राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र…. प्रदेश में आदिवासियों का असुरक्षित जनजीवन..? छत्तीसगढ़ में विलुप्त होती संरक्षित जनजातीय-आँचलिक ख़बरें-राजेश बिशेन

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राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र…. प्रदेश में आदिवासियों का असुरक्षित जनजीवन..? छत्तीसगढ़ में विलुप्त होती संरक्षित जनजातीय… इन दिनों प्रदेश की संरक्षित जनजातियाँ सुरक्षा के अभाव में जीवनयापन कर रही है,और सरकार की अनदेखी का ही परिणाम है कि राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहलाने वाली संरक्षित जनजातियाँ आज छत्तीसगढ़ से आहिस्ता-आहिस्ता विलुप्त होती जा रही है इल्म हो कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में कुछ विशेष जनजातियों को विलुप्त होने से बचाने राष्ट्रपति का “दत्तक पुत्र” घोषित किया गया था।लेकिन इनके जीवन मे अब तक कोई सुधार नही हो पा रहा है। ऐसा ही एक अतिसंवेदनशील मामला न्यायधानी बिलासपुर के “कोटा” जनपद में प्रकश में आया जहाँ राष्ट्पति के “दत्तक पुत्र” एक बुर्जुग बैगा दंपति इस कड़कड़ाती ठंड में पॉलीथिन की बनी झोपड़ी में पिछले लगभग 6 माह से जीवन गुजारने के लिए विवश हैं।जबकि केंद्र सरकार की समस्त योजनाएं इन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिये ही चलाई जा रही है। फिर भी उन्हें अपनी झोपड़ी सुधरवाने के लिये शासन की तरफ से कोई पहल नही की गईं। आख़िर वे इन हालात तक पुहंचे कैसे,तो एक नज़र डालते है उनकी आपबीती पर और जानते है कि उन बैगा दंपति इस दर्दनाक हालात का क्या राज है।और उनकी समस्याओं के समाधान का जम्मेदार कौन है। गौरतलब को की बीते माह अगस्त की दरम्यान बारिश की एक रात में जब वे बुर्जुग बैगा दंपति भोजन के बाद विश्राम कर रहे थे तो तेज बारिश के कारण कच्चे मिट्टी से बनी झोपड़ी भरभरा कर ढ़ह गई और उसके मलबे में वे बुर्जुग दंपति दब गए जिन्हें पड़ोसियों ने मलबा हटाकर बाहर निकाला और किसी तरह से इलाज के लिए बिलासपुर “सिम्स”हॉस्पिटल भेजवाया । ज्ञातव्य हो कि जब हमारे रिपोर्टर इमरान खान और मनमोहन को इस घटना की जानकारी मिली तो वे बुजुर्ग बैगा दंपति के समस्याओं की हक़ीक़त जानने के लिए उनके गाँव “करवा” पहुँचकर उनके बदहाल जीवन से रूबरू हो कर उनसे चर्चा की तो ज्ञात हुआ कि “झोपड़ी तो के अब टूट चुकी है और उसके स्थान पर उन्होंने सर छुपाने के लिए एक प्लास्टिक की पॉलीथिन से एक झोपड़ीनुमा घर बना लिया है अब उसी में गुजर-बसर हो रहा है। खाट पर उसकी पत्नी लेती हुईं थी झोपड़ी गिरने से उसके हाथ की उंगलियां फट गई थी जिसका इलाज अभी तक चल रहा था। साथ मे उसका पति बैठा था जो बहुत निराश और उदास नज़र आ रहा था ।यक़ीनन उनकी माली हालत अच्छी नही थी उन्हें देखकर मन विचलित हो रहा था। इतना ही नही दूसरी तरफ हल्का पटवारी नें टूट चुके झोपड़ी का मुआयना कर आर्थिक सहायता के रूप में मुआवजा राशि मिलने का भरोसा दिलाया था। तब बुजुर्ग दंपति ने पटवारी को जमीन के पूरे कागजात भी दे दिये थे,लेकिन ना तो उनका घर ही बन सका और ना ही कोई शासन की तरफ से मुआवजा ही मिला। बस शासन की एकमात्र खाद्यान्न योजना से सरकारी राशन दुकान से जो सामग्री मिलता है वहीं इनके जीवन का एक मात्र सहारा है।इतना ही नही इन्हें प्रधानमंत्री आवास व सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के लाभ से भी ये बुजुर्ग बैगा दंपति आज तक वंचित है।आख़िर पंच, सरपंच और विभगीय अधिकारियों ने इनकी तरफ से क्यो ऑंखे फेर ली है।अतः इनकी दयनीय स्थिति को देखते हुए हमारे रिपोर्टर इमरान ने एक गाँव के व्यक्ति से मदद लेकर महिला को टेंगनमाड़ा स्वास्थ्य केंद्र ले जाकर टांके खुलवाये और दवाइयां भी दिलवाया। एक ग्रामीण पत्रकार ने कुछ राशन भी खरीद कर दिया। विडंबना ही है राष्ट्रपति के “दत्तक पुत्र” विशेष संरक्षित जनजातियाँ इस प्रदेश में किस हाल में अपना जीवन व्यतीत कर रही है।

