भगवान महावीर स्वामी जी के सुख के आगे तीनों लोक के सुख शून्य थे-आँचलिक ख़बरें-राजेंद्र राठौर

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-प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्र मुनिजी म.सा.
आत्मो्द्धार वर्षावास में दिनांक 28 सितंबर को धर्मसभा को संबोधित करते हुए प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्र मुनि जी म.सा. ने कहॉ कि भगवान महावीर स्वामीजी ने केवल ज्ञान, दर्शन के बाद शेष चार कर्मो का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया। भगवान ने सर्वश्रेष्ठ, उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया। भगवान ने ऐसा धर्म बताया जो चार गति के जीवो को संसार से पार करा सके । भगवान ने अणुत्तर धर्म बताया जो श्रेष्ठ हे। भगवान का ध्यान चंद्रमा के समान शुक्ल था। जिस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र में चन्द्रमा सौम्य, शीतल, अधिक प्रकाशमान है, भगवान का शुक्ल् ध्या‍न भी श्वेत, निर्मल, निर्दोष ध्यान था। भगवान का ध्यान दोष रहित था। शुक्ल ध्‍यान आता हे, तब मोहनीय कर्म का तेजी से सफाया चालू हो जाता है। आठवे से चोदहवे गुण स्थान तक शुक्ल ध्यान आता है। मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियॉं क्षय करते हुए शुक्ल ध्यान उत्तरोत्तर निर्मल होता जाता है। कर्म हर क्षण क्षय होते जाते है। शुक्ल ध्यान से सभी प्रकार की बुराईयॉ दूर हो जाती है। शुक्‍ल ध्यान की धारा में चलते-चलते भगवान ने कर्मो को क्षय किया है। शुक्ल ध्यान में आरूढ होने पर कर्म टिकते नहीं है। भगवान 4 कर्मो के शेष रहने तक मोक्ष नहीं गए, बाद में 4 अघाति कर्म क्षय कर मोक्ष गति को प्राप्त हुए। आपने आगे कहॉ कि नाम कर्म की प्रकृति आखरी तक रहती हे, इसकी 103 प्रकृतियॉं है, उनमे श्रेष्ठ तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति है। भगवान उपदेश देकर नाम कर्म की प्रकृति को क्षय करते है। भगवान की वाणी सुनकर भवी जीव उसका अनुशरण करते है। जिस प्रकार वृक्षो में शाल्मली वृक्ष प्रसिद्ध है, जिसके उपर भवनपति देवरति की अनुभूति करते है। भगवान भी वैसे ही लोक में प्रसिद्ध थे, और शांति का अनुभव करते थे ।
सभी वनो में नंदन वन श्रेष्ठ है, भगवान भी ज्ञान, चारित्र में श्रेष्ठ थे। मनुष्य की ऊंचाई से वह वृक्ष बड़ा होता है । भगवान भी उस समय महान थे। भगवान की ऊंचाई सात हाथ की थी। भवनपति जाति के ,स्वर्ण जाति के, देव वन में आनंद करते थे, देवो का क्रीडा स्थान था। देव जिस स्थान में रहते है, भौतिक सुख का अनुभव करते है, भगवान का सुख अनंत था, आत्मिय सुख था, जो आत्मा में स्थिर रहता है। भगवान के सुख के आगे तीनो लोक के सुख जीरो थे। बाहरी सुख में आकुलता रहती है, भगवान का आत्मिक सुख आकुलता रहित था। आपने आगे बताया कि भगवान ने 30 वर्ष तक केवली अवस्था में विचरण किया, निर्दोष स्थान चाहे सुनसान हो, वहा भी रूकते थे। उस स्थान से घृणा नहीं करते थे। कैसा भी स्थान हो चेहरे पर जरा भी सिकन नहीं रहता था। राग द्वेष से रहित वितराग कैसी भी परिस्थिति हो, आकुल, व्याकुल नहीं होते हे। भगवान ज्ञान, चारित्र में रमण करने वाले थे।
गृहवास में दुःख, साधुवास में शांति है ।
-पुज्य संयत मुनि जी म.सा.
