किसानो का विरोध प्रदर्शन | जन आंदोलन या सियासी खेल ?

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By News Desk
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केंद्र सरकार द्वारा किसानो के हित में तीन कृषि कानून पास किये गए है. इस कृषि कानून से किसानो को उनकी फसल का अधिकतम मूल्य दिलवाने व बिचौलिया प्रथा पर पूरी तरह नकेल कसने का प्रावधान है. लेकिन किसानो के हित के इस बिल का विरोध किया जा रहा है. विरोध करने वाले किसान नेताओं का कहना है कि इस बिल से किसानो को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल सकेगा, साथ ही प्राइवेट संस्थानों द्वारा किसानो से सस्ते दरों में उनकी फसल खरीद कर महंगे दरों में बेंची जाएगी, जिसमे किसानो का नुकसान व प्राइवेट संस्थानों का फायदा है.

इस कृषि कानून के सम्बन्ध कई मीडिया रिपोर्ट्स और ख़बरें, मीडिया संस्थानों, अख़बारों व चैनेलो द्वारा कि गयी हैं. लेकिन अभी तक किसी भी रिपोर्ट या खबर में ये नहीं बताया गया कि दिल्ली के किसान प्रदर्शन में हरियाणा व पंजाब के अलावा और किस राज्य के किसान शामिल है व इस विरोध आंदोलन में अन्य राज्यों के किसानो की कितने प्रतिशत भागेदारी है. साथ किसानो के इस विरोध में देश के अन्य राज्यों के किसानो द्वारा इस आंदोलन का विरोध किया जा रहा है या समर्थन, इस बाबत भी कोई रिपोर्ट सामने नहीं है.

अपनी इस रिपोर्ट हम किसान कानून व कृषि बिल के विरोध के दूसरे अनझुए पहलु पर बात करेंगे. जिससे यह स्पस्ट होगा कि आखिर यह विरोध किसानो द्वारा किसानो के हित में है या किसानो के नाम पर बिचौलियों व विपक्षी दलों द्वारा रची गयी सोंची समझी योजना.

कृषि कानून के विरोध की शुरुआत :- 26 नवंबर 2020 से शुरू हुए किसान आंदोलन का अब तक समाधान नहीं निकल सका है. केंद्र सरकार की ओर से पारित किए गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर 26 नवंबर से किसान आंदोलन शुरू हुआ था. इस विरोध आंदोलन के शुरू होने पर सरकार द्वारा किसानो से मिलकर मामले का हल निकालने की बात की गयी थी लेकिन विरोध करने वाले किसानो ने सरकार की बात सुनने से साफ़ इंकार कर दिया. उन्होंने कहा की उन्हें सरकार की कोई बात नहीं सुननी है.

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि सरकार किसान प्रतिनिधियों के साथ खुले मन से चर्चा करके समाधान के लिए हरसंभव प्रयासरत है. लेकिन इसके लिए दोनों ओर से कदम आगे बढ़ाने की जरूरत है. सरकार सभी सकारात्मक विकल्पों को ध्यान में रखते हुए विचार करने के लिए तैयार है. उन्होंने कहा कि किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए कृषि सुधार कानूनों पर अन्य राज्यों के किसान संगठनों से भी बात की जाएगी. साथ ही उन्होंने कहा,’हम इन तीनों कानूनों पर बिंदुवार चर्चा करने के लिए तैयार हैं. हमने किसान यूनियनों को प्रस्ताव दिया कि जिन-जिन बिंदुओं पर आपको आपत्ति हो, आप हमें बताएं. हम उन पर विचार करके उचित संशोधन के लिए तैयार हैं.’

कोई भी बात सुनने के तैयार नहीं है किसान नेता :- कृषि मंत्री के द्वारा वार्ता के अनुग्रह को पूरी तरह नकारते हुए किसान नेता एस के कक्का ने कहा कि, हम कोई भी चर्चा नहीं करना चाहते है, हमें किसी भी बिंदु पर चर्चा नहीं करनी है, ये तीनो कानून, काले कानून है, सरकार उन्हें रद्द करे. उन्होंने कहा कि ये पूरे देश को मजबूर बनाने की योजना है इसलिए उन्हें ये कानून नहीं चाहिए.
वहीँ स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए सरकार साजिश रच रही है.

