एक विकासशील देश जब विकास के पायदानों पर चढ़ रहा होता है तब उस देश के समक्ष अनेकों चुनौतियां होती हैं, जिससे उसे लड़ना होता है। विकास का अर्थ केवल आर्थिक संपन्नता को नहीं माना जा सकता। विकास के कई मानवीय पहलू भी होते हैं। विशेषकर जब हम भारतीय परिपेक्ष में विकास की बात करते हैं तब हमारे सामने अनेकों ऐसे विषय आते हैं जिस पर हमें निश्चित रूप से बात करने की आवश्यकता मालूम पड़ती है। मसलन गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, बाल मजदूरी इत्यादि।
आज हम विशेषकर भारत में बाल मजदूरी और बाल शोषण के अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करेंगे। आज अगर हम देखें तो यह विषय चर्चा के केंद्र में होना चाहिए था परंतु आपको कहीं इसकी चर्चा होती नहीं दिखेगी। बाल मजदूरी या कहें कि किसी भी प्रकार से बालक बालिकाओं का शोषण इस राष्ट्र के विकास में सबसे प्रमुख बाधा के रूप में देखा जाना चाहिए। आज के बच्चे ही कल इस राष्ट्र का भविष्य हैं अतः अगर बच्चों के भविष्य को हम अधर में डालते हैं तो स्वाभाविक रूप से इस राष्ट्र का भविष्य भी अधर में जाता दिखेगा। हमने ज्ञान, विज्ञान, खेल, तकनीक से लेकर अंतरिक्ष तक के क्षेत्र में प्रगति कर ली है लेकिन शोषण और बाल मजदूरी जैसे मुद्दे से हम आज तक मुंह मोड़ते आए हैं। हमें इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि हम और हमारा राष्ट्र कैसे सामाजिक और राजनीतिक रूप से एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए इस समस्या की जड़ तक जाए और इसे जड़ मूल से नष्ट करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे। हम इस बात से कदापि इनकार नहीं कर सकते कि कल अगर हमारे देश को अच्छे डॉक्टर, अच्छे वैज्ञानिक, विश्व स्तरीय खिलाड़ी चाहिए तो उसके लिए हमें आज अपने बच्चों पर निवेश करनी होगी। यहाँ निवेश का अर्थ आर्थिक निवेश से नहीं, यहाँ निवेश का अर्थ सामाजिक जागरूकता से है। सरकार ने प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ कई प्रकार से प्रयास किया है समाज में इस विषय पर जागरूकता फैलाने की लेकिन सिर्फ सरकारों के प्रयास से परिवर्तन नहीं हो सकता। सरकार वर्षों से इसके लिए प्रयास करती आई है। लेकिन हमारे सामने अब भी सबसे प्रमुख सवाल यही है कि इसमें कितना परिवर्तन आया?
किसी भी सामाजिक परिवर्तन का ध्वजवाहक सही मायनों में समाज स्वयं होता है। अगर हमारा समाज इस बात का प्रण ले कि “हम बाल मजदूरी ना करवाएंगे- ना करवाने देंगे” तो तय मानिए कि आधी बाल मजदूरी और शोषण की समस्या उसी दिन समाप्त हो जाएगी। बाल मजदूरी का एक प्रमुख कारण गरीबी को भी माना जा सकता है। कोई संपन्न परिवार अपने बच्चे से मजदूरी का कार्य नहीं करवाएगा, उस बच्चे का क्या दोष जिसने एक गरीब परिवार में जन्म लिया। जन्म लेते ही उसके भाग्य की रेखाएं तय कर दी जाती है।
कई परिवारों में यहां तक धारणाएं होती है कि जितने ज्यादा बच्चे होंगे कमाई के स्रोत उतने ही ज्यादा होंगे। अतः यह स्पष्ट है कि हमारे देश में गरीबी उन्मूलन पर भी कार्य करने की नितांत आवश्यकता है। हमें यह समझना होगा कि कोई भी माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य को अंधकार में नहीं डालना चाहता। कई कारण होते हैं जो उनको अपने बच्चों को मजदूर बनाने के लिए विवश कर देते हैं। आप बड़े-बड़े शहरों के चौक चौराहों पर बच्चों को भीख मांगते हुए देखते होंगे। कई बार तो ऐसा होता है कि बच्चों को अगवा कर, किसी प्रकार से अपाहिज बनाकर उसे शहर के चौक-चौराहों पर भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके पीछे एक गिरोह काम कर रहा होता है। स्थानीय पुलिस प्रशासन की भी जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे गिरोह का पर्दाफाश करें और इससे बच्चों को मुक्त कराएं। हालांकि कई एनजीओ और सामाजिक संस्थाएं हैं जो इन विषयों पर समाज में कार्यरत है।
