संथाल हूल : अंग्रेजों के खिलाफ पहली जन क्रांति-आँचलिक ख़बरें-प्रशांत सी बाजपेयी

Aanchalik Khabre
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तीस जून यानि आज ही के दिन को सिद्धू – कान्हू के आह्वान पर वर्तमान में झारखण्ड राज्य के संथाल परगना के संथाल और अन्य आदिवासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विरोध का शंखनाद किया था।
इस जन आंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव थे। सिद्धू-कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में वर्तमान साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी-’करो या मरो’, ‘अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो’। अपनी भूमि, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए हज़ारों आदिवासी अपने पारंपरिक हथियार तीर धनुष लेकर उन्नत हथियारों से लैस अंग्रेजों की क्रूर सेना से भीड़ गए। उनलोगों ने उस दिन ब्रिटिश हुकूमत के कार्यलयों में तोड़ फोड़ भी की।
कुछ ही दिनों तक चले इस संथाल हूल में लगभग 20 हज़ार आदिवासी शहीद हुए। दरअसल ये संथाल विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ पहली संगठित लड़ाई थी और भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम। इसी संथाल विद्रोह ने दो वर्ष बाद 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम की भी नींव डाली।
पहाड़ियों और जंगलों से घिरा संथाल परगना का इलाका उन दिनों बंगाल प्रेसिडेंसी के अधीन था। संथाल परगना के वनवासी शुरू से ही स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। उनके इस स्वभाव का जमींदारों – अंग्रेजों ने खूब फायदा उठाया। कंपनी ने अपना राजस्व बढ़ाने के लिए जमींदारों की फौज तैयार की जो पहाड़िया संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूल करने लगे। लगान चुकाने के लिए इन लोगों को बंगाली, बिहारी महाजनो से भारी सूद पर ऋण लेना पडता था। अंग्रेज – ज़मींदार और महाजनों का गँठजोड़ केवल इन्हें ठगता ही नहीं था बल्कि ऋण वसूली में क्रुरता व अन्याय करते थे। इन्हें कोई इंनसाफ नहीं मिलता था। फिर धीरे धीरे महाजनों ने इनकी ज़मीन भी हड़पनी शुरू कर दी। इससे इन लोगों में असंतोष की भावना मजबूत होती गई। संथाल विद्रोह इसी शोषण और अत्याचार की देन है।
इतिहासकारों का मानना है कि ये विद्रोह भले ही ‘संथाल हूल’ हो लेकिन दरअसल ये संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा अंग्रेजों एवं उनके सहयोगी शोषकों और उनके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को निर्दयतापूर्ण तरीके से कुचल दिया। सिद्धू और उसके चारों भाई पकड़े गए। सिद्धू को उसी साल अगस्त महीने में पंचकठिया में बरगद के पेड़ से लटककर फांसी दी गयी , पंचकठिया में वह पेड़ आज भी सिद्धू की बहादुरी की गवाही दे रहा है। सिद्धू के तीन भाइयों कान्हू, चांद और भैरव को भीनाडीह में फांसी दी गयी।
इतिहासकारों का मानना है कि सिद्धू और उसके चार चार भाइयों ने लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा (संथालों के देवता) जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं ने बताया है कि ‘जुमींदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन अमलो को गुजुकमा’ (जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश होगा)। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर तथा गांव-गांव तक पहुंचाया गया। लोगों ने साल की टहनी लेकर गांव-गांव यात्रा की।
संथाल परगना में 1855 में हुए विद्बोह को कार्ल मार्क्स ने भी अपनी पुस्तक ” नोट्स आफ इंडिया हिस्ट्री”में संथाल विद्रोह को जन क्रांति माना था।

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