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार बार बार किसान नेताओं से बात करके इस मामले का हल निकालने का प्रयास कर रही है. लेकिन किसान नेताओं द्वारा सरकार से बात करने को नकारना यह दर्शाता है कि यह किसान आंदोलन कहीं न कहीं राजनैतिक रूप से प्रभावित है, और इसमें किसान नेताओं द्वारा स्व हित के लिए शियासत कि जा रही है.

सरकार के पक्ष में है कई किसान नेता व किसान हित सम्न्बंधी यूनियन : इस पूरे किसान आंदोलन कि सबसे दिलचस्प बात यह है कि सरकार द्वारा जारी किये गए इस कृषि कानून को देश के कई बड़े किसान नेता व किसान संगठन अपना समर्थन दे रहे है. अब सोंचने वाली बात है कि यदि वाकई यह कानून किसान विरोधी होता तो, किसान नेता और किसान संगठन इस कानून का समर्थन क्यों करते…

उत्तर प्रदेश की किसान संघर्ष समिति (केएसएस) और दिल्ली का इंडियन किसान यूनियन (आईकेयू) उन किसान संगठनों में शामिल है, जिन्होंने नये कृषि कानूनों के प्रति समर्थन जताया है. इससे पहले हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के कुछ संगठन भी सरकार का समर्थन कर चुके हैं.

केएसएस के अध्यक्ष अजय पाल प्रधान ने कहा, ‘केंद्र द्वारा लागू किये गये तीनों कानून अच्छे हैं और किसानों के हित में हैं.’ केएसएस ने कानूनों का समर्थन करते हुए कृषि मंत्री से यह अनुरोध भी किया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद की व्यवस्था जारी रहनी चाहिए.

वहीं आईकेयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामकुमार वालिया ने कहा, ‘हमने कृषि कानूनों को विस्तार से पढ़ा है और ये किसानों के पक्ष में हैं. हम किसानों से इस मुद्दे पर गुमराह नहीं होने का आग्रह करते हैं.’ उन्होंने कहा कि नये कृषि कानून बिचौलियों को हटाएंगे और किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए विकल्प मुहैया कराएंगे.

कृषि कानून को लेकर उपजे विवाद को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई थी उसमें भूपिंदर सिंह मान (अध्यक्ष, भारतीय किसान यूनियन), डॉ. प्रमोद कुमार जोशी (अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान), अशोक गुलाटी (कृषि अर्थशास्त्री) और अनिल धनवट (शिवकेरी संगठन, महाराष्ट्र) शामिल थे.

सरदार भूपिंदर सिंह मान भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वे किसान कोऑर्डिनेशन कमेटी (केकेसी) के चेयरमैन भी हैं और प्रदर्शन कर रहे किसानों के संगठन में ये संगठन शामिल नहीं है. उन्होंने सरकार द्वारा जारी किये गए कृषि कानून का समर्थन किया है.

वहीँ अनिल घनवट ने भी कृषि कानून का समर्थन किया है. अनिल घनवत महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के अध्यक्ष हैं. यह संगठन किसानो के हित में कार्य करता है. इस संगठन से महाराष्ट्र के हजारों किसान जुड़े हैं. ज्ञात हो कि केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को एक पत्र लिखकर देश के कुछ किसान संगठनों ने कृषि कानून का समर्थन किया था. उनमें शेतकारी संगठन भी था.

दिल्ली के अलावा अन्य राज्यों के किसान क्यों नहीं कर रहे है विरोध : इस किसान आंदोलन कि एक महत्वपूर्ण कड़ी है जिसपर गौर नहीं किया जा रहा है. और वो कड़ी है अन्य राज्यों में किसानो द्वारा कृषि बिल का विरोध न करना. दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे पंजाब व हरियाणा के किसान नेताओं का कहना है कि यह कृषि कानून किसानो के हित में नहीं है लेकिन अगर यह बात सही होती तो देश के अन्य राज्यों के किसानो को भी इस कानून का विरोध करना चाहिए था , लेकिन देश के अन्य राज्य जैसे केरल, महाराष्ट्र, ओडिसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व अन्य राज्यों के किसान इस विरोध में शामिल नहीं है. अन्य राज्यों के किसान अपनी खेती में लगे हुए हैं. इन राज्यों में जो भी विरोध हो रहा है वो मात्र विपक्षी दलों व स्थानीय क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के द्वारा ही किये जा रहे हैं. जबकि किसान अपने खेतों पर काम कर रहे हैं.