हम अगर आंकड़ों की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 आयु वर्ग के 1 एक करोड़ से ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी की दलदल में फंसे हुए हैं। यह केवल भारत की ही समस्या नहीं अपितु वैश्विक स्तर पर भी बड़ी संख्या में बच्चे मजदूरी करने को विवश हैं। समस्त विश्व में 15 करोड़ बच्चे इस अंधकारमय परिस्थिति के शिकार हो चुके हैं। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बड़ी संख्या में बच्चे बाल मजदूरी के शिकार हैं। इसमें ग्रामीण इलाकों से बड़ी तादाद में बच्चे शामिल हैं। आंकड़ों की माने तो लगभग 80% बाल मजदूरी की जड़ें ग्रामीण इलाकों में ही फैली है।
देश में 2011 में सेक्टर आधारित बाल मजदूरी पर नजर डाली जाए तो बच्चों की सबसे बड़ी आबादी यानी 33 लाख खेती से जुड़े कामों में लगी है, जबकि 26 लाख बच्चे खेतिहर मजदूर हैं। राज्य दर आंकड़ों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 21 लाख, बिहार में 10 लाख तो वहीं राजस्थान में 8 लाख बाल मजदूर हैं। वैश्विक संस्था यूनिसेफ ने इस पर काफी शोध और अध्ययन किया है। यूनिसेफ के मुताबिक बच्चों का नियोजन इसलिए किया जाता है ताकि उनका आसानी से शोषण किया जा सके। बच्चे अपनी उम्र के अनुरूप कठिन काम जिन कारणों से करते हैं उनमें गरीबी पहला है, लेकिन इसके बावजूद जनसंख्या विस्फोट, सस्ता श्रम, उपलब्ध कानूनों का लागू ना होना जैसे अन्य कारण भी हैं। यदि एक परिवार के भरण-पोषण का आधार ही बाल श्रम हो तो कोई कर भी क्या सकता है?
सरकार के प्रयासों की बात की जाए तो 1987 में ही केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय बाल श्रम नीति को मंजूर किया गया था। बाल श्रम उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना कार्यक्रम के तहत डेढ़ लाख बच्चों को शामिल करने हेतु 76 लाख बाल श्रम परियोजनाएं स्वीकृत की गई है। करीब 1.5 लाख बच्चों को विशेष स्कूल में नामांकित किया जा चुका है। श्रम मंत्रालय ने नीति आयोग से वर्तमान में 250 जिलों की बजाय देश के सभी 600 जिलों को राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना में शामिल करने के लिए ₹1500 करोड़ रुपये देने को कहा है। 57 खतरनाक उद्योगों, ढाबा और घरों में काम करने वाले 9 से 14 वर्ष के बच्चों को इस परियोजना के तहत लाया जाएगा। सर्व शिक्षा अभियान जैसी सरकारी योजनाएं भी लागू की जा रही है।
ये सारे सरकारी प्रयास होते आए हैं और आगे भी होते रहेंगे लेकिन एक शिक्षित और विकासपरक समाज होने के नाते हमें इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि हमने अपने समाज के वंचित बच्चों को क्या दिया? उनके लिए क्या किया? हम और हमारे समाज ने अगर सामूहिक जिम्मेदारी दिखाते हुए इस ओर अपना ध्यानाकर्षण किया होता तो शायद आज यह समस्या इतना विकराल रूप न ले पाती और आज सरकार का जितना पैसा इस ओर लग रहा है वह किसी और विकास कार्य में लग रहा होता। हम आज भी छोटी-छोटी इकाइयां बनाकर ऐसे बच्चों को चिन्हित कर उन्हें पाठ्य सामग्री वितरित करते हुए उन्हें शिक्षा की ओर ला सकते हैं। कई लोग ऐसा कर भी रहे हैं। बस देर है तो एक सामूहिक सार्थक पहल को शुरू करने की। ऐसा करके हम बच्चों को उसका कीमती बचपन तो लौटा ही सकेंगे साथ ही भारत के भविष्य को भी सुदृढ़ करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।