इल्म हो कि छत्तीसगढ़ राज्य बाहूल्य जनजातियाँ से भरा राज्य है।अतः इस प्रदेश में लगभग 42 जनजातियाँ पाई जाती है। छत्तीसगढ़ राज्य की प्रमुख जनजाति गोंड़ है। इसके अतिरिक्त अन्य जातियों में कँवर, बिंझवार,भैना, भतार,उरांव,मुंडा,कमार, हल्बा,बैगा, भरिया,नगेशिया,मंझावर,खैरवार, और धनवार जाति भी काफ़ी बड़ी संख्या में है।लेकिन छत्तीसगढ़ में पांच ऐसी जातियाँ है जिन्हें विशेष रूप से पिछड़ी जनजातियों को एक समुदाय में शामिल करके एक विशिष्ट पहचान दिया गया है।ये जातियाँ है,अबुझमाड़िया,कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर एवं बैगा और इनके विकास के लिए प्राधिकरण के गठन भी किया गया है। लेकिन विडंबना ही है कि छत्तीसगढ़ में लगभग आधा दर्जन इन जनजातियों के संरक्षण के लिये आधा दर्जन प्राधिकरण बने है और उनके द्वारा कई योजनाएं भी चल रही है और इन योजनाओं के लिए केंद्र सरकार से एक अच्छा-ख़ासा बज़ट भी आता है लेकिन इन जनजातियों तक कुछ पहुँच ही नहीं। यह भी विडंबना है कि सरकार के संरक्षण के बाद भी ये संरक्षित जनजातियाँ लगातार विलुप्तता के कगार पर पहुंच रही हैं।अगर एक रिपोर्ट पर गौर करे तो विशेष संरक्षित जनजातियों में बिरहोर सबसे ज्यादा खतरे में है,तक़रीबन सन 2001 में इनकी आबादी लगभग 3000 के करीब थी जो घट कर 2500 के आस-पास पहुंच चुकी है। इतना ही नही बिरहोर के साथ ही पहाड़ी कोरवा, पंडो, और अबुझमाड़िया की जनसंख्या में भी लगातार हो रही गिरावट चिंता का विषय है।इल्म हो कि संरक्षित जनजातियों में शामिल बैगा आदिवासियों की संख्या 10 साल पहले 71 हज़ार के क़रीब थी जो अब सिमट कर 42 हज़ार के करीब बची है। कमार जनजातियाँ भी इसी तरह से लगातार घटने के कगार पर निरंतर चलाये मान है अगर इसी प्रकार से ये संरक्षित जनजातियाँ का क्रम घटता रहा तो “राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों” का विलुप्त होने स्वाभाविक है।आख़िर इन जनजातियों के विलुप्त होने का पर्याप्त कारण क्या हो सकता है जबकि इनके संरक्षण के लिये सरकार द्वारा गठित प्राधिकरण से विभिन्न योजनाओं का संचालन किया जाना बताया जा रहा है। जबकि इन विषय के जानकारों का मानना है कि जंगलों में लगातार बढ़ता सरकार का दख़ल ही इन आदिवासियों की जनसँख्या का प्रमुख कारण हो सकता है। इल्म हो कि खनिज संसाधनों के लोभ में इन आदिवासियों को विस्थापित किया जाना है और नई स्थानों पर उनके पुनर्वास की व्यवस्था ठीक तरह से नही की जा रही है। अगर स्प्ष्टतौर पर कहे तो जंगलों पर सरकार का तेजी से बढ़ती दखलंदाजी ही इन संरक्षित जनजातियों के विलुप्ति का कारण है। ज्ञात हो कि इन संरक्षित जनजातियों के प्रति सरकार संवेदनशील नज़र नही आती। क्योंकि ना तो इनके खान-पान, और ना ही स्वास्थ्य के प्रति छत्तीसगढ़ सरकार गंभीर ही दिखाई देती है। क्योंकि ये विशेष संरक्षित जनजातियाँ पर कुपोषण और गरीबी की मार ही इन्हें मार देती है। इतना ही नही राष्ट्रपति के “दत्तक पुत्र” कहे जाने वाले “कोरवा पहाडी” जातियाँ भी संरक्षण के बाद घोर संकट के दौर से गुजर रही है। अब इनकी जनसंख्या में इतनी गिरावट आ गई है कि अब इनकी आबादी का आंकड़ा 10 हजार तक सिमट गया है।जाहिर सी बात है कि जब आबादी अगर इतनी कम हो तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि असमय मौत इनके दरवाजे पर दस्तक देती रहती है वह भी मलेरिया के रूप में जिसके कारण पहाडी कोरवा काफी चितिंत रहते है।इस बीमारी के प्रकोप और उससे हो रही मौतों ने इस समुदाय पर छाए संकट को गहरा दिया है.