बिहार में साल 2006 में नीतीश सरकार ने एपीएमसी एक्ट (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) ख़त्म कर दिया था. ऐसा करने वाला बिहार देश का पहला राज्य था. एपीएमसी एक्ट ख़त्म होने के बाद सरकार पैक्स (प्राथमिक कृषि साख एवं सहयोग समिति) और व्यापार मंडल के ज़रिए अनाज की ख़रीदारी करती है. 2017 तक के आंकड़ों के मुताबिक़, राज्य में 8463 पैक्स और 521 व्यापार मंडल है, जो ये ख़रीदारी करते हैं. हर साल सरकार नवंबर मध्य में किसानों से धान की सरकारी ख़रीद का आदेश निकालती है. पैक्स और व्यापार मंडलों को धान की सरकारी ख़रीदारी का लक्ष्य दिया जाता है जो इस वर्ष 45 लाख मीट्रिक टन है. एपीएमसी एक्ट से किसानो को काफी लाभ हुआ है. इससे बिचौलियों का व्यापार खत्म हो गया है. बिहार के अधकांश किसान केंद्र सरकार द्वारा लागू किये गए कानून का समर्थन कर रहे हैं.

केरल में राज्य सरकार सीधे किसानों से तय न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खाद्यान्न (मोटे तौर पर धान) की ख़रीदारी करती है. यहाँ किसानों को केंद्र से तय की गई कीमतों से अधिक एमएसपी मिलता है. यहाँ किसान को भारतीय खाद्य निगम (फूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया) को अपनी फसल बेचने की छूट है लेकिन अधिकांश खाद्यान्न राज्य खाद्य और नागरिक आपूर्ति निगम को ही बेचे जाते हैं.
भारतीय किसान आंदोलन के पीसी साइरिएक के अनुसार , “केरल में न तो मंडी सिस्टम है और न ही कोई एपीएमसी यार्ड है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह एक उपभोक्ता राज्य है. यहाँ चावल उत्पादन भी इसकी आवश्यकतों की केवल 20 प्रतिशत को ही पूरा करता है.

भारतीय किसान आंदोलन, केरल का एकमात्र स्वतंत्र किसान संघ है. वैसे केरल में रबर, मसाले, कॉफ़ी और चाय की पैदावार का देश के बाकी हिस्सों की तरह ही निगमीकरण किया गया है. केरल के किसानो का मानना है कि नए कृषि कानून से केरल कि मंडियों में सुधार होगा. उन्होंने किसान नेताओं के विरोध का समर्थन नहीं किया है.

कहाँ के किसान नेता कर रहे हैं दिल्ली में प्रदर्शन : दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में सियासी खेल की झलक दिखती है. दिल्ली में चल रहे प्रदर्शन में 90 फ़ीसदी से भी ज्यादा प्रदर्शनकारी पंजाब व हरियाणा से आये है. इस आंदोलन में अन्य राज्य के किसानो की भागेदारी न के बराबर है. जिससे यह स्पस्ट होता है कि यह विरोध राजनीति से प्रेरित होकर किसान नेताओं द्वारा किया जा रहा है न की किसानो द्वारा.

किसान आंदोलन से देश को आर्थिक नुकसान : किसान आंदोलन की वजह से देश को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है. आंदोलन ने यातायात प्रभावित कर दिया है. एवं जिन स्थानों पर आंदोलन हो रहा है वहां एवं आसपास के लोगो को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. स्थानीय लोग कहीं आ जा नहीं पा रहे हैं, उनका व्यापार बंद पड़ा है.

