पटना। बिहार की राजनीति इन दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ‘वस्त्र सहायता योजना’ को लेकर गरमाई हुई है। राज्य सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत 16 लाख से अधिक निर्माण श्रमिकों को प्रति वर्ष ₹5,000 की सहायता राशि दी गई है। कुल खर्च ₹802 करोड़ 46 लाख 45 हजार रुपए बताया गया है। लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि यह मदद वास्तव में श्रमिक कल्याण है या फिर चुनावी फायदा उठाने का नया दांव।
नीतीश का दावा, विपक्ष के सवाल
मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पोस्ट में कहा कि “बिहार भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड” में पंजीकृत प्रत्येक निर्माण श्रमिक को यह राशि सीधे बैंक खाते में ट्रांसफर की गई है।
वहीं विपक्ष ने इसे ‘चुनावी रेवड़ी’ बताया है। उनका कहना है कि जब श्रमिक वर्ग न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य सुरक्षा, बच्चों की शिक्षा और स्थायी रोजगार जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, तब सिर्फ वस्त्र खरीदने के लिए ₹5,000 देना एक दिखावटी कदम है।
योजना पर उठे बड़े सवाल
1. पारदर्शिता पर संदेह
क्या वाकई सभी 16 लाख श्रमिक पात्र थे? कई बार निष्क्रिय या अपात्र खातों में भी पैसा ट्रांसफर होने की शिकायतें मिलती रही हैं।
2. सीमित लाभ
यह राशि सिर्फ पंजीकृत श्रमिकों को दी गई है। जिन मज़दूरों के पास दस्तावेज़ या पहचान प्रमाण नहीं है, वे इस लाभ से वंचित रह गए।
3. कम पड़ती राशि
एक वर्ष के लिए ₹5,000 कपड़े खरीदने में मदद तो है, लेकिन परिवार की वास्तविक ज़रूरतों को देखते हुए यह राशि पर्याप्त नहीं मानी जा रही।
4. गलत प्राथमिकता?
जब राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे की स्थिति चिंताजनक है, तो इतने बड़े पैमाने पर खर्च केवल वस्त्र सहायता पर करना क्या सही निर्णय है?
त्योहार और राजनीतिक संदेश
सरकार ने यह राशि मुख्य रूप से नवरात्रि से पहले ट्रांसफर की। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस कदम के पीछे धार्मिक और त्योहार संबंधी भावनाओं को साधने की कोशिश झलकती है। इससे चुनावी माहौल में मतदाताओं को संदेश देने का प्रयास भी हो सकता है।
आलोचक बनाम समर्थक
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सरकार का पक्ष: नीतीश सरकार इसे श्रमिक वर्ग को सम्मान देने और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का कदम बता रही है।
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विपक्ष और आलोचक: उनका कहना है कि यह योजना प्रचार प्रधान और अल्पकालिक है। असली ज़रूरत श्रमिकों के लिए दीर्घकालिक योजनाओं की है, न कि एकमुश्त आर्थिक मदद की।
बड़ा सवाल: कल्याण या चुनावी रणनीति?
जब नीतीश कुमार ने विधानसभा में कहा था कि “बिहार में किसी को फ्री की रेवड़ी नहीं मिलेगी”, तो अब अचानक चुनावी मौसम में ऐसी ‘रेवड़ी नीति’ क्यों अपनाई जा रही है?
क्या यह कदम वाकई श्रमिकों के जीवन में बदलाव लाएगा, या यह सिर्फ़ कुर्सी बचाने की जुगत है? यही प्रश्न आज बिहार की सियासत के केंद्र में है।
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