धर्मसभा में अणुवत्स पुज्य संयत मुनिजी म.सा. ने कहॉ कि भगवान ने संसार में चार गति बताई है, चारो गति के जीव लडाकु है। देवता में भी सुर असुर लडते है, जबकि उनको खुब रिद्धि-सिद्धि, वैभव प्राप्त है। लडाई का मुख्यु कारण ”परिग्रह” है। आगम में आता है कि दो देवलोक के इंद्र लडे तो तीसरे देवलोक के इंद्र समझोता कराने आते हे । नरक में भी लडाई होती है। तिर्यंच भी आपस में लडते है, सॉंप-नेवले, कुत्ते -कुत्ते-, सांड-सांड आदि लडते है। मनुष्य तो हमेशा अनादि काल से लडते ही आ रहे है। घर में भी लडाई चलती रहती है। भगवान ने संसार छोड कर जाने का रास्ता बताया, कि शांति चाहिए तो संसार छोड़ो। सिद्ध भगवान अनंत जीवो के साथ एक साथ रहते है, वे लडाई झगडे नहीं करते है। “गृहहवास में दु:ख है, साधुवास में शांति है ।”जहॉं परिग्रह है, वहां क्लेश जुडा हुआ है। परिग्रह नहीं हो तो झगडे नहीं होते है। परिग्रह के पीछे कोरव, पांडव में युद्ध हुआ । झगड़े के लिए कोई निमित्त चाहिए । दोनो पक्ष गरम तो झगड़े बढ़ते हे। एक पक्ष नरम तो झगड़ा थोड़ी देर तक, यदि दोनो पक्ष नरम तो झगड़ा हमेशा के लिए खत्म हो जाता हे । झगड़े के कारण तो कभी कभी पतिपत्नी में तलाक तक की नौबत आ जाती है । गृहवास झगड़े का घर हे । आपने आगे बताया कि छः लेश्या में अशुभ लेश्या आने पर साधु में लड़ाई हो सकती हे, पर वह थोड़ी देर की होती है । सामान्य जीव की लड़ाई लंबे समय, आजीवन तक भी रहती हे । साधु लड़ना नही सिखाते हे, वे तो अपने धर्म ध्यान , क्रियाओं में लगे रहते हे । गृह वास में क्लेश चलते रहते है । “साधुपना शांति का ठिकाना है ।”शांति के लिए प्रयास करना चाहिए । आपने आचार्य धर्मदास जी म.सा.के बारे में बताया कि आचार्यजी को बचपन ही वैराग्य आया, जहा अशांति हे, वहा नही रहना ।अकेला रहना अर्थात अपने अंतर में विचरण करना अच्छा है।आपने बचपन से ही 11वर्ष की उम्र से ही आगम का अध्ययन किया,अन्य ग्रंथ भी पढ़े ,जिसके कारण श्रद्धा बढती गई। परमार्थ से परिचय करने पर श्रद्धा बढती है, अनुप्रेक्षा भी बढती है। 12 भावना का चिंतन करते थे, जो वैराग्य बढाती है। आगम में लिखी साधु चर्या और तत्कालीन साधुओं की चर्या में अन्तर देखा ,वे सही नहीं चल रहे थे । मुझे तो निर्मल संयम पर चलना है। अभी संयम नही लेना है । उनके मित्रों को भी संसार से तिरने का उपदेश दिया, जो बाद में उनके साथ हो गये, ऐसी उनकी पुण्यवानी थी।
धर्मसभा में आज उन्हेंल, रंभापुर, मेघनगर, रायपुरिया, कल्याणपुरा, रतलाम, थांदला एवं अन्य स्था‍नों से दर्शनार्थी दर्शन हेतु पधारे। तपस्या के दौर में कु. प्रिंयल घोड़ावत द्वारा वर्षावास प्रारम्भ से आज तक कुल 77 एकासना किए, आगे भी जारी है। संघ में 60 से अधिक आराधक सिद्ध भक्ति तप कर रहे है। 10 तपस्वी वर्षीतप कर रहे है। वर्षावास प्रारंभ से ही तेला तथा आयंम्बिल तप की लडी गति मान है। प्रवचन का लेखन एवं सभा का संचालन सुभाष चन्द्र ललवानी द्वारा किया गया।

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