उद्योग चैंबर एसोचैम का कहना है कि किसान आंदोलन से देश को हर दिन करीब 3500 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है. यह नुकसान लॉजिस्टिक लागत बढ़ने, श्रमिकों की कमी, टूरिज्म जैसी कई सेवाओं के न खुल पाने आदि के रूप में हो रहा है. उद्योग चैंबर ने सरकार और किसानों से इस गतिरोध को दूर करने के लिए कोई रास्ता निकालने की मांग की है. एक और उद्योग चैंबर कंफडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज का भी कहना है कि पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था को किसान आंदोलन से काफी नुकसान हो रहा है. एसोचैम के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा, ‘ये राज्य कृषि और वानिकी के अलावा फूड प्रो​सेसिंग, कॉटन टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल, फार्म मशीनरी, आईटी जैसे कई प्रमुख उद्योगों के भी केंद्र हैं. इन राज्यों में टूरिज्म, ट्रेडिंग, ट्रांसपोर्ट और हॉस्पिटलिटी जैसे सर्विस सेक्टर भी काफी मजबूत हैं. लेकिन विरोध प्रदर्शन और रास्ता जाम होने से इन सभी गतिविधियों को काफी नुकसान हो रहा है.’

रेलवे को आर्थिक नुकसान व आमजन को हो रही मुश्किलें : उत्तर रेलवे के महाप्रबंधक आशुतोष गंगल की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक किसानों के आंदोलन के चलते रेलवे को 2000-2400 करोड़ का बड़ा नुकसान हुआ है. आशुतोष गंगल ने कहा कि ये नुकसान रेलवे का नहीं बल्कि देश का है. किसानों के आंदोलन के चलते ट्रांसपोर्ट सेक्टर, उद्योग, कारोबार आदि को भी नुकसान हो रहा है. इन सबके अलावा ट्रेनों को रद्द किए जाने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

कौन कर रहा है फंडिंग : इस आंदोलन में किसान नेताओं को फंडिंग कहाँ से मिल रही है यह स्पस्ट नहीं है. गौरतलब हो कि बिना फंडिंग के इस तरह के प्रदर्शन संभव नहीं है. अगर सामान्य बात की जाये तो एक व्यापारी भी तीन महीने तक अपना काम बंद कर के गुजारा नहीं कर सकता. यहाँ तक कि एक मजदूर भी 2 दिन से ज्यादा अपना काम नहीं रोक सकता. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर ये कौन से किसान है जो तीन महीने से भी ज्यादा का समय बीतने के बाद भी बिना किसी आर्थिक चिंता के प्रदर्शन कर रहे है?

ज्ञात हो कि नवम्बर से मार्च तक का समय किसानो के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. यही समय किसानो के पूरे वर्ष के खानपान व आर्थिक मजबूती में अहम् भूमिका निभाता है. यदि इस समय किसान खेती पर ध्यान नहीं देता तो उसके घर में खाना भी नसीब नहीं हो सकता. ऐसे इतने दिनों से दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे किसानो को अपने परिवार की चिंता क्यों नहीं सता रही ? क्या बात है जो ये किसान नेता अपनी खेती छोड़ कर प्रदर्शन में लगे हुए है ? क्या इन्हे फंडिंग मिल रही है ? या फिर इनके साल भर के राशन की व्यवस्था किसी सियासी फायदे के लिए किसी दल द्वारा कि गयी है ?

वहीँ दूसरी ओर कहा जाता है की किसान गरीब होता है. इस बाबत सरकार हर साल किसानो की कर्जमाफी करती है व अन्य आर्थिक सहायता किसानो को देती है. लेकिन दिल्ली के प्रदर्शन में हुए ट्रैकर रैली से यह प्रतीत होता है की यहाँ प्रदर्शन करने वाले आर्थिक रूप से मजबूत है, वो लोग गरीब किसान नहीं है.

एक ट्रैकर की न्यूनतम कीमत 5 लाख रुपये होती है, और एक गरीब किसान के लिए साल भर में खाने का राशन पैदा करने के बाद भी 1 लाख रूपये बचाना भी संभव नहीं होता ऐसे में प्रदर्शन में सैकड़ों ट्रैकर्स का लाया जाना एक सवालिया निशान पैदा करता है. इस पूरे प्रकरण पर सूक्ष्मता से देखने पर यह प्रतीत होता है की यह आंदोलन सियासी रूप से प्रभावित है, यही कारण है की देश के अन्य राज्यों के किसानो ने इस प्रदर्शन का विरोध नहीं किया…

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