अमित शाह का हमला: क्या न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी नक्सलवाद के मददगार हैं?

Aanchalik Khabre
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Amit Shah

विरोधी उम्मीदवार पर बड़ा आरोप

गृहमंत्री अमित शाह ने कोच्चि में मीडिया समूह के कार्यक्रम में विपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार, न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी, पर गंभीर आरोप लगाए है। शाह ने कहा कि अगर 2011 के सुप्रीम कोर्ट के सलवा जुडूम फैसले में जस्टिस रेड्डी ने वह निर्णय नहीं दिया होता, तो देश में नक्सलवाद 2020 से पहले समाप्त हो गया होता। इस तरह उनका तंज था कि यह फैसला नक्सल विरोधी अभियानों के लिए एक नकारात्मक मोड़ साबित हुआ।

सलवा जुडूम निर्णय का असर

जस्टिस रेड्डी की इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि आदिवासी युवक को विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) के रूप में इस्तेमाल करना चाहे उसे कोई दूसरा नाम दे दो असंवैधानिक और गैरकानूनी है। उन्होंने आदिवासियों का हथियारबंद किया जाना बंद कराने का आदेश भी दिया था। यह फैसला उस सोच को चुनौती मानता था, जो नक्सल-विरोध को ऐसे विधियों से रोकने का पक्षधर था।

Amit Shah

शाह ने क्यों उठा यह मुद्दा?

अमित शाह ने आरोप लगाया कि कांग्रेस व वामपंथी सिंहावलोकन से प्रभावित होकर उन उम्मीदवारों को मैदान में उतार रही है जिन्होंने उन दृष्टिकोणों का साथ दिया, जो नक्सलवाद का झंडा उठाते थे। उन्होंने यह भी कहा कि केरल जैसे राज्य में यह कदम कांग्रेस की जीत की संभावना को कम कर देगा, क्योंकि केरल ने भी नक्सलवाद की विभत्सता झेली है।

न्यायपालिका की विरासत

न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी अपने आप में एक प्रतिष्ठित न्यायाधीश के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने संवैधानिक नैतिकता, मानवाधिकार, न्यायपालिका के सिद्धांतों की रक्षा और न्यायिक जवाबदेही को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है। यह आरोप सीधे एक न्यायिक कौशल पर निशाना है, जो संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण करता है।

राजनीति, नैतिकता और चुनावी रणकौशल

यह विवाद केवल उपराष्ट्रपति पद पर हो रही राजनीति तक सीमित नहीं है। यह सवाल खड़ा करता है कि क्या संवैधानिक सर्वोच्चता को चुनावी रणनीति के हिस्से के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है? अमित शाह का संदेश साफ़ है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता की नहीं है, बल्कि यह नैतिकता, संवैधानिक प्रतिबद्धता और न्यायपालिका के सम्मान की रक्षा की है।

अमित शाह की टिप्पणियों ने उपराष्ट्रपति चुनाव को एक मौलिक संघर्ष में बदल दिया है, जहां एक ओर है लोकतंत्र के संस्थानों का सम्मान और संवैधानिक नैतिकता, तो दूसरी ओर राजनीति की रणनीतियाँ और सत्ता की दौड़। यह केवल एक चुनाव नहीं, यह बड़े सवालों का सामना है, संविधान की रक्षा, न्याय की गरिमा और राजनीति की सीमाओं पर एक बुलंद विवेचना।

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