भक्ति और साम्राज्य का संगम
राजराज चोल प्रथम जब तंजावुर की धरती पर खड़े हुए, तो उनके मन में एक ही संकल्प था — ऐसा मंदिर बनाना जो न केवल उनकी भक्ति, बल्कि चोल साम्राज्य की महानता का प्रतीक बन जाए। यही संकल्प बना बृहदेश्वर मंदिर — जिसे पेरुवुदैयार कोविल, राजराजेश्वरम और पेरिया कोविल के नाम से भी जाना जाता है।
शिल्प की पराकाष्ठा
सन 1010 ईस्वी में जब यह मंदिर पूरा हुआ, तब इसकी भव्यता ने संपूर्ण दक्षिण भारत को चकित कर दिया। 216 फीट ऊँचा इसका विमानम आज भी दुनिया के सबसे ऊँचे मंदिर शिखरों में गिना जाता है। इसकी चोटी पर 80 टन वजनी एक पत्थर को तराश कर रखा गया कुम्भम, वास्तुकला की शक्ति और समर्पण की मिसाल है।
प्रवेश करते ही श्रद्धालुओं का ध्यान खींचती है — एक ही चट्टान से बनी विशाल नंदी की मूर्ति, जो 16 फीट लंबी और 13 फीट ऊँची है। बृहदेश्वर मंदिर पूरा ग्रेनाइट से बना है, जबकि सबसे नज़दीकी ग्रेनाइट खदान 60 किलोमीटर दूर है — यह दर्शाता है कि यह सिर्फ निर्माण नहीं, एक आस्था की यात्रा थी।
एक हजार वर्षों की चमक
आज, एक हज़ार वर्ष बाद भी, बृहदेश्वर मंदिर न केवल यूनेस्को की विश्व धरोहर है, बल्कि तमिलनाडु की सांस्कृतिक आत्मा का जीवंत प्रतीक भी है। यह मंदिर न केवल स्थापत्य की दृष्टि से अद्भुत है, बल्कि सम्राट की धार्मिक आस्था का प्रतीक भी है।
राजराजा चोल प्रथम की प्रेरणा
तमिल सम्राट अरुलमोझीवर्मन, जिन्हें इतिहास में राजराजा चोल प्रथम के नाम से जाना जाता है, ने 1002 ईस्वी में एक ऐसा अद्भुत कार्य आरंभ किया जो आने वाले युगों में दक्षिण भारत की सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक बन गया—बृहदेश्वर मंदिर की नींव।
राजराजा चोल ने इसे अपने शासन की सर्वोच्च उपलब्धि के रूप में देखा। विशाल परिसर, सटीक सममिती और अक्षीय ज्यामिति से युक्त यह मंदिर, चोलों की स्थापत्य कुशलता का जीवंत प्रमाण है। यह पहली प्रमुख परियोजना थी जो चोलों की एक नई स्थापत्य शैली की शुरुआत का संकेत देती है।
द्रविड़ वास्तुकला की परिभाषा
बृहदेश्वर मंदिर ने न केवल द्रविड़ वास्तुकला को पूर्ण रूप से परिभाषित किया, बल्कि यह तमिल सभ्यता की विचारधारा और धार्मिक निष्ठा का प्रतीक भी बना। कांस्य मूर्तियों, भित्तिचित्रों और नक्काशीदार पत्थरों के माध्यम से यह मंदिर आज भी चोल युग की वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला की गौरवशाली उपलब्धियों को जीवित रखता है।
कहते हैं, जब चोल सम्राट राजराजा प्रथम ने कांचीपुरम में पल्लव राजाओं के भव्य मंदिर देखे, तो उनके मन में भगवान शिव के लिए एक अद्वितीय मंदिर बनाने की प्रेरणा जगी। एक स्वप्न ने उन्हें राह दिखाई।
छह वर्षों में बना चमत्कार
1004 ईस्वी में निर्माण शुरू हुआ और केवल छह वर्षों में, 1010 ईस्वी तक यह चमत्कारी बृहदेश्वर मंदिर पूर्ण हुआ। यह मंदिर ग्रेनाइट जैसे कठोर पत्थर से बना हुआ है, जो चोल साम्राज्य की अभियांत्रिकी क्षमता का प्रमाण है।
सत्ता परिवर्तन और संरक्षण
चोल साम्राज्य की शक्ति जब क्षीण हुई, तो पांड्य वंश ने उन्हें सत्ता से हटा दिया। लेकिन सत्ता का यह चक्र यहीं नहीं रुका। विजयनगर साम्राज्य ने पांड्यों को पराजित किया और 1535 में तंजौर में एक नायक राजा की स्थापना की। इसके बाद तंजौर नायक वंश का उदय हुआ, जिसने 17वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया। फिर 1674 में मराठों ने तंजौर पर अधिकार कर लिया, और अंततः तंजावुर भी ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
