मैंने बार बार स्पष्ट रूप से कहा है कि देश के सारे प्राकृतिक संसाधन ही समाज की सामूहिक पूंजी होते हैं और इस पूंजी पर देश के सभी नागरिकों का समान जन्म सिद्ध अधिकार होता है, जिसे घटाया बढ़ाया या समाप्त भी नहीं किया जा सकता। इसलिए एक नागरिक का जन्म सिद्ध और मूलभूत संपत्ति (पूंजी) का अधिकार केवल औसत सीमा तक ही हो सकता है।
लेकिन इस संपत्ति अधिकार (औसत पूंजी) का सदुपयोग करने की सबकी योग्यता क्षमता और कर्मठता बराबर नहीं होती। किसी की बहुत कम होती है तो किसी की बहुत ज्यादा। इसलिए जिनकी यह क्षमता अधिक होती है वही लोग पूंजी का अधिक उपयोग कर पाते हैं। उसीसे उद्योग व्यापार कृषि पशुपालन और अनेक प्रकार की आर्थिक सेवाओं में नियोजित कर पाते हैं।
इन सभी कामों में औसत सीमा से अधिक पूंजी लगती है और औसत से अधिक पूंजी समाज से मिलती है। इसलिए जो लोग ओसत सीमा से अधिक राष्ट्रीय पूंजी का उपयोग कर रहे हैं वे सभी लोग स्वाभाविक रूप से अधिक पूंजी के लिए समाज के कर्जदार होते हैं और समाज को उनसे ब्याज के रुप में अपना न्यायपूर्ण हिस्सा मिलते रहना चाहिए और इसे बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों में बराबर बराबर बांटा भी जाना चाहिए।
यह बात अच्छी तरह समझ में आनी चाहिए कि नागरिक भत्ते के रूप में हर व्यक्ति को मिलने वाला यह बंटवारा उसकी मेहनत का अधिकार नहीं है बल्कि ब्याज के रुप में हर नागरिक का मूलभूत पूंजी अधिकार है जिस पर पूरी अर्थव्यवस्था खड़ी होती है।
हम जानते हैं कि पूंजी के अधिकार का लाभ ब्याज के रुप में मिलता है। जो व्यक्ति किसी से कर्जा लेता है उसे पूंजी के मूल धन के साथ साथ उसका ब्याज भी देना पड़ता है और कर्जा देने वाले व्यक्ति को बिना किसी मेहनत के ब्याज के रुप में लाभ मिलता है। इससे कर्जा देने वाला व्यक्ति बिना मेहनत किए ही भारी लाभ प्राप्त करके सम्मपन्न होता रहता है जबकि कर्जा लेने वाला व्यक्ति भारी मेहनत करके भी ब्याज के रुप में घाटा उठाकर विपन्न होता रहता है। यह कमजोर व्यक्ति का शोषण है और उसी का अंतिम परिणाम भारी आर्थिक विषमता गरीबी बेरोजगारी अभाव अन्याय अपमान उपेक्षा असंतोष टकराव अविश्वास मतभेद विद्रोह अवंज्ञा षड्यंत्र अशांति आतंकवाद अलगाववाद नक्सलवाद और अनेक अपराधों शत्रुता युद्ध और विनाश के रूप में सामने आता है।
यदि हम इस पर अंकुश लगाना चाहते हैं तो इसका एकमात्र रास्ता पूंजी से मिलने वाले संपूर्ण लाभ को किसी भी एक व्यक्ति का लाभ नहीं बल्कि पूरे समाज का सामूहिक लाभ है और इसे में सभी नागरिकों की समान भागीदारी माननी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता और इसी के कारण कुछ लोग बिना मेहनत किए ही निरंतर संपन्न होते जाते हैं और दूसरे अनेक लोग भारी मेहनत करके भी भूखे और अभावग्रस्त रहने के लिए मजबूर होते हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए।
पूंजी के ब्याज के रुप में मिलने वाले लाभ से व्यक्ति की मेहनत का कोई संबंध नहीं होता और यदि इसे समाज में सब लोगों को समान रुप से बांटा जाए तो समाज के सबसे कमजोर अयोग्य आलसी अज्ञानी या अपंग व्यक्ति को भी उसके न्यूनतम जन्म सिद्ध अधिकार के रूप में जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्मान पूर्वक मिलता रहेगा और समाज का हर व्यक्ति उससे अपना जीवन आजादी और सुख शांति के साथ जीता रहेगा। इससे किसी को भी कोई परेशानी नहीं होगी।
हमें यह बात समझनी होगी कि पूरा समाज एक विशाल परिवार होता है और किसी भी बड़े परिवार में सभी सदस्यों की बौद्धिक अथवा शारीरिक योग्यता क्षमता और कर्मठता बराबर नहीं होती। लेकिन परिवार की कमाई और सुख सुविधाओं में सब का समान अधिकार होता है और जब परिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है तो परिवार के सभी सदस्यों को उसका समान हिस्सा मिलता है। फिर चाहे किसी की योग्यता कम हो और दूसरे की बहुत अधिक हो। यही न्याय पूर्ण बंटवारा है।
लेकिन परिवार में तो हम यह बंटवारा करते हैं किंतु समाज में यह बंटवारा नहीं करते। सारा लाभ अपने आप को विद्वान विशेषज्ञ योग्य कर्मठ और बुद्धिमान मानने वाले लोग बांट लेते हैं तथा सीधे साधे सामान्य लोग उस से वंचित कर दिए जाते हैं। यह स्पष्ट रूप से भारी अन्याय है और समाज की सभी समस्याओं की जड़ है।
यदि आप इससे सहमत हैं तो आप इसे सब लोगों में शेयर कीजिए और अंतिम बिंदु तक इसे शेयर करते जाइए ताकि यह बात समाज के हर नागरिक तक पहुंचाई जा सके और समाज में न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था कायम हो सके, जिसमें एक भी व्यक्ति दुखी न हो और सभी सुखी हो।
कोई भी व्यक्ति इस बात को बहुत आसानी से समझ सकता है कि उसे सुखी और सुरक्षा प्रेम और आत्मीयता के लिए परिवार की जरूरत होती है उसी प्रकार उसे एक अच्छे समाज की भी जरूरत होती है और उसके बिना कोई भी व्यक्ति सुरक्षित और सुख शांति पूर्ण जीवन प्राप्त नहीं कर सकता।
अच्छा समाज वही है जिसमें सब अपने हैं और कोई भी पराया न हो फिर चाहे वह सबसे अधिक योग्य और बुद्धिमान हो या चाहे सबसे मूर्ख और अयोग्य।