कर्मयोगी पृकृति पुत्र त्यागी जी
जिला कटनी – इस भारत की पवित्र भूमि को बारंबार प्रमाण।शंकराचार्य जयंती
भारत देवो की भूमि थी है और रहेगी बीज ही आ गया न और जहा जैसा बीज आ गया वहा वैसी ही संस्कृति रहेगी ही कोई परिवर्तन हो तो बङी बात नही ।
इस परम पवित्र धरती माता की गोद में न जाने कितने संत, तपस्वी जनो ने जन्म पाकर स्वयं को धन्य समझा इस धरती माता पर विराजमान कण कण ईश्वर की ही कृपा है इसके अलावा कुछ भी नही है जिसने यह बात समझ ली उसने जीवन समझ लिया जिसने जीवन समझ लिया उसके जीवन की दिशा बदल गई और वह यही चाह रखने लगा कि सबको वह दृश्य हो लेकिन कैसे ।
धार्मिक दिखना और धार्मिक होना भिन्न है
जब धार्मिक दिखने की होङ लगती है तो वास्तविकता से बहुत दूर हो जाते है सभी चूंकि वहा होना नही दिखना आवश्यक हो गया और जब दिखना आवश्यक हो गया तो बाह्य रूप में परिवर्तन की जिज्ञासा होगी जब बाह्य परिवर्तन चाहेगे तो अंदर को हम छोङ ही चुके होगे और जब अंदर से जुङे ही नही तो भाव ,संवेदना, ईश्वर ,भक्ति,सरलता सब कुछ बेमानी सा लगता है और यह सत्य प्रतीत होता है कि हम ही सर्वोपरि है हम ही करता है जो सही नहीं है
वृक्ष पत्तो और फल पाने क्या प्रयास करता है
वृक्ष जिससे सम्पूर्ण जङ चेतन सब प्रभावित है वह स्वयं करता क्या हैं या फिर यह कहे कि मानव सब कुछ करने की इच्छा रखते हुए भी कुछ क्यो नही कर पाता चूंकि कोई अंकुश है उस पर जो उसे आगे नही बढने देता या उसके द्वारा उस कार्य को अधिक गति दे देता है हमने जब वृक्ष को उदाहरण के रूप में देखा तो समझ आया कि यह संपूर्ण सृष्टि का अद्भुत उदाहरण है यह संपूर्ण सृष्टि भी ऐसे ही चल रही है जिसमें सिर्फ वही नियंता है जिसने निर्माण किया।
नेत्रहीन भी तो देखना चाहता है फिर क्यो नही देख पाता
जब सब संभव है तो भी असंभव के दर्शन क्यो करने पङते है जब सब कुछ आप कर सकते है तो दौङ क्यो प्राप्त कर विश्राम क्यो नही सिर्फ इसीलिए कि पृकृति का हर कण किसी के मार्गदर्शन पर चल रहा है स्वयंमेव कुछ भी नहीं है ऐसा नही कि बात लोगो को बताइ नही गयी जिसमें कर्म फल भी जोङा गया विचार करे जब सृष्टि मे पहला जन्म हुआ तो उसे किस कर्म का फल मिला होगा मतलब यह तय हुआ उसका जन्म मृत्यु आचार विचार सब कुछ तय करके भेजा गया है।
भगवान् हर जगह विराजमान हैं तो चोरियां,अपहरण,बलात्कार क्यो?
सवाल किया जा सकता है और उत्तम सवाल हो सकता है सबके लिए जब भगवान ही करते है तो सिर्फ अच्छा ही करे बुरा न करें लेकिन संसार चलाने की सायद यही कला परमात्मा के अलावा किसी के बस की बात नही जैसे ही हम स्वयं को सर्वोपरि समझने की भूल करते है वह हमसे कोई त्रुटि करवा देता है जैसे ही हमे लगता है हम कुछ भी नहीं है वह हमें किसी बङे प्रयोजन के लिए उपयोग कर हमे भी उपयोगी सिद्ध कर देता है इसे माया भी कह देते है विद्वान जन ।
प्रेम, नफ़रत, शब्द ,अर्थ, राग,द्वेष,अहंकार,व्यभिचार सब कुछ उस परम सत्ता की कृपा है
छोटी सी आयु मे ईश्वर की प्राप्ति तो शतायु होकर भी भोग विलासिता मे लिप्त यह क्या संदेश नही छोटे छोटे मार्ग से वह संदेश भी देता है और आपके अंदर स्वयं को समाहित कर कार्य कर आगे का कार्य चलता रहता है कुछ भी रूकता नहीं है
जल को प्रवाहित कौन कर रहा है अग्नि मे तेज कौन दे रहा है जल को फल अनाज वृक्ष औषधि में परिवर्तित कौन कर रहा है जटिल समस्या हो जायेगी जब इन गूढ विषय पर चिन्तन मंथन होगा मानते हुए भी नही मान पाते समझते हुए भी नही समझा पाते यही उस परम सत्ता की जादूगरी भी है कृपा भी है यहा तक कि जो शब्द आपको लगता है कि हमारे या आपके है वह भी इस ब्रह्माण्ड की ही देन है।
कोई किसी रूप मे देखे कोई फर्क नहीं पड़ता सूरज ,चंद्रमा,पृथ्वी,आकाश,पवन,जल ,अग्नि सब उसके ही अंकुश मे है यह भी कहा जा सकता है कि सबको मिलाकर ही वह है सबको बनाने वाला भी वह है ।
तब हम कर्म क्यो करें यह सवाल जन्मेगा
सबके मन मे एक सवाल जन्म लेगा कि जब सब कुछ स्वयं हो रहा है तो हम क्या करें बिलकुल आप हम कुछ न करें फिर भी वह हमसे आपसे वह करवा ही लेगे जो करवाना चाहते हैं इसमें हमारे स्वीकारने या न स्वीकारने से कुछ नहीं होगा बिलकुल उसी तरह से जैसे हवा,पानी,तूफान की चाल को आप देख तो सकते है किन्तु बदल नही सकते और आपको लगता है कि आप कुछ कर सकते है तो सिर्फ इतना करके दिखा दीजिये कि कुछ भी न करे और यदि भृम है कि हम सब कुछ सकते हैं तो स्वयं को ऊपर वाले कि सच्ची संतान बना दीजिये।
आप हम निमित्त मात्र है ईश्वर जिसे श्रेय देना चाहते हैं उसे ही वह मिलता है कष्ट आनंद अपना पराया कुछ है ही वास्तव में यह माया का अंग है जो सिर्फ हमारा भृम ही है इसके अलावा कुछ भी नही।
आपसे वह जो करवाना चाहते है करते हुए परम सत्ता पर आश्रित हो यही परिपूर्ण हैं यही सत्य है।
आदि शंकराचार्य जी की जयंती पर कर्मयोगी पृकृति पुत्र त्यागी जी के विचार
राष्ट्र रक्षा विश्व कल्याण हेतु संकल्पित ।