
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में अगस्त महीने का बहुत मोल है। 15 अगस्त को आजादी तो मिली ही थी लेकिन इसके अलावा अगस्त क्रांति कौन भूल सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध में समर्थन लेने के बाद भी जब अंग्रेज़ भारत को स्वतंत्र करने के लिए तैयार नहीं हुए तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में आजादी की अंतिम लड़ाई का बिगुल फूँक दिया गया जिससे ब्रितानिया हुकूमत में दहशत फैल गई। बहुत जल्द ही यह देशव्यापी आन्दोलन का रूप ले चुका था, उसी क्रम में सन 1942 में 18 अगस्त के दिन मढ़ौरा के मेहता गाछी में क्रान्तिकारियों द्वारा कुछ ऐसा हुआ जिसको इतिहास के पन्ना में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। यह बात अलग है कि बहुत सालों से किसी ने इन पन्नों को पलटा नहीं।
मढ़ौरा के महथा गाछी में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चल रही सभा को बहुरिया जी सम्बोधित कर रहीं थी। अँगरेज़ सिपाही इस सभा को जलियावाला बाग जैसी घटना का रूप देने की साजिश से सभा स्थल की ओर बढ़ते रहे लेकिन इसके उलट अँग्रेजी सैनिकों में से ही आधा दर्जन से ज्यादा सिपाहियों की लाशें बिछा दी गईं। इसीलिए इस तारीख़ को इतिहास में मढ़ौरा गोरा हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।
जहां तक सब को मालूम था कि अगस्त क्रांति 1942 का बिगुल 7 अगस्त को ही कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की उद्घोषणा के साथे बज गया था। 9 अगस्त आते-आते सारे बड़े राष्ट्रीय नेता और क्रान्तिकारियों को जेल में ठूंस दिया गया था। इस कारण यह क्रांति नेतृत्व विहीन हो गई। ऐसे विकट समय में क्रांति का नेतृत्व छात्रों, नवजवानों और किसानों के हाथों में आ गई थी। जिस तरह बिना ड्राइवर की कार अक्सर अपने रास्ते से भटक जाती हैं ठीक इसी तरह अब क्रांति का स्वरूप भी बदल चुका था। यह क्रांति अहिंसा का रास्ता छोड़ हिंसा के रास्ते पर चल पड़ी और देश के साथ-साथ बिहार में भी इसका बहुत असर पड़ा। सारण जिला मुख्यालय छपरा और उस समय की औद्योगिक नगरी मढ़ौरा में भी क्रांति की आग धू-धू करके जलने लगी। चुकी क्रांति की बागडोर युवाओं के हाथ मे थी इसलिए यह आग की तरह तेजी से फैल रही थी। अगस्त क्रांति के दौरान ही 18 अगस्त को मढ़ौरा महथा गाछी में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक सभा चलत रही थी, जिसको सम्बोधित कर रही थीं बहुरिया जी। सभा की सूचना अंग्रेज सरकार को पहले ही लग गई थी। इसलिए अँगरेज़ सिपाही भीड़ को चारो ओर से घेर कर जलियावाला बाग की तरह ही सामूहिक हत्याकांड करने कि साजिश से मढ़ौरा सभा स्थल के तरफ बढ़ रहे थे। रामजीवन सिंह को अंदाजा था कि अंग्रेज सैनिक सभा में खुराफ़ात कर सकते हैं। इसी कारण वो अपने 5-7 क्रांतिकारी साथियों के साथ सभा स्थल से थोड़ी दूर तैनात थे। रामजीवन सिंह युवा क्रांतिकारियों के सेनापति थे। अंग्रेजी सैनिक जैसे ही सभा स्थल के तरफ बढ़े कि रामजीवन के सिपाही उनकपर टूट पड़े। एक तरफ अंग्रेज सैनिकों कि हाथों में बंदूक थे तो दूसरी तरफ क्रांतिकारियों कि हाथों में लाठी, भाला और