-पूज्य प्रवर्तक जिनेंद्र मुनि जी म.सा.
आत्मोद्धार वर्षावास में दिनांक 18सितंबर को विराट धर्म सभा को संबोधित करते हुए पूज्य प्रवर्तक जिनेंद्र मुनिजी ने कहा कि आर्य सुधर्म स्वामीजी ने भगवान महावीर स्वामीजी की स्तुति, प्रशंसा की। भगवान के प्रति आकर्षण बढे, इस कारण भगवान के गुणों को उन्होंने जंबू स्वामीजी को बताया। भगवान सभी जीवो के दु:खो को जानने वाले थे, कर्मो को क्षय करने वाले थे। उपयोगवान थे । भगवान का यश दूर दूर तक फैला हुआ था । भगवान अपने केवल ज्ञान,दर्शन से ऊँची, नीची,तिरक्षी दिशा में जितने भी त्रस,स्थावर, प्राणीयो को जानते थे। केवल ज्ञान दुरबीन जैसा होता है, सब दिखाई देता है।, जीव,जीव ही रहता है, वह कभी नष्ट नहीं होता है, नित्य है। सभी अनंत जीव, उसी जीव के रूप में रहते है, कभी भी जीव का अभाव नहीं होता है। जीव कभी अजीव नहीं होता। पर्याय की अपेक्षा से जीव अनित्य है। जीव हमेशा एक ही पर्याय में नहीं रहता हे, बदलती रहती है। चारो गति में जीव की पर्याय बदलती रहती है। भगवान भूत भविष्य के पर्याय को जानने वाले थे। अनंत बार जीव ने , स्थावर, सुक्ष्म ,बादर, त्रस रूप में जन्म लिया। सुधर्म स्वामीजी के मुखार बिंद से भगवान के बारे में सुनकर जंबू स्वामी जी का भक्ति भाव जागृत हुआ। आपने आगे कहॉ कि भगवान दीप तथा द्वीप के बारे में जानते थे। दीप प्रकाश फैलाता हे, अंधकार दूर करता है। भगवान ने सम्यग उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया, जिसे जीव अच्छीं तरह समझ सकता है। भगवान के समीप जो भी आता है, उसके अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है।
भगवान द्वारा बताए गए धर्म को जानकर व्यक्ति भगवान जैसा बन जाता है। द्वीप समुद्र में होता है, पानी के उपर होता है, समुद्र मे डुबने वालो को बचाता है। जो भगवान द्वारा बताऍं धर्म को स्वीकार कर लेता है, वह संसार रूपी समुद्र में डुबता नहीं है। भगवान के धर्म पर विश्वा्स करे तो जीव की दुर्गती नहीं होती है। धर्म द्वीप के समान है। भगवान सर्व दर्शी थे। केवल ज्ञान होने से मति, श्रुत, अवधि, मनोपर्याय ज्ञान निवृत हो जाते है। भगवान केवल ज्ञान से संपन्न हुए थे। आपने आगे कहॉ कि भगवान छद्मस्थ थे, तब भी साधना करते हुए साढे बारह वर्ष तक की तपस्या में मात्र 349 दिन आहार ग्रहण किया। कठोर साधना की, साधु मर्यादा में रहते हुए, निर्दोष प्रासुक आहार ग्रहण किया। नियमों का बराबर पालन करते हुए दृढ रहे। मुलगुण, उत्तआर गुण के पालन में दृढ रहे। भगवान धैर्यवान थे, परिषह,उपसर्ग में निस्कमप थे, विचलित नहीं होते थे। चंडकौशिक भयंकर सर्प से भी डरे नहीं, संगम देव ने 6 माह तक कष्ट दिए,फिर भी उनके प्रति असमभाव नहीं रखे। भगवान धैयवान थे। भगवान ने ठंड गर्मी को भी सहन किया। हमारे उपर भी परिषह आए तो दृढ रहना चाहिए। परिषह सहन करने से महान कर्मो की निर्जरा होती है। साधक को भी सामान्य कष्ट आते है, विशेष कष्ट आने पर भी संयम, नियम में दृढ रहते है तो महान कर्मो की निर्जरा होती है।‘प्राण जाऍ पर प्रण नहीं जाए।‘’भगवान के समीपआने पर अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है।
-पूज्या जिनेन्द्र -प्रर्वतक मुनि जी म.सा.
