महाकुंभ 2025 के भव्य आयोजन के बाद अब साधु-संतों और अखाड़ों का काशी की ओर प्रस्थान शुरू हो गया है। हर 12 वर्षों में होने वाले इस महापर्व के पश्चात, परंपरागत रूप से विभिन्न अखाड़े और धर्माचार्य काशी में प्रवास करते हैं। काशी में स्थित विभिन्न घाटों पर वे महाशिवरात्रि तक भगवान शिव की उपासना में लीन रहते हैं और पूरे भक्तिभाव से इस प्रवास को आध्यात्मिक रूप देते हैं।
महाकुंभ का समापन होते ही 7 फरवरी को शुभ मुहूर्त में प्रयागराज से संतों और अखाड़ों के जत्थे वाराणसी के लिए प्रस्थान करेंगे। यह यात्रा केवल एक स्थानांतरण नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक परंपरा का निर्वहन है। काशी के विभिन्न घाटों—जैसे निरंजनी घाट, महानिरवानी घाट, जूना घाट—पर उनका प्रवास रहेगा। यह स्थान साधु-संतों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों और शिव आराधना का प्रमुख केंद्र बन जाएगा।
प्राचीन परंपराओं के अनुसार, संत और अखाड़े महाशिवरात्रि तक काशी में प्रवास करेंगे। इस दौरान वे नियमित रूप से बाबा विश्वनाथ के दर्शन करेंगे और गंगा तट पर अनुष्ठान करेंगे। इसके अलावा, भव्य पेशवाई और शोभायात्रा का आयोजन भी किया जाएगा, जिसमें संतों का पारंपरिक अंदाज देखने को मिलेगा। राजशाही परंपरा के अनुरूप यह शोभायात्रा शहर में आकर्षण का केंद्र बनती है।
काशी केवल एक नगर नहीं, बल्कि हिंदू धर्म का आध्यात्मिक केंद्र भी है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान विश्वनाथ का यह स्थान साधु-संतों के लिए विशेष महत्व रखता है। महाशिवरात्रि तक यहां अखाड़ों के संत शिव की आराधना में लीन रहेंगे। इस दौरान उनके द्वारा विशेष अनुष्ठान, प्रवचन और गंगा स्नान किया जाएगा।
काशी में महाशिवरात्रि के बाद संत भगवान विश्वनाथ के साथ होली खेलते हैं, जो एक अलौकिक दृश्य होता है। भक्तों के लिए यह एक अद्भुत अनुभव होता है जब संत-महात्मा शिव की भक्ति में रंग जाते हैं। होली के बाद वे अपने-अपने मठों और आश्रमों की ओर प्रस्थान करते हैं, लेकिन यह प्रवास काशी की भव्यता में एक विशेष अध्याय जोड़ता है।
महाकुंभ के बाद काशी में संतों और अखाड़ों का यह प्रवास सनातन परंपरा और अध्यात्म का जीवंत प्रमाण है। यह यात्रा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपराओं को भी दर्शाती है। भक्तों के लिए यह एक अवसर है कि वे संतों के सान्निध्य में रहकर धर्म और अध्यात्म का वास्तविक अर्थ समझ सकें।
महाकुंभ 2025 से काशी की ओर: संतों और अखाड़ों की आध्यात्मिक परंपरा
हर 12 वर्षों में आयोजित होने वाला महाकुंभ केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति की जीवंत झलक प्रस्तुत करता है। प्रयागराज महाकुंभ 2025 के संपन्न होने के बाद अब विभिन्न अखाड़े, साधु-संत और धर्माचार्य काशी की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। इस परंपरा के अनुसार, संतगण महाशिवरात्रि तक काशी में प्रवास करते हैं, जहां वे अनुष्ठान, पूजा-पाठ और शिव आराधना में संलग्न रहते हैं।
महाकुंभ केवल संगम में स्नान और पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सतत आध्यात्मिक यात्रा है। इस यात्रा का अगला पड़ाव काशी है, जो भगवान शिव की नगरी के रूप में जानी जाती है। संतों का यह प्रवास केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह एक आध्यात्मिक जागरूकता का भी प्रतीक होता है।
7 फरवरी को शुभ मुहूर्त में विभिन्न अखाड़ों और संतों का जत्था काशी की ओर बढ़ेगा। वाराणसी में उनके लिए पूर्व से ही कुछ विशिष्ट स्थल निर्धारित किए गए हैं, जहाँ वे प्रवास करेंगे। निरंजनी घाट, महानिरवानी घाट और जूना घाट संतों के प्रमुख ठिकाने होंगे। इन घाटों पर संतगण प्रतिदिन गंगा आरती में भाग लेंगे और विशेष पूजा-पाठ करेंगे।
काशी में अखाड़ों की ओर से एक विशेष शोभायात्रा का आयोजन किया जाएगा। यह पेशवाई संतों के सम्मान और परंपरा का एक भव्य प्रदर्शन होती है। इसमें राजशाही अंदाज में सजे-धजे साधु-संत और नागा संन्यासी नगर में भ्रमण करेंगे, जिससे भक्तों को उनके दर्शन का अवसर मिलेगा। यह शोभायात्रा काशी के प्रमुख मार्गों से होकर गुजरेगी और भक्तों के लिए एक अद्वितीय अनुभव बनेगी।
काशी में संतों का रहना केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक साधना का अवसर भी होता है। इस दौरान वे गंगा तट पर विशेष पूजा-पाठ करते हैं, ध्यान और जप में लीन रहते हैं और अपने अनुयायियों को धार्मिक उपदेश देते हैं। भगवान शिव की आराधना में लीन ये संत काशी को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देते हैं।
महाशिवरात्रि के बाद संत भगवान विश्वनाथ के साथ होली खेलते हैं। इस आयोजन में विशेष तरह की भक्ति दिखाई देती है, जहाँ श्रद्धालु और संत मिलकर महादेव की भक्ति में रंग जाते हैं। यह दृश्य भक्तों के लिए एक अलौकिक अनुभूति प्रदान करता है।
काशी में यह संपूर्ण आयोजन सनातन धर्म की जीवंत परंपरा का प्रमाण है। हर बारह वर्षों में जब यह परंपरा दोहराई जाती है, तब यह न केवल धार्मिक आस्था को बल देती है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता को भी प्रोत्साहित करती है।
महाकुंभ से काशी तक की यह यात्रा केवल स्थान परिवर्तन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उत्थान का एक माध्यम है। इस दौरान संतों की उपस्थिति से काशी का वातावरण और भी पावन हो जाता है। यह परंपरा हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति की महानता को प्रदर्शित करती है और भक्तों के लिए एक अनमोल अवसर प्रदान करती है कि वे इस अद्भुत आध्यात्मिक यात्रा का साक्षी बनें।