इन सभी सत्ता परिवर्तनों की गवाही देता है बृहदेश्वर मंदिर, जिसकी दीवारों पर अंकित शिलालेख इतिहास की कई परतें खोलते हैं।
राजराजेश्वरम से पेरुवुदैयार तक
राजराजा प्रथम ने इस मंदिर को “राजराजेश्वरम” नाम दिया और शिव को “पेरुवुदैयार” के रूप में पूजित किया। कालांतर में नायक और मराठा शासकों ने इस मंदिर को और समृद्ध किया, इसके गोपुरमों और उपमंदिरों का निर्माण कर।
ताजगी से भरा परिसर
बृहदेश्वर मंदिर का परिसर 120 मीटर × 240 मीटर में फैला हुआ है। इसे मोटी ईंटों की दीवारों और चारों ओर बने मठों से घेरा गया है। इसके बाहर एक विशाल जलाशय स्थित है जो मंदिर की आत्मनिर्भरता और योजना का प्रमाण है।
वास्तु सौंदर्य की ऊँचाई
मंदिर परिसर में सबसे पहले नज़र आता है नंदी मंडप, जहां भगवान शिव के वाहन विशाल नंदी की मूर्ति विराजमान है। इसके बाद दो विस्तृत मंडप, एक अंतराल और फिर आता है विमान — मंदिर का ऊँचा शिखर, जो आज भी दक्षिण भारत के सबसे ऊँचे पत्थर के शिखरों में गिना जाता है।
मुख्य प्रवेश द्वार अपेक्षाकृत छोटे हैं, लेकिन वे अलंकृत मूर्तियों और द्वारपालों से सजे हैं। जैसे ही श्रद्धालु अंदर प्रवेश करता है, बृहदेश्वर मंदिर इतिहास और अध्यात्म का एक जीवंत संगम बन जाता है।
एक दिव्य स्वप्न की परिणति
तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर की परिकल्पना एक दिव्य स्वप्न की तरह है, जहाँ इतिहास, कला और आस्था एक साथ सांस लेते हैं। जब कोई भक्त इस मंदिर परिसर में प्रवेश करता है, तो उसकी आँखें चारों ओर फैले शिवलिंगों की पंक्ति और दीवारों पर अंकित नायक काल के भित्तिचित्रों से मंत्रमुग्ध हो जाती हैं।
द्रविड़ मंदिरों की यात्रा का शिखर
ग्रेनाइट और ईंटों से बना यह मंदिर गंगईकोंडचोलपुरम के मंदिर जैसा ही भव्य है, परंतु अपनी उच्च कोटि की पूर्णता और द्रविड़ (उत्तरी) शैली की उत्कृष्टता के कारण यह अद्वितीय है। दक्षिण भारत में पाषाण मंदिरों की यात्रा महाबलीपुरम के छोटे मंदिरों से शुरू हुई थी, और बृहदेश्वर मंदिर में आकार लेती इसने अपनी चरम सीमा पा ली।
बदलते स्थापत्य की शिला
चोल वंश के पतन के बाद, मंदिर वास्तुकला की दिशा बदल गई। अब ऊँचे विमान नहीं बने, बल्कि गोपुरम ऊँचे किए गए, और मंदिर को कई परतों में घेरा गया। परंतु बृहदेश्वर मंदिर, अपनी मौलिकता और संतुलन के साथ, आज भी दक्षिण भारतीय मंदिर परंपरा की सबसे परिपूर्ण और प्रभावशाली कृति के रूप में प्रतिष्ठित है।
एक सहस्त्राब्दी की गूंज
तंजावुर का पेरिया कोइल, चोलों की सबसे भव्य रचना है, जो पूरे तंजावुर से दिखाई देता है। इसे “ग्रेट लिविंग चोल मंदिर” के रूप में यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। 2010 में इस मंदिर ने अपने 1000वें वर्ष का उत्सव मनाया, जिसे पूरे देश ने सराहा।
इस अवसर पर इंडिया पोस्ट ने 216 फीट ऊँचे विमाना की छवि वाला एक रुपये का डाक टिकट जारी किया। भारतीय रिजर्व बैंक ने 5 रुपये का सिक्का और फिर उसी चित्र के साथ 1000 रुपये का स्मारक सिक्का जारी किया, जो सार्वजनिक उपयोग में नहीं रहेगा। 1954 में भी इसी बृहदेश्वर मंदिर की छवि वाला 1000 रुपये का नोट छपा था।

