भगवान के आभ्यांतर गुणों की भक्ति ही सच्ची भक्ति है-आंचलिक ख़बरें-राजेंद्र राठौर

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भगवान के आभ्यांतर गुणों की भक्ति ही सच्ची भक्ति है । प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्रमुनिजी म.सा.
झाबुआ । आत्मोद्धार वर्षा वास में 13 सितम्बर को धर्मसभा में प्रवर्तक पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी म.सा. ने कहा कि अरिहंत ,सिद्ध भगवान हमारे परम उपकारी हे, उनके प्रति हम कृतज्ञ भाव रखते हे । । वर्तमान में जो महाविदेह क्षेत्र में विराजमान है, उनको भी नमस्कार करते है। उनकी स्तुति करते हे । भगवान महावीर स्वामीजी सिद्धालय में विराजमान है, उनकी भी स्तुति करते है, उनकी भक्ति में तल्लीन होते हे । स्तुति अंहकार विसर्जन, श्रद्धा प्राप्ति के लिये, आत्म गुणों के लिये स्तुति ,गुणगान करते हे । ज्यों ज्यो तीर्थंकर भगवान की स्तुति करते है, वेसे वैसे अपनी आत्मा में भगवान के प्रति प्रतिति बढती हे । आपने आगे कहा कि अनादिकाल से जीव भगवान से विमुख रहा है । आत्मा के कर्म हल्के होते हे, तब भगवान के प्रति सन्मुखता बढती है, अपनी कीर्ति बढती जाती हे । ’ “पापी के मुख से राम नही निकलता है,” वह संसार की बाते करता है । यदि शुद्ध मन से भगवान की स्तुति गुणगान करता है, तो श्रद्धा निर्मल होती हे । अभी तक जीव का गुणनुराग हुआ है या नही । जो भगवान के वैभव देखकर, बाह्य ऋधी देख कर गुणगान करते है, वह द्रव्य स्तुति हे ।’ भगवान के आभ्यंतर गुणों की भक्ति ही सच्ची भक्ति हे ।’ बाह्य ऋधी देख कर की गई भक्ति सही नही हे । व्यक्ति यदि उसका कोई काम नही हुआ, चमत्कार नही हुआ ,तो भक्ति करना छोड देता हे । चमत्कार प्रेमी इनकी महिमा बढा भी देते हे, और घटा भी देते हे । ।
भगवान के प्रति अनुराग रख कर भक्ति करना, कृतज्ञता प्रकट करने के लिये आराध्य की स्तुति करना चाहिए । जो व्यक्ति कृतज्ञता प्रगट करता है, उसमें भक्ति का अनुराग आता हे । आत्म आराधना करने के लिये स्तुति करना । भगवान के गुण मुझमे भी आ जाए, ऐसी श्रद्धापूर्वक स्तुति करना चाहिये । केवल भगवान के सन्मुख प्रगट होने से गुण प्रगट नही होते हैे । इसलिये श्रद्धापूर्वक भक्ति स्तुति हो तो ही गुण प्रगट होते है । व्यक्ति एकाभवतारी तभी बन सकता र्है । स्तुति द्रव्य तथा भाव दो प्रकार से होती हे । तीर्थंकर भगवान का शरीर औदारिक है, श्रेष्ठ पुद्ग गलों से शरीर का निर्माण होता है । औदारिक शरीर सभी का होता है । पर भगवान का शरीर ज्यादा श्रेष्ठ होता हे । कई भगवान के प्रति लट्टू हो जाते है, पागल हो जाते हे । उनकी और आकर्षित होकर भक्ति करते हे । भगवान के दर्शन मात्र से मेरी समस्या हल हो गई, ऐसा मानते हे । लब्धि से प्रेरित होकर भक्ति करते है, यह द्रव्य भक्ति हे । भगवान जहां भी जाते हे, भक्त अनुराग वाले बन जाते है, यह द्रव्य स्तुति है । भगवान के पास देव, राजा, इन्द्र भी आते है, साधारण मनुष्य ऐसा देख कर भगवान के प्रति प्रीति करता है, यह द्रव्य स्तुति हे । भारत में ऐसे कई स्थान है, जहां व्यक्ति रूपया, सोना चढाते हे । ज्यादा चढाने वाला बडा माना जाता है, यह भी द्रव्य स्तुति है । किसी भी प्रकार की कामना से की जाने वाली स्तुति द्रव्य स्तुति हे । आपने आगे कहा कि अशुभ कर्म के उदय के कारण दुःख, और विपत्ति आती हे । मेरे कर्म क्षय हो, ऐसा लक्ष्य रखना चाहिए।, कपडा ज्यादा मैला हो तो, उसे कई बार धोना पडता है, तब साफ होता हे, स्तुति भी कई बार लंबे समय तक करना पडती है ।आज बीज आम का बोयें और कल उग आये, ऐसा नही होता, लंबे समय बाद उगता है । अशुभ कर्म आज क्षय हो जायें यह संभव नही, इसके लिये लंबे समय तक स्तुति,भक्ति करना पडती हे ।