दाब। इधर रामजीवन अपने दल के साथ अंग्रेजों को बढ़ने से रोक रहे थे और उधर बहुरिया जी सभा में अपने भाषण के माध्यम से लोगों के दिलों में क्रांति की लपटों को हवा दे रहीं थी। अदम्य मनोबल और अप्रतिहत शौर्य के साथ लड़ने में रामजीवन सिंह कि छाती में अंग्रेजी गोली लग तो गई लेकिन तीन अंग्रेजी सिपाही भी नरक के द्वार पर जा चुके थे। सभा खत्म होने ही वाली थी कि अंग्रेजी सेना सभा पर टूट पड़ी। बहुरिया जी के ललकार पर भीड़ ने लाठी-डंटा और हंसुआ-गंरासी से ही छह से ज्यादा सिपाहियों को मार गिराया और तुरंत सारी लाशें नदी में बहा दी गई। अंग्रेजी सेना नाव से खोजती रही लेकिन एक भी लाश का पता न चल सका। मढ़ौरा और आसपास के क्षेत्र कुछे घंटों में छवनी में तब्दील हो गए। बहुरिया जी ने सड़क पर पेड़ कटवा के गिरवा दिया जिससे पुलिस कारवाई धीमी पड़ गई और क्रांतिकारियों को सुरक्षित स्थान पर जाने का समय मिल गया। युवा क्रांतिकारी रामजीवन सिंह की शहादत के बदले छह अंग्रेजी सिपाही ढ़ेर हुए लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है कि दस से ज्यादा तो रामजीवन ने ही मार गिराया था उसके बाद भीड़ जब मारने लगी तो अंग्रेजी सिपाहियों को वहां से भागना पड़ा तब तक पचासो सिपाही काट कर नदी में बहा दिए गए और आंकड़ा बताया की छह सिपाही मारे गए। यह सारण जिले की ऐसी घटना रही जो न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में चर्चित रही। पूरे जिले में रामजीवन सिंह और बहुरिया जी रामस्वरूपा देवी कि वीरता के गीत गाए जाने लगे।
बिहार के भागलपुर के तीरमुहान में भूपनरायन सिंह कि राजसी ठाट बाट में पली-बढ़ी बिटिया रामस्वरूपा बाल्यावस्था में ही भोजपुरी अंचल सारण के अमनौर स्टेट कि बहुरिया(दुल्हन) बन गई। इनके पति हरिमाधव सिंह छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े रहे। बाद में सविनय अवज्ञा आंदोलन के 1930 ई में नमक सत्याग्रह के दौरान हरिमधाव सिंह को ब्रिटिश सरकार ने हाजारीबाग जेल मे बंद कर दिया तब बहुरिया जी आंदोलन को गति देने के लिए हवेली कि देहरी लांघ आजादी की लड़ाई में कूद गई। आजादी के बाद पहले आम चुनाव में वीरांगना बहुरिया रामस्वरूपा देवी भारी मत से बिहार विधान सभा के लिए चुन ली गईं। 29 नवम्बर 1953 को बहुरिया जी का स्वर्गवास हो गया । मढ़ौरा गोरा हत्याकांड कर के ब्रितानिया सरकार को हिला देनेवाले अमर शहीद रामजीवन सिंह की याद में उच्च विद्यालय मढ़ौरा के पास शहीद स्मारक का निर्माण किया गया। उस स्मारक का उद्घाटन करते समय तत्कालीन मंत्री दारोगा प्रसाद राय ने कहा था कि रामजीवन कि शहादत से उपजे जनाक्रोश की गूंज लंदन के संसद तक में गूंजी थी। इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की यह घटना अंग्रेज सरकार के लिए कितना जबरदस्त रहा। अगस्त महीने में स्वतंत्रता के महापर्व पर हम बड़े-बड़े क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं लेकिन इतिहास के पन्नों में कहीं दब गए अनेक वीर सपूतों के नाम तक लोग भूल गए हैं, जरूरी है उन सब लोगों के नाम और उनके योगदान को नई पीढ़ी भी जाने और आगे बढ़ाए।
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