आर्य सुधर्म स्वादमीजी ने भगवान महावीर स्वा.मीजी की स्तुकति, प्रशंसा की। भगवान के प्रति आकर्षण बढे, इस कारण भगवान के गुणों को उन्होंयने जंतु स्वापमीजीको बताया। भगवान सभी जीवो के दु:खो को जानने वाले थे, कर्मो को क्षय करने वाले थे। उपयोगवान थे जानते थे। भगावान अपने केवल ज्ञान,दर्शन से ऊँची, नीची,तिरक्षी दिशा में जितने भी त्रास,स्थाजवर, प्राणीयोको जानते थे। केवल ज्ञान दुरबीन जैसा होता है, सब दिखाई देता है, जीव,जीव ही रहता है, वह कभी नष्टक नहीं होता है, नित्यै है। सभी अनंतजीव, उसी जीव के रूप में रहते है, कभी भी अभाव नहीं होता है। जीव कभी अजीब नहीं होता। पर्याय की अपेक्षा से जीव अनित्यज है। जीव हमेशा पर्याय में नहीं रहताहे, बदलती रहती है। चारो गति में जीव बदलता रहता है। भगवान भूत भविष्य के पर्याय को जानने वाले थे। अनंत सार जीव ने पर्याय की, स्था वर, सुक्ष्म ,बादर त्रस रूप में जन्मक लिया। सुधर्म स्वा मीजी के मुखार बिंद से भगवान के बारे में सुनकरजंतु स्वाहमी के बारे में सुनकर जंतु स्वावमी जी का भक्ति भाव जागृत हुआ। आपने आगे कहॉ कि भगवान दीप तथा द्वीप के बारे में जानते थे। दीप प्रकाश फैलाता हे, अंधकार दूर करता है। भगवानने सम्यदग उत्त म धर्म का प्रतिपादन किया, जिसे जीव अच्छीं तरह समझ सकता है। भगवान के समीप जो भी आता है, अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है।
भगवान द्वारा बताए गए धर्म को जानकर व्य क्ति भगवान जैसा बन जाता है। द्वीपसमुद्र में होता है, पानी के उपर होता है, समुद्र मे डुबने वालो को बचाता है। जो भगवान द्वाराबताऍं धर्म को स्वी कार कर लेता है, वह संसार रूपी समुद्र में डुबता नहीं है। भगवान के धर्म पर श्रृद्धा पूर्वक विश्वा्स करे तो जीव की दुर्गती नहीं होती है। धर्म द्वीप के समान है। भगवान सर्व दर्शी थे। केवल ज्ञान होने से मति, श्रुत, अवधि, मनोपर्याय ज्ञान निवृत हो जाते है। भगवान चारो ज्ञानो को पराजीत कर केवल ज्ञान से सम्प्न्न हुए थे। आपने आगे कहॉ कि भगवान छद्मस्थ थे, तब भी साधना करते हुए साढे बारह वर्ष तक की तपस्याै में मात्र 349 दिन आहार ग्रहण किया। कठोर साधना की, साधु मर्यादा में रहते हुए, निर्दोष प्राक्षुक आहार ग्रहण किया। नियमों का बराबर पालन करतेहुए दृढ रहे। मुलगुण, उत्तदमगुण के पालन में दृढ रहे। भगवान धैर्यवान थे, परिषद,उपसर्ग में निस्कतम्मत थे, विचलित नहीं होते थे। चंडकौशिक भयंकरसर्पसे भी डेर नहीं, संगम देव ने 6 माह तक कष्टक दिए,फिर भी उनके प्रति असमभाव नहीं रखे। भगवानधैयवान थे। भगवान ने ठंड गर्मी को भी सहन किया। हमारे उपर भी परिषद आए तो दृढ रहना चाहिए। परिषद सहन करने से महान कर्मो की निर्जरा होती है। साधक को भी सामान्या कष्टए आते है, विशेष कष्टस आने पर भी सयम, नियम में दृढ रहते है तो महान कर्मो की निर्जरा होती है।‘प्राण जाऍ पर प्रण नहीं जाए।
कर्म का बीज राग द्वेष है । – पूज्य संयत मुनि जी म.सा.
