भगतसिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की-आंचलिक ख़बरें -मनीष गर्ग 

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#व्यक्तित्व #गीतकार #सिनेमा
गीतकार शैलेंद्र.

 

ये शंकर शैलेन्द्र की लिखी उस कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं जिसमें उन्होंने नए-नए आज़ाद हुए भारत की तस्वीर खींची थी. वही शैलेन्द्र जो आजादी की लड़ाई के वक़्त मजदूरों-कामगारों को जगाने के लिए ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर’ और ‘क्रान्ति के लिए उठे कदम’ जैसे गीत लिखा करते थे.

30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेन्द्र का असल नाम शंकरदास केसरीलाल था. उन्होंने मथुरा में वेल्डर का काम सीखा और बाद में बंबई के माटुंगा स्थित रेलवे वर्कशॉप में नौकरी की. जीवन की शुरुआत ही में सामाजिक-भौगोलिक रूप से इतने विविधतापूर्ण स्थानों में रहने के बाद उनकी भाषा में एक ऐसी लोच पैदा हो गयी जिसमें लोक-संस्कृति की गहरी समझ महकती है. उनके भाषाई कौशल के बारे में एक किस्सा कई किताबों में पढ़ने को मिलता है. एक बार राज कपूर उन्हें लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास के पास गए. वहां एक स्क्रिप्ट पढ़कर सुनाई जानी थी. वहां पहुंचे तो ख्वाजा अहमद अब्बास ने शैलेन्द्र की उपस्थिति तक को नोटिस नहीं किया. ढाई घंटे तक स्क्रिप्ट सुनाई गयी जिसके बाद राजकपूर ने शैलेन्द्र से पूछा, “कुछ समझ में आया कविराज?” राज कपूर उन्हें इसी नाम से पुकारते थे. शैलेन्द्र ने जवाब दिया, “गर्दिश में था, पर आसमान का तारा था, आवारा था.” आश्चर्यचकित होकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने कमरे में आये उस अजनबी को पहली बार गौर से देखा जिसने उनकी ढाई घंटे की स्क्रिप्ट को आधी लाइन में बाँध दिया था.

इन तीनों ने उसके बाद के वर्षों में शंकर-जयकिशन के साथ मिलकर हिन्दुस्तान के सिनेमा का सुनहरा दौर लिखा.

शंकर शैलेन्द्र के लिखे गानों की रेन्ज बहुत बड़ी है. उन्होंने सही मायनों में भारतीय फिल्मों के संगीत को एक आधुनिक काव्य-बोध से लैस किया. उनके ज्यादातर गीतों को शंकर-जयकिशन के अलावा एस. डी. बर्मन और सलिल चौधरी ने संगीत दिया और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ी विरासत तैयार की. उनके आने के पहले उर्दू और हिन्दी की क्लासिकल छंद की शैली में गीत लिखे और शास्त्रीय रंग में ढाले जाते थे. वे ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल’ से लेकर ‘मेरा जूता है जापानी’ और ‘तू प्यारा का सागर है’ से लेकर ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’ जैसे बोलों में आसानी से चहलकदमी कर लेते थे. फिल्म ‘आवारा’ से लेकर ‘तीसरी कसम’ जैसी बड़ी फिल्मों के लिए उन्होंने करीब आठ सौ गीत लिखे. ‘तीसरी कसम’ प्रोड्यूस करने में उनके जीवन की सारी कमाई चली गयी जिसके कारण उपजी निराशा ने उनके प्राण तक ले लिए. ‘तीसरी कसम’ में उन्हें, राज कपूर, फणीश्वर नाथ रेणु और वहीदा रहमान को लेकर अनगिनत किस्से मिलते हैं.

फिल्मों ने इतने सारे सुपरहिट गाने रचने वाले शंकर शैलेन्द्र को देश भर में मशहूर बनाया लेकिन भीतर से वे जनता के पक्ष में खड़े एक विद्रोही कवि थे जिसकी गवाही उनकी अनेक रचनाओं में मिलती है. मिसाल के तौर पर 1953 में इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ की ताजपोशी हुई थी. सदी के भव्यतम समारोहों में गिने जाने वाले इस आयोजन में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी गए थे. इस प्रकरण पर शंकर शैलेन्द्र की लिखी कविता यूं शुरू होती है –

मुझको भी इंग्लैंड ले चलो पण्डित जी महराज
देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज!

आगे इस कविता में गहरे राजनैतिक व्यंग्य समाहित हैं और भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति का बेबाक खाका खींचा गया है. आखीर में वे नेहरू जी से कहते हैं –

रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाए
चारों ओर अकाल जिऊँ मैं कागद-पत्तर खाय?
मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नई स्फूर्ति
बलिहारी वह दॄश्य कल्पना अधर-अधर लहराए–
साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज!

मुझे लगता रहा है कि इस कविता की रचना के दस साल बाद रानी एलिजाबेथ के भारत दौरे के मौके पर लिखी गयी बाबा नागार्जुन की कविता ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की’ के पीछे शंकर शैलेन्द्र की बनाई हुई जमीन रही थी.

मैं फिर से उनके फ़िल्मी गानों की तरफ लौटता हूँ और उनके एक अपेक्षाकृत कम सुने गए गाने के बोल आपके सम्मुख रखता हूँ:

सूरज ज़रा
आ पास आ,
आज सपनों की रोटी पकायेंगे हम
ऐ आसमां
तू बड़ा मेहरबां,
आज तुझको भी दावत खिलायेंगे हम

चूल्हा है ठंडा बड़ा
और पेट में आग है
गरमा-गरम रोटियाँ,
कितना हसीं ख्वाब है
आलू टमाटर का साग,
इमली की चटनी बने
रोटी करारी सिके,
घी उस पे असली लगे
बैठे कहीं छाँव में,
आ आज पिकनिक सही
ऐसी ही दिन की सदा,
हमको तमन्ना रही

फिल्म ‘उजाला’ के लिए शंकर-जयकिशन के संगीतबद्ध किये गए और मन्ना डे के गाये इस गाने को शम्मी कपूर पर फिल्माया गया है. 1959 के साल में ऐसे बोल लिख लेने का साहस कितने गीतकारों के पास था मुझे मालूम नहीं. उनके लिखे एक-एक गीत को सुनकर मन-आत्मा में छवियों की अनूठी रंगबिरंगी लहरें हिलकोरें खाने लगती हैं. उनके हर शब्द में गहरा मीठा नोस्टाल्जिया और आमजन के लिए निखालिस मोहब्बत पोशीदा रहते हैं. हर अच्छी कविता ऐसी ही होती हैं ।

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