वरिष्ठ हिंदूवादी नेता बाबूभाई भवानजी ने कबूतरों की जान बचाने के लिए दिए अहम सुझाव
सैय्यद जाहिद अली रियासत | मुंबई
- वरिष्ठ हिंदूवादी नेता बाबूभाई भवानजी ने कबूतरों की जान बचाने के लिए दिए अहम सुझाव
- कबूतर खाना बंद होने से उपजा संकट
- बाबूभाई भवानजी का पक्ष: भारतीय संस्कृति में “जीव मात्र” की रक्षा सर्वोपरि
- समाधान के लिए सुझाए व्यावहारिक और सकारात्मक कदम
- दादर कबूतर खाना: एक ऐतिहासिक विरासत
- प्रशासन और सरकार से अपील
- निष्कर्ष: कबूतरों के साथ मानवता का रिश्ता बचाना होगा
मुंबई में कबूतरों के लिए भोजन-पानी की सबसे पुरानी व्यवस्था मानी जाने वाली दादर कबूतर खाना को लेकर हाल ही में हाईकोर्ट के निर्देश पर मुंबई महानगरपालिका (BMC) द्वारा अचानक प्रतिबंध लगाए जाने से एक बड़े जीव समुदाय के अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है। हजारों की संख्या में उड़ते-फिरते कबूतर, जो वर्षों से इस व्यवस्था पर निर्भर थे, अब भूख-प्यास से तड़पने की कगार पर पहुंच गए हैं। यह फैसला एक प्रशासनिक निर्णय भले हो, लेकिन इसके दुष्परिणाम सीधे-सीधे प्राकृतिक जीवन और मानवीय करुणा से जुड़े हैं।
कबूतर खाना बंद होने से उपजा संकट
दादर पश्चिम में स्थित कबूतर खाना पिछले 135 वर्षों से न केवल पक्षियों के लिए भोजन-पानी का स्रोत था, बल्कि मुंबई की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का भी प्रतीक था। लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद इस कबूतर खाने को बंद कर देने से अचानक लाखों कबूतर भोजन और पानी के अभाव में इधर-उधर भटकते नज़र आ रहे हैं।
जीवदया प्रेमी, सनातनी संगठन और स्थानीय नागरिकों में इस फैसले के खिलाफ तीव्र असंतोष देखने को मिल रहा है। पशु-पक्षियों के प्रति भारत की परंपरागत दयालु दृष्टि और धार्मिक भावना को आघात पहुंचा है।
बाबूभाई भवानजी का पक्ष: भारतीय संस्कृति में “जीव मात्र” की रक्षा सर्वोपरि
भाजपा के वरिष्ठ हिंदूवादी नेता एवं मुंबई के पूर्व उपमहापौर बाबूभाई भवानजी ने इस पूरे मामले पर बेहद संवेदनशील और संवेदनशीलता से भरा बयान दिया। उन्होंने कहा: “भारत की संस्कृति सिखाती है – चिड़िया को दाना, कुत्ते को रोटी, जानवरों को चारा देना… यह न केवल हमारी धार्मिक भावना है बल्कि इंसानियत का धर्म भी है। इस परंपरा को किसी भी हाल में टूटने नहीं देना चाहिए।”
भवानजी ने यह भी स्पष्ट किया कि वे कोर्ट के आदेश का सम्मान करते हैं, लेकिन इस निर्णय के बाद कबूतरों की जान लेना या उन्हें अनदेखा करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। उन्होंने इसे मूलभूत संवैधानिक अधिकारों और संवेदनशीलता के विरुद्ध बताया।
समाधान के लिए सुझाए व्यावहारिक और सकारात्मक कदम
भवानजी ने कबूतरों को बचाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए, जो प्रशासन और समाज दोनों के लिए संतुलन का रास्ता दिखाते हैं:
- नए चबूतरे बनाए जाएं – व्यवस्थित प्लानिंग से
उन्होंने प्रस्ताव दिया कि मुंबई के चारों ओर जैसे कोलाबा, नरीमन पॉइंट, गिरगांव, मलबार हिल, हाजी अली, वर्ली, महिम, बांद्रा, जुहू, अंधेरी से दहिसर, वडाला से वाशी तक की खुली और कम भीड़भाड़ वाली जगहों पर नए कबूतर चबूतरे बनाए जाएं। इससे कबूतरों के लिए सुरक्षित वातावरण बनेगा और धार्मिक परंपराएं भी जीवित रहेंगी।
- अस्थायी समाधान – निर्धारित समय पर दाना-पानी की अनुमति
उन्होंने यह व्यावहारिक सुझाव भी दिया कि जब तक नए चबूतरे नहीं बनते, दोपहर 2 बजे से शाम 4:30 बजे तक पुराने चबूतरों पर दाना-पानी की अनुमति दी जाए। इससे न तो स्थानीय नागरिकों को असुविधा होगी और न ही पक्षियों को कष्ट।
- मंदिरों और धर्मस्थलों की छतों का उपयोग
भवानजी ने यह भी सुझाया कि सभी मंदिरों, धर्मस्थलों और भवनों की छतों पर दाना-पानी की व्यवस्था की जाए, ताकि भूखे-प्यासे कबूतरों की जान बचाई जा सके।
दादर कबूतर खाना: एक ऐतिहासिक विरासत
भवानजी ने यह भी याद दिलाया कि दादर कबूतर खाना केवल पक्षियों के लिए भोजन व्यवस्था का केंद्र नहीं था, बल्कि ब्रिटिश काल से चली आ रही 135 साल पुरानी हेरिटेज धरोहर है। इसे सिर्फ एक स्थान या संरचना के रूप में नहीं, बल्कि संस्कृति और करुणा के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए।
प्रशासन और सरकार से अपील
भवानजी ने महाराष्ट्र सरकार और BMC प्रशासन से इस मुद्दे को गंभीरता से लेने की अपील की। उन्होंने आग्रह किया कि कबूतरों के संरक्षण और जीवदया के प्रति भारतीय संस्कृति की भावना को समझते हुए संतुलित और व्यवहारिक नीति बनाई जाए।
निष्कर्ष: कबूतरों के साथ मानवता का रिश्ता बचाना होगा
मुंबई जैसे महानगर में यदि जीव मात्र के अस्तित्व की चिंता करने वाले कुछ लोग हैं, तो वह इस देश की मानवीय और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हैं। कबूतरों को केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि जीव मात्र के जीवन के अधिकार के रूप में देखने की आवश्यकता है।
बाबूभाई भवानजी की पहल न केवल कबूतरों की रक्षा के लिए एक कदम है, बल्कि यह संवेदनशील प्रशासनिक नीति की भी मांग है – जहां विकास और करुणा दोनों साथ चलें।
यह केवल कबूतरों की नहीं, हमारी इंसानियत की भी परीक्षा है।
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