जिज्ञासा करने में विवेक, बुद्धि का उपयोग करना चाहिए-आंचलिक ख़बरें-राजेंद्र राठौर

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-प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्र मुनि जी म.सा.।
आत्मो्द्धार वर्षावास के अन्तर्गत दिनांक 27 अक्टोमबर गुरूवार को धर्मसभा में प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्र मुनि जी म.सा. ने कहॉ कि भगवान महावीर स्वामीजी के स्थविरो , तथा भगवान पार्श्वनाथ जी के कालास्यवेशी तथा शिष्यों का मिलन एक गॉंव में हुआ था। अपरिचितो का मिलन हुआ था। छोटे-बडे ग्रामों में भी मिलन होता है, आपस में परिचय होता है। अपने-अपने मत मानने वाले भी परिचित होते है तो इनमें परस्पर प्रेम का व्यवहार हो जाता है। अन्य धर्म के मानने वालो का भी परिचय होता है। एक दूसरे से अच्छी तरह से बात करे तो अच्छा, नहीं तो चेष्टाऍ दुषित होती है। रोद्र स्वभाव हो तो आक्रोश आ जाता है। विदेश से आऍ व्यक्ति से भी परिचय हो जाता है। कभी-कभी विदेश से आऍं व्यक्ति से भी दुर्व्यवहार भी करते है, हँसी उडाते है। आपने आगे कहॉ कि मिलन कर्म के उदय से सहजरूप से भी होता है। दुध-पानी जैसा मिलन होता है। मिलने के अनेक कारण होते है। पूर्व के अनुराग हो, तो मिलन होता है, धीरे-धीरे राग में वृद्धि होती है। शादी में लडका-लडकी अलग-अलग गाव के होते है, इनका प्रेम पूर्वक मिलन होता है। व्यापारियो का मिलन होता है, व्यापार के संबंध बन जाते है। मिलन स्वार्थ जानित तथा प्रयोजन जनित भी होता है। इच्छापूर्वक भी मिलन होता है। कालस्यवेशी ने भगवान के शिष्यो से आक्षेप मुक्त प्रश्न पुछने में भगवान शब्द का संबोधन किया/ संबोधन मधुर था। जिज्ञासा करने मे विवेक बुद्धि होना चाहिए। जीव पाप को पाप मानकर पाप से घृणा करे तो शाश्वत सुख प्राप्त कर सकता हे ।
-पुज्य संयत मुनि जी म.सा।
धर्मसभा में अणुवत्स पूज्य संयत मुनि म.सा. ने कहॉ कि शॉंतिनाथ भगवान चक्रवर्ती पद छोड कर शांति में लीन हो गए थे। शांति तथा सुख सभी चाहते है। अशांति तथा दु:ख क्यों होता है? दु:ख देने से दु:ख होता है, सुख देने से सुख मिलता है। जीव अन्य जीवो को दु:खी कर 18 पाप करके ऐसे कर्म बांध कर खुद दु:खी होता है। पिछले भव में अशुभ कर्म किए होगे , किसी को सताया, रूलाया होगा, उसका फल जब मिलता है,व्यक्ति सोचता है कि दु:ख क्यों आए? कर्म करते समय पता नहीं लगता कि कैसे कर्म कर रहा हॅू। पाप कर्म खुश होकर करता है। पाप करना सरल लगता है, धर्म करना कठिन लगता है। आपने दु:ख विपाक के प्रथम अध्याय *मृगा पुत्र * के बारे में विस्तार से बताया। मृगानगर में पूर्णभद्र चैतय था । , विजय राजा का राज्य था। मृगारानी के पुत्र हुआ, जिस का नाम ‘मृगा-पुत्र’’ रखा था। मृगापुत्र जन्म से ही अंधा, गुंगा,बहरा, हाथ पैर नही,मात्र मांस का लोथडा था। उसी नगर में एक जन्मांध पुरूष भी था, जिसकी ऑंखे ही नहीं थी। इस नगर में भगवान पधारे तो उस पुरूष ने भी वंदन करने के लिए जाने के लिए कोलाहल सुनकर जाना चा‍हा। वह भगवान के चरणों में पहूंचा। भगवान की वाणी सुनी। वाणी सुनकर सब वापस लौट गए। इंद्रभुति गौतम स्वामी जी ने भगवान की वंदना कर पुछा क्या इस नगरी में और भी इस व्यक्ति के समान अंधा व्यक्ति है? तब भगवान ने मृगापुत्र को देखने का कहा। गौतम स्वा्मी जी गए, मृगा रानी ने वंदना की आप क्यो पधारे पुछा? बोले आपके पुत्र को देखने आए है। रानी के 4 पुत्र और जो सुंदर थे, उनको बताया। गौतम स्वामीजी ने कहॉं मुझे मृगापुत्र को दिखाओ? रानी ने पुछा आप केसे जानते हो, इसका नाम तथा इसके बारे में।