भारत में बाल कुपोषण की दर दुनिया में सबसे खराब है, विश्व स्तर पर कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई हिस्सा भारतीय है। भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 (एनएफएचएस 5) के अनुसार, ‘पांच साल से कम उम्र के 36 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं; 19 प्रतिशत मर जाते हैं; 32 प्रतिशत का वजन कम है; और 3 प्रतिशत अधिक वजन वाले हैं। गरीब परिवार व अशिक्षित माताओं से पैदा हुए बच्चों के कुपोषित होने की संभावना सबसे अधिक होती है।’
विश्व भर में सर्वे करने वाली एजेंसी वर्ल्डोमीटर के अनुसार भारत दुनिया में कुपोषित लोगों का सबसे बड़ा योगदानकर्ता है. लगभग 194.4 मिलियन लोगों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है। बताते चलें कि भारत सरकार के लिए एक निरंतर मुद्दा और निरंतर कठिनाई बाल कुपोषण है। भारत पहले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) में बाल स्वास्थ्य संकेतकों के लिए सबसे कम परिणाम वाले देशों में से एक था, जो 1992-1993 में आयोजित किया गया था। उस दौरान हुए सर्वेक्षण के अनुसार, चार साल से कम उम्र के आधे से अधिक छोटे बच्चे कम वजन वाले और बौने थे। हर छठे बच्चे में एक बच्चे का बॉडी मास इंडेक्स असामान्य रूप से कम था।
क्या है कुपोषण
कुपोषण एक गंभीर स्थिति है जो तब होती है जब आपके शरीर को एक इंसान के कामकाज के लिए आवश्यक पोषक तत्व या तो बहुत कम (अल्पपोषण), या बहुत अधिक (अति पोषण) मिलते हैं। दूसरे शब्दों में, यह उचित पोषण का अभाव है। कुपोषण का शरीर के विकास या रूप पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और इससे बौनापन, कमज़ोरी और अल्पपोषण होता है और बच्चों का वजन कम या मोटापे का कारण बनता है। जैसा कि नाम से पता चलता है, कम वजन होने का तात्पर्य स्वस्थ माने जाने के लिए शरीर का वजन कम होना है। वजन की सही मात्रा बनाए रखना आवश्यक है, क्योंकि कम वजन होने से प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो जाती है और आप हर समय थकान और सुस्ती महसूस करते हैं। खड़े होने जैसी सरल क्रियाएं भी कमजोर शरीर की तुलना में अधिक तनाव का कारण बनती हैं।
मोटापा कम वजन का पूरक है क्योंकि यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में असामान्य मात्रा में वसा इस हद तक जमा हो जाती है कि इसका व्यक्ति के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। कम वजन और मोटापा दोनों ही दीर्घकालिक कुपोषण की निशानियां हैं। बौनापन एक चिकित्सीय स्थिति है जिसमें बच्चे की वृद्धि और विकास ख़राब हो जाता है। नतीजतन, उनका शरीर एक अच्छी ऊंचाई हासिल करने में असमर्थ हो जाता है, जिससे उनकी उम्र और वजन अनुपातहीन हो जाता है। इस स्थिति में रुग्णता और मृत्यु दर उच्च है। बौनापन तीव्र कुपोषण का परिणाम है, जबकि बच्चे की मृत्यू मुख्य रूप से लंबे समय तक अनुचित पोषण के कारण होती है
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) में भारत की स्थिति ख़राब
वैश्विक भूख सूचकांक 2022 में भारत की स्थिति और भी खराब बताई गई है। दक्षिण एशियाई देशों की बात करें तो भारत की स्थिति युद्धग्रस्त देश अफगानिस्तान से कुछ बेहतर है। अफगानिस्तान इस सूची में 109वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के प्रकाशकों ने भारत में ‘भूख’ की स्थिति को गंभीर बताया है।ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2022) में भारत को सबसे निचले स्थान पर रखा गया है, जो कि बच्चों के कद में वृद्धि, कमजोरी और मृत्यु जैसे कारकों से निर्धारित होता है, जिससे भारत 121 देशों में 107वें स्थान पर है।
हजारों करोड़ के बजट से भी नहीं निकल रहा हल
बताते चले कि कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए दशकों से हजारो करोड़ रुपये का बजट जारी किया जाता रहा है. लेकिन भारत में अभी भी बाल कुपोषण की दर दुनिया में सबसे खराब है। बाल कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (ICDS) है। ICDS शिक्षा के अलावा, एक पूरक पोषण कार्यक्रम, विकास निगरानी और प्रचार, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और स्वास्थ्य रेफरल प्रदान करता है।
पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे, साथ ही गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताएं मुख्य लाभार्थी हैं। यह 1,012,374 आंगनवाड़ी केंद्रों के नेटवर्क के माध्यम से 8.36 करोड़ ग्राहकों को सेवा प्रदान करता है।
बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के बीच पोषण को बढ़ावा देने के लिए, भारत सरकार ने 2017 में पोषण अभियान की स्थापना की। जिसका उद्देश्य सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को प्राप्त करना है, जिसमे भूख को मिटाना और खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण प्राप्त करना आदि शामिल है।
इन कार्यक्रमों को बनाने के लिए आंगनवाड़ी सेवाओं, पोषण अभियान, किशोरियों के लिए योजना और राष्ट्रीय क्रेच योजना को संयुक्त किया गया था। केंद्रीय बजट 2021-22 में 3,483,235.63 करोड़ रुपये के बजट के बावजूद, बाल पोषण (सक्षम आंगनवाड़ी और मिशन पोषण 2.0) के लिए प्रावधान केवल लगभग 20,105 करोड़ रुपये या पूरे बजट का 0.57 प्रतिशत रहा है। केंद्रीय बजट 2021-22 के लिए कुल संग्रह में 14.5% की वृद्धि हुई, हालांकि, बाल पोषण के लिए समर्पित हिस्से में 2020-21 से 2021-2022 तक 18.5% की कमी आई। वहीं 2022-2023 में प्रधान मातृ पोषण शक्ति निर्माण (पीएम पोषण) पहल के लिए लगभग 10,234 करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दी गई है।
ये समस्याएं भी है बाधक
भारत में ऐसी अन्य स्थिति या समस्याएं भी है जो कुपोषण को और अधिक प्रभावी बनती हैं. जैसे एनीमिया, जिसे कम हीमोग्लोबिन भी कहा जाता है; एक ऐसी स्थिति जो इंसान को थका हुआ और कमजोर महसूस करा सकती है. क्योंकि एनीमिया से शरीर में ऊतकों तक पर्याप्त ऑक्सीजन ले जाने के लिए पर्याप्त स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाओं की कमी हो जाती है, यह 5 साल से कम उम्र के 67% बच्चों को प्रभावित करती है। महिलाओं में एनीमिया बहुत अधिक प्रचलित है, क्योंकि भारत में अपेक्षाकृत 25% पुरुषों (50 वर्ष से कम) की तुलना में 57% भारतीय महिलाएं इससे पीड़ित हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, 50 साल से कम उम्र की 19% महिलाएं और 16% पुरुष कुपोषित हैं, जबकि 24% महिलाएं और 23% पुरुष मोटापे का शिकार हैं। इस प्रकार, 1.38 बिलियन की विशाल आबादी का लगभग 40% कुपोषित है।
भौगोलिक दृष्टि से, महाराष्ट्र के बाद बिहार और गुजरात में बच्चों में कुपोषण का स्तर देश में सबसे खराब है। मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और झारखंड में कुपोषण की दर बहुत अधिक है। संयोग से, इन क्षेत्रों में बच्चों की आबादी भी सबसे अधिक है और गरीबी दर भी सबसे अधिक है। यहां तक कि मिजोरम, सिक्किम और मणिपुर जैसे सबसे कम कुपोषण प्रतिशत वाले राज्यों में भी कुपोषण की दर विकसित देशों की तुलना में बहुत अधिक है।
भारत में, कई सामाजिक-आर्थिक कारक कुपोषण के स्तर में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। सामान्य तौर पर, जो लोग गरीब हैं, उन्हें अल्प-पोषण का खतरा होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में अल्पपोषण आम है, जिसका मुख्य कारण निवासियों की निम्न सामाजिक और आर्थिक स्थिति है।
विश्व गुरु भारत का भविष्य है कुपोषित
कहने को तो हम अपने आप को विश्व गुरु कहते हैं, और मौजूदा बीजेपी सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष कह कर सम्बोधित करती है. लेकिन जमीनी हकीकत इसके बिलकुल उलट है. जिस भारत को विश्व गुरु कहने का दावा किया जा रहा है, उसका भविष्य यानि नवजात शिशुओं का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार है. हर साल सरकार द्वारा जारी हजारों करोड़ रुपये के बजट के बावजूद भी देश में कुपोषण की स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है. इसके लिए शिथिल सरकारी कार्यप्रणाली और सम्बंधित विभाग की लापरवाही जिम्मेदार है. कुपोषण के बढ़ने का एक अन्य अहम कारण है जागरूकता की कमी. आज भारत में कुपोषण जैसे जरुरी मुद्दे पर चर्चा न के बराबर होती है. ज्यादातर समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में सियासत की चाटुकारिता व मीडिया का बाजारवाद हावी है. ऐसी स्थिति में कुपोषण से बचाव व इसके लिए चलाये जा रहे अभियानों की जानकारी व लाभ पारों को नहीं मिल पा रहा है. वहीं कुपोषण के मुद्दे और इससे जुड़े अभियानों या सुविधाओं की जागरूकता बढ़ाने की जिम्मेदारी सरकार, सम्बंधित विभाग और मीडिया की है. सरकार के पास हजारों रुपये खर्च करके पार्टी प्रचार का विज्ञापन देना आसान है लेकिन कुपोषण जैसे मुद्दे की जन जागरूकता के लिए सरकार कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिखती है. सरकार के इतर सम्बंधित विभाग द्वारा बरती जाने वाली उदासीनता से भी कुपोषण जैसी गंभीर समस्या का समाधान आम लोगों तक नहीं पहुँच पाता. अगर बात करें मीडिया की तो आज मीडिया संस्थान अलग-अलग खेमे में बँट चुके हैं. जिन्हे सिर्फ पार्टी विशेष की पत्रकारिता करनी होती है. जिस देश में नवजात शिशु कुपोषण का डंस झेल रहे हैं, उस देश में विकास और राष्ट्र की तरक्की का ढिंढोरा पीटना बेमानी होगी.