षड्यंत्र का विमर्श मालेगांव केस और भगवा आतंक का सच

Aanchalik Khabre
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साध्वी प्रज्ञा

भारत के समकालीन राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में “भगवा आतंकवाद” (या हिंदू आतंकवाद) जैसी शब्दावली एक दौर में चर्चा का मुख्य केंद्र बन गई थी। परंतु समय के साथ जब जांच एजेंसियों की परतें खुलीं, गवाहियों और सबूतों की जांच हुई, तब सामने आया कि यह एक सुनियोजित राजनीतिक और वैचारिक षड्यंत्र था, जो न केवल निर्दोषों को फंसाने के लिए रचा गया था, बल्कि इससे पूरे समाज में भ्रम और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वातावरण तैयार किया गया।

मालेगांव धमाका: घटनाक्रम और प्रारंभिक जांच

29 सितंबर, 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में एक कम तीव्रता का बम धमाका हुआ। इस विस्फोट में कई लोग घायल हुए और शुरू में इसकी जिम्मेदारी इस्लामिक आतंकी संगठनों पर डाली गई, जैसा कि इससे पहले 2006 के मालेगांव धमाके (जिसमें 30 से अधिक लोग मारे गए थे) में हुआ था। उस मामले में सिमी और लश्कर-ए-तैयबा के नौ लोगों को आरोपित किया गया था।

लेकिन जल्द ही जांच की दिशा बदल दी गई। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित और स्वामी असीमानंद जैसे लोगों पर आरोप लगाए गए कि वे हिंदू कट्टरपंथी संगठन से जुड़कर “जिहादी आतंक” का बदला लेने के लिए बम धमाकों की योजना बना रहे थे।

भगवा आतंकवाद की थीम कैसे उभरी?

इस मालेगांव केस के साथ-साथ 18 फरवरी, 2007 को पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाकों को भी कथित “हिंदू आतंक” से जोड़ा गया। मीडिया और कुछ राजनीतिक वर्गों ने इसे “भगवा आतंक” करार देकर बार-बार उछाला। आरोप लगाए गए कि कर्नल पुरोहित ने 60 किलो आरडीएक्स चुराया और साध्वी प्रज्ञा ने बम के लिए मोटरसाइकिल उपलब्ध कराई।

परंतु फॉरेंसिक रिपोर्ट्स, अमेरिकी एजेंसियों और संयुक्त राष्ट्र की जांच में यह स्पष्ट हो गया कि मालेगांव, समझौता और मक्का मस्जिद धमाकों में इस्लामिक आतंकियों का ही हाथ था। उदाहरण के लिए, आरिफ कसमानी, जो पाकिस्तान से संचालित होता था, ने दाऊद इब्राहिम के माध्यम से इन हमलों को फंड किया।

कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा का उत्पीड़न

लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, जो सेना की खुफिया शाखा में कार्यरत थे, मालेगांव केस में नवंबर 2008 में गिरफ्तार किए गए। उन्होंने यह आरोप लगाया कि उन्हें फर्जी ऑर्डर के तहत भोपाल एयरपोर्ट से मुंबई बुलाया गया और वहाँ से अगवा कर के एटीएस की अवैध हिरासत में रखा गया, जहां उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया।

सेना की कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी ने इस बात की पुष्टि की कि कर्नल आर.के. श्रीवास्तव और अन्य अधिकारियों ने उन्हें षड्यंत्रपूर्वक फंसाया। उनके साथ काम करने वाले खुफिया सूत्र सुधाकर चतुर्वेदी को भी गलत आरोपों में फंसा दिया गया, जबकि साक्ष्यों के अनुसार आरडीएक्स प्लांट करने की कोशिश एटीएस के एक अधिकारी ने खुद की थी।

इसी प्रकार, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को 10 से 23 अक्टूबर, 2008 के बीच बिना महिला कांस्टेबल के हिरासत में रखा गया, प्रताड़ना दी गई, और मेडिकल इमर्जेंसी के बाद ही उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनके नार्को व पालीग्राफ टेस्ट में कोई आपराधिक संकेत नहीं मिला, फिर भी उन्हें वर्षों जेल में रहना पड़ा।

जांच में विसंगतियाँ और न्याय की विजय

एनआईए द्वारा 2013 में दायर चार्जशीट में स्पष्ट रूप से यह दिखा कि जिनके खिलाफ चार्ज लगाए गए, उनके खिलाफ कोई ठोस और वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं थे। चार्जशीट में आरोप तो लिखे गए, लेकिन अदालत में वे कानूनी मानकों पर टिक नहीं पाए।

2017 में कर्नल पुरोहित को जमानत मिली और उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर बताया कि वे उस समय पचमढ़ी में खुफिया प्रशिक्षण ले रहे थे और उन्हें जानबूझकर हटाया गया। यह भी माना गया कि वे मुंबई हमले की तैयारी संबंधी अहम जानकारियाँ जुटा रहे थे, जो कुछ ताकतवर लोगों के हितों के विरुद्ध थीं।

राजनीतिक प्रपंच और वैचारिक एजेंडा

इन घटनाओं के बीच यह बात भी बार-बार सामने आई कि कुछ राजनीतिक दल इस “भगवा आतंक” विमर्श को एक संतुलनकारी तर्क के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। जब इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध देश में आक्रोश था, तब उसे कम करने के लिए एक काल्पनिक “हिंदू आतंक” का विमर्श रचा गया। 2010 में वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने तो मुंबई हमले को RSS की साजिश तक कह दिया।

अदालत का फैसला: सत्य की पुनर्स्थापना

अदालतों ने, विशेषकर एनआईए कोर्ट ने सबूतों के अभाव, गवाहियों के विरोधाभास, और घटिया जांच प्रक्रिया के आधार पर इन सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। फैसले में यह स्पष्ट कहा गया कि जांच पूर्वाग्रहपूर्ण, राजनीति प्रेरित और मूल साक्ष्यों के अभाव में की गई।

निष्कर्ष: न्याय व्यवस्था की जीत या संस्थानों का सवाल?

यह केस सिर्फ एक न्यायिक फैसला नहीं था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र, संस्थागत सत्यनिष्ठा और नागरिक अधिकारों की परीक्षा भी थी।

जहां एक ओर यह राहत की बात है कि आखिरकार सत्य की विजय हुई, वहीं यह चिंता भी आवश्यक है कि राजनीतिक एजेंडे, मीडिया ट्रायल, और जांच एजेंसियों की मनमानी ने कितने निर्दोषों की ज़िंदगी से वर्षों छीन लिए।

यह लेख उन अनगिनत आवाज़ों का प्रतीक है जिन्हें चुप कराने की कोशिश की गई, और उन सच्चाइयों का दस्तावेज़ है जो देर से ही सही, पर सामने आईं।

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