छत्तीसगढ़ के पूर्वी क्षेत्र में रहने वाले पहाड़ी कोरवा आदिवासियों की आदिम नस्ल है. इसका अपना अपना विशिष्ट रहन-सहन, खान-पान, सभ्यता और संस्कृति है. इस जनजाति पर बढ़ रहे खतरे को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने इसे संरक्षित सूची में स्थान दिया है. लेकिन तेजी से कट रहे जंगलों और बीमारियों के पसरने से इस पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये एक गंभीर चिंता का विषय है।इतना ही नही राज्य की विशेष संरक्षित जनजातियों में शामिल “बिरहोर” इस वक्त सबसे ज्यादा खतरे में हैं। इस जनजाति के लोग रायगढ़, जशपुर, बिलासपुर और कोरबा जिले के दुगर्म जंगली क्षेत्रों में रहते हैं। 2001 की जनगणना में बिरहोर के आठ सौ परिवार में लगभग तीन हजार सदस्य थे। अब इनकी संख्या 25 सौ के आसपास बची है।बिरहोर के साथ ही पहाड़ी कोरवा, पण्डो व अबूझामाड़िया की भी आबादी में चिंताजनक रूप से कमी आई है और यही स्थिति कमार जनजाति की भी है आदिमजाति कल्याण विभाग के अफसर भी मान रहे हैं कि इन जनजातियों को जो स्थिति है, अगर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले कुछ सालों में ये इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएंगे।
अतः संरक्षित जनजातियों की घटती जनसंख्या को देखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने 13 दिसम्बर 1979 को इनकी नसबंदी पर रोक लगाई थी। छत्तीसगढ़ सरकार के एक अप्रैल 2015 को सभी कलेक्टरों को पत्र जारी कर इसका कड़ाई से पालन करने का निर्देश दिया था। इस बीच करीब दो साल पहले राज्य सरकार ने सशर्त नसबंदी की अनुमति दे दी। सरकार का तर्क है कि जनजाति के लोग ही इसकी मांग कर रहे थे।भला यह कैसे संभव हो सकता है।जबकि ये संरक्षित जनजातियाँ है। यक़ीनन सरकार द्वारा संरक्षित ये आदिवासियों का जीवन बदहाली में व्यतीत हो रहा है जबकि सरकार इनके संरक्षण के लिये लाखो रुपये पानी की तरह से बहा रही है और इसका कोई परिणाम सामने नही आ रहा है,उपरोक्त बैगा दंपति रतिराम और उसकी पत्नी की दुर्दशा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कलेक्टर बिलासपुर और एस. डी. एम.कोटा को भी इस बात की ख़बर न हो ऐसा तो संभव नही है। क्योंकि उन्हें अपने से ही फुर्सत नही मिलती तो दूसरों को क्या देखेंगे। इस राज्य में 15 सालो तक भाजपा ने हुकूमत की और 15 साल तक कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए संघर्ष किया है अब कांग्रेस की हुकूमत है और उससे एक बेहतर परिणाम की अपेक्षा की जा रही है।इतना ही नही समअपमेल और समअप पत्रिका उन पत्रकारों को भी धन्यवाद करता है जो समय – समय पर ऐसे परिवारों की मदद करते रहते है।ज्ञातव्य हो कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ अमानवीयता पूर्ण व्यवहार हो रहा है और उनकी जनसंख्या में भी लगातार कमी आ रही। जो प्रशासन और सरकार के लिये एक अहम मसला है अतः उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए,जिससे इन संरक्षण जनजातियों को बचाया जा सके।
इल्म हो कि तत्कालीन भाजपा सरकार के समय बस्तर प्रवास पर आये पर राष्ट्रपति के रूप रामनाथ कोविंद चौथे राष्ट्रपति है और दंतेवाड़ा जाने वाले पहले राष्ट्रपति है।बस्तर प्रवास पर पहली बार देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे और दूसरे बार डॉ. ए. पी.जे.अब्दुल कलाम और फिर उनके बाद प्रतिभा पाटिल ने बस्तर के चित्रकूट जलप्रपात को देखकर मंत्रमुग्ध हो गई थी।भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जहां बस्तर का दौरा करके उसे अहमियत देने की कोशिश की, वहीं छत्तीसगढ़ में उनके ही ‘दत्तक पुत्र’ धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं।छत्तीसगढ़ में कुछ विशेष संरक्षित जनजातियों को विलुप्त होने से बचाने के लिए राष्ट्रपति का “दत्तक पुत्र” घोषित किया गया है, लेकिन इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पा रहा है। ये काफ़ी चिन्तिनीय और निन्दनीय भी है अतः इसका निदान भी आवश्यक है।

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