सत्र खत्म, चर्चा नहीं
लोकसभा का मानसून सत्र बिना किसी ठोस चर्चा के समाप्त हो गया। गुरुवार को कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। इस मौके पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने विपक्षी दलों के व्यवहार पर खुलकर नाराज़गी जताई। उन्होंने कहा कि संसद में जिस तरह से अहम मुद्दों पर चर्चा को बाधित किया गया, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और देश की जनता इसे देख रही है।
बिड़ला का कड़ा संदेश
लोकसभा अध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि संसद में सभी सांसदों को गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
उन्होंने विपक्ष के आचरण को लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ बताया।
कहा कि संसद कोई नारेबाज़ी की जगह नहीं है, बल्कि यह गंभीर चर्चा का मंच है।
सांसदों से आत्मचिंतन करने की अपील की — न सिर्फ विपक्ष, बल्कि सत्ता पक्ष से भी।
निराशाजनक आंकड़े
इस बार का मानसून सत्र बेहद कमजोर साबित हुआ।
कुल 120 घंटे चर्चा के लिए निर्धारित थे, पर केवल 37 घंटे चर्चा हो सकी।
419 प्रश्न पूछे गए, पर सिर्फ 55 प्रश्नों के मौखिक उत्तर मिल पाए।
12 विधेयक पारित हुए, लेकिन उन पर भी पर्याप्त बहस नहीं हो सकी।
यह साफ दर्शाता है कि संसद का बहुत सारा समय केवल शोरगुल और व्यवधान में ही चला गया।
विपक्ष की ज़िद और रोज़ाना हंगामा
21 जुलाई से शुरू हुए इस सत्र में विपक्ष ने शुरू से ही बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) पर चर्चा की मांग की।
रोज़ाना कार्यवाही बाधित होती रही।
न ठोस चर्चा हो सकी और न ही जनता से जुड़े अहम मुद्दों पर निर्णय लिया जा सका।
क्या संसद केवल विरोध का मंच बन गई है?
आज सवाल यह है कि:
क्या संसद अब बहस और समाधान का मंच नहीं रह गई?
क्या सांसद केवल विरोध और हंगामे के लिए चुने गए हैं?
जनता ने सांसदों को इस उम्मीद के साथ भेजा है कि वे सवाल उठाएंगे, जवाब मांगेंगे और समाधान सुझाएंगे, न कि केवल शोर मचाकर माइक बंद करवाने के लिए।
जनता सब देख रही है
लोकसभा अध्यक्ष ने एक महत्वपूर्ण बात कही — “देश की जनता सब देख रही है।”
आज के समय में हर नागरिक मोबाइल और इंटरनेट से जुड़ा है। लोग संसद की कार्यवाही लाइव देखते और उसका विश्लेषण करते हैं। ऐसे में संसद में होने वाले हंगामे से न केवल सांसदों की छवि खराब होती है, बल्कि पूरे लोकतंत्र की गरिमा पर असर पड़ता है।
विपक्ष और सत्ता, दोनों की जिम्मेदारी
लोकतंत्र में जिम्मेदारी केवल एक पक्ष की नहीं होती, बल्कि दोनों की होती है।
विपक्ष का काम है सवाल पूछना और सरकार की जवाबदेही तय करना — लेकिन गरिमामय तरीक़े से।
सरकार की जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष की मांगों को गंभीरता से सुने और चर्चा के लिए माहौल बनाए।
संवाद की बजाय टकराव का माहौल बनने से संसद का असली उद्देश्य खो जाता है।
संसद को फिर से संवाद का केंद्र बनाना होगा
अब समय आ गया है कि सभी दल मिलकर संसद की गरिमा को वापस लाएं। अगली बार जब संसद का सत्र शुरू हो, तो उसमें:
नारे नहीं, सुझाव सुनाई दें।
शोर नहीं, समाधान दिखे।
यह केवल संसद के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए जरूरी है। ओम बिड़ला की यह बात एक चेतावनी भी है और एक अवसर भी।
चेतावनी इसलिए कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो संसद का महत्व घट जाएगा।
अवसर इसलिए कि अगर सभी सांसद आत्मचिंतन करें, तो संसद को फिर से एक विचारशील मंच बनाया जा सकता है।
You Might Also Like – 130वां संविधान संशोधन विधेयक: गंभीर मामलों में गिरफ्तार नेताओं को पद से हटाने की तैयारी

