम को भी कठिनाइयों के बावजूद सफल बनाया।
तराइन का पहला युद्ध – 1191 (Battle of Tarain I)
Prithvi Raj Chauhan का सबसे प्रसिद्ध युद्ध था – 1191 ईस्वी में मुहम्मद गोरी के साथ हुआ तराइन का प्रथम युद्ध। मुहम्मद गोरी ने भारत में प्रवेश कर हरियाणा के क्षेत्र में हमला किया और तराइन नामक स्थान पर डेरा डाला। लेकिन Prithvi Raj Chauhan, जो एक रणनीतिक शासक थे, उन्होंने गोरी की चालों को पहले ही भांप लिया था।
इस युद्ध में Prithvi Raj Chauhan ने 1 लाख से अधिक सेना के साथ भाग लिया। उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने अप्रत्याशित वीरता का प्रदर्शन किया और गोरी की सेना को बुरी तरह पराजित किया। गोरी स्वयं युद्ध में घायल हुआ और मुश्किल से अपने जीवन की रक्षा कर सका।
परंतु, Prithvi Raj Chauhan ने उसे मारने के बजाय जीवनदान दिया। यह उनकी राजधर्म और क्षमा की भावना को दर्शाता है, जो भारतीय परंपरा में वीरता के साथ-साथ करुणा को भी महत्व देती है।
यह युद्ध Prithvi Raj की सैन्य ताकत, रणनीतिक कुशलता और नीतिगत मूल्यों को उजागर करता है। यह उनके चरित्र की महानता को दर्शाता है कि उन्होंने एक शत्रु को भी क्षमा कर दिया।
तराइन का दूसरा युद्ध – 1192 (Battle of Tarain II)
Prithvi Raj Chauhan की वीरता और उदारता का लाभ उठाते हुए मुहम्मद गोरी ने अगले ही वर्ष फिर से भारत पर आक्रमण किया। इस बार गोरी ने पहले से अधिक तैयारी के साथ हमला किया, और कुछ भारतीय राजाओं ने भी गोरी का साथ दिया। इससे Prithvi Raj Chauhan के लिए परिस्थितियाँ अत्यंत जटिल हो गईं।
1192 ईस्वी में तराइन का दूसरा युद्ध हुआ, जिसमें मुहम्मद गोरी की सेना ने छलपूर्वक हमला किया। चूँकि गोरी रात में युद्ध करता था – जो भारतीय युद्धनीति के विरुद्ध था – उसने कई चालें चलीं। इस युद्ध में Prithvi Raj Chauhan की पराजय हुई और उन्हें बंदी बना लिया गया।
इस पराजय को भारतीय इतिहास का एक दुखद मोड़ माना जाता है। यदि यह युद्ध Prithvi Raj Chauhan जीतते, तो भारत का भविष्य अलग होता। इस पराजय ने भारत के दरवाज़े विदेशी आक्रमणकारियों के लिए खोल दिए।
अंधत्व, बंदीगृह और वीरगति (Captivity & Death)
कई ऐतिहासिक स्रोतों और लोककथाओं के अनुसार, Prithvi Raj Chauhan को पराजित करने के बाद गोरी ने उन्हें अंधा करवा दिया और अपने दरबार में कैद कर लिया। वहीं उनके मित्र और कवि चंदबरदाई भी उनके साथ थे। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, चंदबरदाई ने गोरी को भाले से मारने की योजना बनाई।
एक अवसर पर गोरी ने अंधे Prithvi Raj Chauhan से धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने को कहा। चंदबरदाई ने उन्हें गोरी के स्थान की जानकारी “चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान” कहकर दी। Prithvi Raj Chauhan ने बिना देखे ही तीर चलाया और गोरी को मार गिराया।
हालांकि इस घटना का ऐतिहासिक प्रमाण संदिग्ध है, पर यह कहानी Prithvi Raj Chauhan की अद्भुत वीरता और चंदबरदाई की मित्रता को अमर कर देती है। इसके बाद दोनों ने वीरगति प्राप्त की।
विरासत और स्मृति (Legacy & Remembrance)
Prithvi Raj Chauhan की वीरता, प्रेम और बलिदान आज भी भारतीय संस्कृति में जीवित है। उनकी गाथाएँ विद्यालयों, लोकगीतों, कविताओं और नाटकों में सुनाई जाती हैं। उन्हें एक महान योद्धा, निष्ठावान प्रेमी और अंतिम हिन्दू सम्राट के रूप में स्मरण किया जाता है।
उनके नाम पर भारत में कई विद्यालय, मार्ग और संस्थाएँ बनाई गई हैं। उनका जीवन यह सिखाता है कि जब तक किसी राष्ट्र में साहसी, नीतिवान और राष्ट्रभक्त योद्धा होते हैं, तब तक कोई भी आक्रमणकारी सफल नहीं हो सकता।
Prithvi Raj Chauhan आज भी प्रेरणा के स्रोत हैं—उनकी बहादुरी, प्रेम, नीति और बलिदान की गाथा सदा अमर रहेगी।
निष्कर्ष
Prithvi Raj Chauhan केवल एक राजा नहीं थे, वे एक युग की चेतना थे। उनका जीवन दर्शाता है कि एक व्यक्ति प्रेम और पराक्रम, दोनों में महान हो सकता है। उन्होंने युद्ध के मैदान में जितनी वीरता दिखाई, उतनी ही निष्ठा अपने प्रेम और प्रजा के लिए भी दिखाई।
उनका नाम, Prithvi Raj Chauhan, आज भी गर्व और प्रेरणा का प्रतीक है। उनकी गाथा आने वाली पीढ़ियों को साहस, समर्पण और राष्ट्रभक्ति की सीख देती रहेगी।
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