आँचलिक ख़बरें के सौजन्य से 17वीं डाक कांवर यात्रा

Aanchalik Khabre
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बाबा भोले के भक्तों द्वारा महावीर एन्क्लेव पार्ट 1 पालम से कल दिनांक 11 जुलाई को सायं 10 बजे डाक कांवड़ यात्रा की शुरुआत की गई. इस पावन यात्रा की शुरुआत आँचलिक ख़बरें अपनों की खबर आप तक के संस्थापक सदस्य आँचल शर्मा बंसल व शिशिर बंसल द्वारा की गई. इस दौरान भारी संख्या में शिव भक्त उपस्थित रहे. बोल बम, और बम भोले के घोष से वातावरण गुंजायमान हो उठा.

बताते चलें कि सावन का महीना शुरू होते ही, देश में भक्ति की लहर दौड़ पड़ती है. इस दौरान देश भर में कांवड़ यात्रा की शुरुआत की जाती है. इसी क्रम में दिनांक 11 जुलाई को सायं 10 बजे आँचलिक ख़बरें के सौंजन्य से संस्थापक सदस्य, आँचल शर्मा बंसल व शिशिर बंसल द्वारा, भक्ति भाव तथा देश व समाज के कल्याण की इच्छा मन में रखते हुए, बाबा भोले की 17वीं डाक कांवड़ यात्रा का शुभारम्भ किया गया. डाक कांवड़ यात्रा की शुरुआत के लिए विधि विधान से पूजा पाठ किया गया एवं, आँचल शर्मा बंसल द्वारा नारियल फोड़ा गया. इस दौरान भारी संख्या में शिव भक्त उपस्थित रहें. इस डाक कांवड़ यात्रा का नेतृत्व करने वाले कुलदीप चौहान ने बताया कि, 14 जुलाई को प्रातः 6 बजे हरिद्वार से कांवड़ उठाई जाएगी, जो 15 जुलाई को द्वारका (दिल्ली) पावर हाउस के पास शिव मंदिर पहुंचेगा. इस यात्रा में कुलदीप चौहान, रवि, सोनू, राज डीजे, ध्रुव, आकाश कुमार, संजू, सोनू दिनेश, विजेंद्र, अज्जू सिंह, पवन वर्मा, अर्जुन, सोनू, गौतम आदि शिवभक्तों शामिल हैं.

कांवड़ यात्रा का इतिहास.

शिव पुराण के अनुसार सावन माह में देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था. मंथन के दौरान चौदह प्रकार के माणिक निकलने के साथ ही हलाहल(विष) भी निकला. हलाहल निकलते ही वायु विषाक्त होने लगी और धीरे धीरे सृष्टि का नाश करने लगी. चारो ओर हाहाकार मच गया, मनुष्य, पशु पक्षी एवं अन्य जीव मूर्छित होने लगे. ये देख कर देवताओं ने इस हलाहल से सृष्टि को बचाने के लिए, भगवान शिव से प्रार्थना की, भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए, इस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण कर लिया. और सृष्टि को इस विष से बचा लिया. शिव द्वारा विष को कंठ में धारण करने से उनका कंठ नीला पड़ गया. ये देख कर भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम शिव को नीलकंठ कह कर सम्बोधित किया. तभी से भगवान शिव का एक और नाम नीलकंठ पड़ गया. भगवान शिव ने ये विष गले में धारण किया था, जिस वजह से उनके गले में जलन होने लगी. मान्यता है कि शिव भक्त रावण ने भगवान शिव के गले की जलन को कम करने के लिए, उनका गंगाजल से अभिषेक किया था. रावण ने कांवड़ में जल भरकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया. इसके बाद से ही कांवड़ यात्रा का प्रचलन शुरू हुआ.

दूसरे मत के अनुसार.

परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि कजरी वन में अपनी पत्नी रेणुका के साथ रहते थे। वह बड़े शांत स्वभाव और अतिथि सत्कार वाले महात्मा थे। एक बार प्रतापी और बलशाली राजा सहस्त्रबाहु का कजरी वन में आना हुआ। तो ऋषि ने सहस्त्रबाहु और उनके साथ आए सैनिकों की सभी तरह से सेवा की। सहस्त्रबाहु को पता चला कि ऋषि के पास कामधेनु नाम की गाय है। इस गाय से जो भी माँगा जाए, मिल जाता है। इसी के चलते ऋषि ने तमाम संसाधन जुटाकर राजा की सेवा की है। इस पर सहस्त्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु गाय की माँग की। जब ऋषि ने देने से मना कर दिया तो राजा ने उनकी हत्या कर दी और गाय को अपने साथ लेकर चला गया।इसकी जानकारी जब परशुराम को मिली तो उन्होंने सहस्त्रबाहु की हत्या कर दी और अपने पिता ऋषि जमदग्नि को पुनर्जीवित कर लिया। ऋषि को जब परशुराम द्वारा सहस्त्रबाहु की हत्या की बात पता चली तो उन्होंने परशुराम को गंगा जल लाकर शिव लिंग का जलाभिषेक कर प्रायश्चित करने की सलाह दी। परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा मानते हुए कजरी वन में शिवलिंग की स्थापना की। वहीं उन्होंने गंगा जल लाकर इसका महाभिषेक किया। इस स्थान पर आज भी प्राचीन मंदिर मौजूद है। कजरी वन क्षेत्र मेरठ के पास स्थित है। जिस स्थान पर परशुराम ने शिवलिंग स्थापित कर जलाभिषेक किया था। उस स्थान को ‘पुरा महादेव’ कहते हैं।

क्या है इसका महत्व.

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, भगवान शिव का आशीर्वाद जीवन के हर बड़े संकट से निपटने में मदद करता है. ऐसा माना जाता है कि अगर कोई पूरी श्रद्धा और सच्ची भावना के साथ उन्हें एक गिलास पानी भी अर्पित करता है, तो उस व्यक्ति पर उनकी कृपा बनी रहती है. भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव एवं अटूट विश्वास के कारण ही हर वर्ष भक्तगण कांवड़ ले कर आते हैं. पूरी यात्रा के दौरान कांवड़ियों को यह सुनिश्चित करना होता है कि मिट्टी के बर्तन जमीन को न छुएं. जल ले जाते समय भक्त नंगे पैर चलते हैं, और कुछ भक्त तो जमीन पर लेटकर तीर्थयात्रा पूरी करते हैं. साथ ही डाक कांवड़ यात्रा भी निकाली जाती है. यात्रा के दौरान वे भगवा वस्त्र पहनते हैं. तीर्थयात्रा के दौरान कई लोग उपवास रखते हैं. कहते हैं कि इस यात्रा को करने वाले मनुष्य के सभी पाप धुल जाते हैं और उनकी मनोकामाएं पूरी होती हैं.

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