वे बोले भगवान सर्वज्ञ है, उन्होंने बताया। रानी ने कहॉ बताती हॅू। मृगापुत्र का उस समय भोजन का समय हुआ था। लकडी की गाडी में भोजन रख कर पीछे पधारे। रानी ने कहा आप मॅुह, नाक बांध लो। मॅुह नाक पर कपडा बांध कर आगे बढे। तल घर में मृगापुत्र को रखते थे। पहले भोजन कराया, जल्दी जल्दी आहार मृगापुत्र ने किया तो आहार पस और खुन के साथ बाहर निकल गया,बार -बार आहार कराते तो आहार बाहर निकल जाता। मृगापुत्र पस, खुन से निकला आहार चाट लेता था। गौतम स्वामी को चिंतन हुआ।इस जीव ने पूर्व भव में ऐसा कौन सा कर्म किया होगा जो इस भव में इसका शरीर ऐसा है। वे भगवान के पास वापस गए, जिज्ञासा हुई कि इसने राजा के घर जन्म लिया, फिर ये ऐसा क्यों है? भगवान ने कहॉ कि सतद्वार नगर था, धन पति राजा का विजय वर्धमान नगर था। उसके इकाई नाम का राष्ट्र कूट अर्थात अधिकारी था। जो जमीदार तथा राजा का प्रतिनिधि था। उसे राजा ने 500 गांव का अधिपत्य सौपा था। वह ईकाई राष्ट्रकूट अधर्मी था, धर्म से नफरत करता था। साधुओ का द्वेषी था, उसे पाप कर्म करने में आनंद आता था। लोगो से कर वसूलता था, अनाज लेता था, रिश्वत लेता था। मारना, पिटना, ज्यादा ब्याज वसुलना, गिरवी वस्तु
हडपना, झूठे आरोप लगाता, हत्या के झूठे आरोप लगाना, मुकदमें करना उसका काम था। लुटेरो का पोषण करता था, गांव के गांव जला देता था। धर्म करने वालो को धर्म से विमुख कर देता था, माया करता था, पाप में रत रहता था। पाप का फल उसे मिला, वह 16 महारोग से पिडीत हो गया, रोग ठीक नहीं हुआ। 250 वर्ष तक जिया था। मर कर वह पहली नरक में उत्पन्न हुआ। नरक के दु:ख भोग कर मृगा रानी की कुक्षी में गर्भ में आया। माता के भाव पापी जीव के आने पर बिगडे, उदास रहती थी। गर्भ को नष्ट करना चाहती थी।पर नष्ट नहीं हुआ । आखिर में जन्म हुआ ।दासी को इसे उकेडे पर फैकने का बोला। दासी राजा के पास गई, राजा ने रानी से कहॉ इसे पालो, किसी को पता नहीं चले, तलघर में रखो। रानी रोज पालन करती। भगवान ने कहॉ पूर्व भव में ईकाई राष्ट्रकूट ने घोर पाप किए थे, इस कारण इस जन्म में मृगा पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।अब यह 26 वर्ष की उम्र में मरेगा। मरने के बाद वेताढय पर्वत पर खूंखार सिंह के रूप में जन्म लेगा। वहॉं पाप करके पहली नरक में उत्पन्न होकर पशु बनेगा, पाप करके, दुसरी नरक में जाकर पाप करेगा,फिर पशु बनेगा तीसरी नरक से लगातार ऐसे सातवी नरक में जन्म लेगा। पाप करके इन नरको में जन्म लेने के बाद पक्षी, सिंह, जलचर, तिर्यंच पंचेन्द्रिय 5 स्थावर में लाखो बार जन्म लेगा। बाद में उसी नगर में पुत्र के रूप में जन्म लेकर भगवान की वाणी सुन कर दीक्षा लेगा। 5 समिति 3 गुप्ती का पालन कर संथारा कर पहले देव लोक में देव उत्पन्न होगा। फिर महा विदेह क्षेत्र में धनाढय कुल में जन्म लेगा दीक्षा लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त होगा। भगवान ने कहॉ व्यक्ति पाप को पाप मान कर पाप से घृणा करे तथा मोक्ष का लक्ष्य रखे तो शाश्वत सुख प्राप्त होगा। आपने आज से दस दिनों तक रोज एक विगय का त्याग करने तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने का कहा । पूरे प्रवचन का लेखन श्री सुभाष चंद्र ललवानी ने किया । सभा का संचालन केवल कटकानी ने किया ।

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