धर्मसभा में अणु वत्स पूज्य संयत मुनि जी म.सा. ने कहा कि भगवान ने सारे बंधन तोडे तो वे धन्य हुए। जो त्याग करता है, बंधन छोडता है, वह धन्य होता है, जो बंधन पकड कर रहते है, वे धन्य नहीं होते है। आज व्यक्ति बंधन तोडने के प्रयास कम करता है, जोडता ज्यादा है। जब तक राग द्वेष के बंधन आत्मा में पडे है, तब तक धन्य नहीं हो सकता है। अपने भावो को धन्य होने के लिये कब मुर्त रूप दोगे? भगवान इस भव के पहले अधन्य थे, भगवान के भव में धन्य् हुए। वह दिन हमारा धन्य होगा, जिस दिन राग द्वेष के बंधन छूट जायेगे। जीव देव भव में धन्य नहीं हो सकता है, केवल मनुष्य भव में ही धन्य हो सकता हे।गृहस्थ संकल्प विकल्प के कारण जन्म मरण करता रहता है। राग प्रधान विचार संकल्प है, द्वेष प्रधान विचार विकल्प है, किसी ने तारीफ की तो राग मे समा गये। किसी ने बुराई की तो द्वेष भाव आ गए। द्रोपदी ने युधीष्ठर का अपमान किया तो युधीष्ठर को द्वेष आ गया। किसी के प्रति सुन्दर भाव हो तो राग। दानी हो तो राग। चोर डाकु हो तो द्वेष होता है। राग द्वेष दु:ख देता है। कर्म का बीज राग द्वेष है। बीज फल कर वटवृक्ष बनेगा। ईस बीज को समाप्त करे तो धन्य है, कोई अनुकूल चले तो राग प्रतिकूल चले तो द्वेष होता है। कर्म के कारण पूण्य पाप के उदय होते है। मदद करने वाले के प्रति राग, उधारी डूबे तो द्वेष होता है। संसार में राग द्वेष बढाने के निमित्त ज्यादा है, संयम में निमित्त कम बनते है। राग द्वेष के बंधन भव-भव तक चलते है। इनके छुटने से आत्मिक सुख मिलता है। जीव वस्तु से और व्यक्ति से बंधा हुआ है। आपको घर की याद आती है। साधु ने घर छोडा स्था्नक भवन भी छोडना पडता है। पर साधु उससे बंधा नहीं है। जीव शरीर से बंधा हुआ है। गर्मी, ठंडी, भूख प्यास लगती है तो पूर्ति करना पडती है। मोबाईल , खाने पीने की वस्तु से जीव बंधा हुआ है। बंधन को बंधन समझे तो तोडने का मन होगा। जीव को बाहर का बंधन पंसद नहीं है। बंधन से छूटे तो आत्मोद्धार होगा।
धर्मसभा में घोटी संघ के ईश्वर चोरडीया जी ने वर्ष 2023 के प्रवर्तक श्री जी के चार्तुमास की पूर जोर विनती की। सैलाना अणु बहु मण्डल द्वारा स्तवन की प्रस्तुती की गई। श्रीमती सीमा व्होरा के मास क्षमण तपस्या की बोली श्रीमती मंजू बाला रूनवाल रतलाम ने वर्षी तप एकासन से करने की बोली लेकर बहुमान किया। धर्म सभा में आज घोटी, सैलाना,अंजड, उन्हेल, जावरा, रतलाम, भोपाल,औरंगाबाद, थांदला, लीमडी से दर्शनार्थी दर्शन हेतु पधारे। दिनांक 19सितंबर से 21 सितम्बर तक तीन दिवसीय अणु स्मृति दिवस पर सभी को तीन एकासन का तेला तथा पांच-पांच सामायिक करने का आव्हान प्रवर्तक श्री जी ने किया। तपस्या के दौर में श्रीमती सीमा व्होरा का 31 उपवास का मास क्षमण पूर्ण हुआ। श्रीमती सीमा गांधी ने 26 उपवास के प्रत्या ख्या्न ग्रहण किए। संघ में सिद्ध भक्ति,तप वर्षीतप , तेला तथा आयम्बिल तप सतत चल रहे है। पूरे प्रवचन का लेखन सुभाषचन्द्र ललवानी द्वारा किया गया।सभा का संचालन केवल कटकानी द्वारा किया गया।
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