भावस्तुति – आराध्य के आभयांतर गुणों की प्रशंसा करना भाव स्तुति है ।आप अनंत ज्ञान, दर्शन, विकारों, रागद्वेष से रहित हो, ऐसे भावों का चिंतन कर गुणानुराग से स्तुति करना । भगवान का स्वरूप् समझकर उनके बाह्य , आभ्यांतर गुणों की, दोषों के अभाव की, उपयोग सहित प्रमोद भाव से गुणों की प्रशंसा करना । भगवान किसी को कुछ देते नही है, भक्ति करें तो ठीक, नही भी करे तो भी ठीक । जो अपनी प्रसंशा करे वह वितराग ,भगवान नही हो सकते हे । स्तुति श्रद्धापूर्वक करने से आत्मा के दुर्गुण जाते हे । मे आपकी शरण मे आया हूं, आप दयावान हो, सच्चे हो, ऐसी भावना रखने पर दुर्गुण हटते हे । दोषों के प्रति घृणा होना चाहिये ।
मनुष्य भव में ही जीव धर्म आराधना करके मोक्ष में जा सकता हे । ।* पूज्य संयतमुनिजी म.सा.
धर्मसभा में अणुवत्स पुज्य संयतमुनिजी म.सा. ने कहा कि मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है । आज जो जनसंख्या बढ रही हे, वह 29 अंक से ज्यादा कभी भी नही होती है।किसी क्षेत्र में कभी कम तो कभी ज्यादा हो सकती हे । ज्ञानी की दृष्टि ओर संसारी की दृष्टि में अंतर हे । ज्ञानी कहते हे मनुष्य बनने वाले थोडे, अन्य जीव ज्यादा है । ’ मनुष्य भव पााकर ही जीव आराधना कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।’ देव भी मनुष्य भव पाना चाहते हे । अनाथी मुनिजी को श्रेणिक राजा महलो मे बुलाकर नाथ बन कर भोग भोगने का कहते हे । संसारी भोग दृष्टि से मनुष्य जन्म दुर्लभ है कहते हे ,ज्ञानी धर्म दृष्टि से कहते है । मनुष्य भव मिल गया है, पर धीमी गति से मोक्ष मार्ग पर चल रहे हे । अपनी शक्ति को पहचानना हे । इस भव में जो आराधना कर ली वह अन्य भव , अन्य गति में नही कर सकते हे । अभी तेजी से नही करी तो कब करेगें?, भरोसा नही है । देवलोक से तिर्यंच, एकेन्द्रिय, वनस्पति में भी जा सकते है । काम ऐसा पक्का करों कि ऐसी गति मे जाने का रास्ता ही बंद हो जाए । पाप से बचना मुश्किल है, पग पग पर पाप लगते हे । संयम मार्ग पर चलने का प्रयास जरूरी है । श्रावक और साधु की दया मे अंतर है ।साधु की दया 20 विश्वा, श्रावक की सवा विश्वा । आज तत्व जानने वाले विरले है । संयम की भावना लाना है । वह दिन मेरा धन्य होगा जब में आगार छोड कर अणगार बन संयम ग्रहण करूंगा । परन्तु अभी तो 12 व्रत ग्रहण करना आवश्यक हे। ।व्रत गहण करने से धर्म कार्य में रूचि बढती है । व्रत ग्रहण करने के बाद श्रद्धा पक्की होने पर धर्म की बढोत्तरी होती हे । धर्म कार्य में धन खर्च करने से धन बढता है, दान कुंए की आंव जैसा होता है, पानी आता रहता है ,दान देने से धन की भी आवक होती रहती हे । अपरिग्रह रखने पर शांति आती हे । इच्छा रहेगी तो अशांति बढ़ेगी ही, इच्छा नही होगी तो शांति रहेगी । परिग्रह की मर्यादा करने पर शांति रहती हेै ।
तपस्या के दौर मे आज कु, सोनिका बरबेटा ने 28, श्रीमती सीमा व्होरा ने 27 श्रीमती सीमा गांधी ने 21 उपवास के प्रत्याख्यान ग्रहण किये । संघ मे वर्षीतप, धर्मचक्र,निरंतर एकासन की तपस्या चल रही हैं। तेला तथा आयम्बिल तप की लडी सतत गतिमान है ।अभी तक कुल 12 मासक्षमण पूर्ण हो चुके हे ।

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