देश के कुछ विद्वान एवं सामाजिक चिंतक यह विचार रखते हैं कि देश लगातार आंतरिक कलह की तरफ बढ़ रहा है। इसके कारण के तौर पर कुछ विद्वान व चिंतक कट्टर पुराणपंथीयों को इसका दोषी ठहराते हैं। उन्हें, जो कि देश में सांप्रदायिकता का जहर फैलाकर रामराज्य लाना चाहते हैं। और कुछ चिंतक उन लोगों को इसका दोषी ठहराते हैं जो शोषित, पीड़ित जातियों की गुटबंदी करके रामराज्य को रोकना चाहते हैं तथा संवैधानिक समता, स्वतंत्रता, बंधुता व न्याय को बचाए रखना चाहते हैं। कुछ ऐसे चिंतक भी है जो इन दोनों धाराओं को ही संभावित आंतरिक कलह का दोषी मानते हैं। यह निश्चित है कि आंतरिक कलह न देश के लिए अच्छा है और न ही देशवासियों के लिए अच्छा है। इसलिए इस पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए।
वैसे तो इस गंभीर विषय पर विस्तार से लिखा जाना चाहिए, जिसमें की सभी पहलुओं का समावेश हो जाए। लेकिन विस्तार से लिखे जाने में अनेक पाठकों का धीरज टूट जाता है और वह पूरा पढ़ते नहीं है और अधूरा पढ़कर ही गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं। वहीं दूसरी तरफ छोटे लेख में सभी पहलुओं का संपूर्ण विश्लेषण नहीं होने के कारण पाठक गलत निष्कर्ष धारण कर देते हैं। मैं छोटे लेख का प्रयास कर रहा हूं और मेरा आग्रह यह है कि केवल इस लेख से मेरे विषय में कोई निश्चित राय नहीं बनाई जाए और मेरे विचार संस्था के विचार होना जरूरी नहीं है।
मेरे विचार से यदि विस्तार को छोटा रखना है तो उन लोगों के विचार पर चर्चा कर लेना बेहतर होगा जो रामराज्य के पक्षकारों व रामराज्य के विरोधियों, दोनों को दोषी ठहराते हैं। क्योंकि इसमें कमोबेश अन्य दोनों प्रकार के विचारकों के पक्ष का समावेश हो जाता है।
हाथी के दांतो की तरह श्रीराम जी के दो चरित्र हैं। अपने गूढ़ चरित्र में ‘श्रीराम’ वर्ण व्यवस्था का स्वयं पालन करने वाले और समाज को इसे स्वीकारने व पालन कराने वाला आदर्श पुरुष हैं। यानी वर्णव्यवस्था का पालन करने वाले मनुष्यों में मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। जबकि दूसरे चरित्र में ‘श्रीराम’ को एक समतावादी के तौर पर महिमामंडित किया गया है। देश की बहुसंख्यक भोली जनता में से पढ़ लिखकर जागृत हुए कुछ लोग ‘श्रीराम जी’ के गूढ़ चरित्र को उजागर करके अपने समाज को भावी दमन से बचाना चाहते हैं। जबकि द्विज समाज के कुछ पुराण पंथी लोग, मुख्यतः पुजारी, पुरोहित व मठाधिकारी, देश की बहुसंख्यक भोली जनता को श्रीराम व रामराज्य के नाम पर गुमराह करके अपने कम हो गए धार्मिक-सामाजिक प्रभुत्व को दोबारा कायम करना चाहते हैं। वर्ण व्यवस्था व जातियों को बरकरार रखे जाने की चाहत को पूरा करने में केवल श्रीराम का नाम व अन्य धार्मिक आडंबर इन्हें नाकाफी लगते हैं। इसलिए द्विज वर्ग का यह टोला ‘हिंदू खतरे में’ का नारा देकर सांप्रदायिकता का जहर भी समाज में खोलता है।
भारतीय संविधान वर्ण व्यवस्था, मनुवाद, जय श्रीराम आदि विषमतावादी संकल्पनाओं व विचारधाराओं को नष्ट करने वाला वैधानिक दस्तावेज है। यदि देश के लिए भारतीय संविधान बेहतर व आत्मोत्सर्ग योग्य है, तो जय श्रीराम को निश्चित तौर पर प्रति क्रांतिकारी व देश विरोधी स्वीकारना पड़ेगा। इस प्रकार यही कहना पड़ता है कि सांप्रदायिकता का जहर फैलाकर रामराज्य की स्थापना की चाह रखने वाले ही संभावित आंतरिक कलह के असली दोषी होंगे। लेकिन समवर्ती कारणों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
आंतरिक कलह के खतरे का जिम्मेदार कौन?-आँचलिक ख़बरें-अमृतलाल सरजीत सिंह

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