क्या राज्यपाल को विधेयकों को रोकने का अधिकार है? – सुप्रीम कोर्ट में बहस और इसका असर

Aanchalik Khabre
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supreme court of India

मामला क्या है?

देश के संवैधानिक ढांचे में राज्यपाल का पद बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन हाल के वर्षों में एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ है — क्या राज्यपाल को यह अधिकार है कि वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देर करें या उन्हें अनिश्चितकाल तक रोक कर रखें? यही मुद्दा इस समय सुप्रीम कोर्ट के सामने है, जहां इस पर गंभीर बहस चल रही है।

 सुप्रीम कोर्ट में क्या चल रहा है?

राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समय-सीमा बाध्य की जा सकती है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ में सुनवाई हो रही है, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस बी.आर. गवई कर रहे हैं।

बंगाल सरकार की दलीलें क्या हैं?

पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से सीनियर वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट में कुछ अहम बातें रखीं:

  1. राज्यपाल विधेयक की वैधानिकता या विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते। यह काम अदालतों का है।

  2. जैसे संसद जनता की इच्छा को दर्शाती है, वैसे ही राज्य विधानसभा भी संप्रभु है

  3. विधेयक को रोकना जनता की इच्छा को बाधित करना है।

  4. आज़ादी के बाद शायद ही कोई उदाहरण है जिसमें राष्ट्रपति ने संसद के कानून को जनता की इच्छा के कारण रोका हो।

  5. अगर कोई नागरिक किसी कानून को चुनौती देना चाहता है, तो वह अदालत जा सकता है, लेकिन राज्यपाल उसे रोक नहीं सकते।

राज्यपाल की भूमिका क्या होनी चाहिए?

राज्यपाल को संविधान में एक “संवैधानिक संरक्षक” की भूमिका दी गई है, न कि सुपर-लेजिस्लेटर (Super-Legislator) की।
राज्यपाल का काम यह देखना है कि सरकार संविधान के दायरे में काम कर रही है या नहीं, लेकिन वे यह तय नहीं कर सकते कि कोई विधेयक पारित हो या नहीं।

विधेयक में देरी से क्या नुकसान है?

जब कोई विधेयक विधानसभा में पास हो जाता है और वह महीनों तक राज्यपाल की मंजूरी के बिना अटका रहता है:

  1. जनता को उसका लाभ नहीं मिल पाता

  2. सरकार की योजनाएं लागू नहीं हो पातीं।

  3. लोकतंत्र का पूरा चक्र बाधित हो जाता है

इससे ना सिर्फ प्रशासनिक रुकावटें आती हैं, बल्कि जनता का विश्वास भी टूटता है।

केंद्र और भाजपा शासित राज्यों की दलीलें

कुछ भाजपा शासित राज्यों ने इस विचार का विरोध किया है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति पर कोई समय-सीमा लागू होनी चाहिए। उनका कहना है:

  1. राज्यपाल का निर्णय विवेकाधिकार (discretionary power) है।

  2. न्यायपालिका हर निर्णय का समाधान नहीं हो सकती।

  3. न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के दायरे में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट के सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बहुत गंभीर सवाल उठाए:

  1. अगर राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयक को रोकते हैं, तो क्या अदालत कुछ भी नहीं कर सकती?

  2. अगर राज्यपाल किसी धन विधेयक (Money Bill) को भी रोक दें, तो क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं होगा?

  3. क्या संवैधानिक पदाधिकारी के पास ऐसी असीम शक्ति होनी चाहिए?

यह मामला इतना जरूरी क्यों है?

इस मुद्दे के कई बड़े मायने हैं:

  1. संघवाद (Federalism) – राज्य और केंद्र के बीच संतुलन कितना सही है?

  2. जन प्रतिनिधित्व – क्या जनता द्वारा चुनी गई सरकार के फैसले राज्यपाल द्वारा रोके जा सकते हैं?

  3. लोकतंत्र की आत्मा – क्या लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि नहीं होनी चाहिए?

क्या यह एक राजनीतिक मुद्दा भी है?

जी हाँ। कई विपक्षी-शासित राज्यों जैसे बंगाल, तमिलनाडु और केरल में राज्यपाल और सरकारों के बीच टकराव की घटनाएं बढ़ी हैं। कई बार ऐसा लगता है कि राज्यपाल केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं, जिससे राज्य की स्वायत्तता पर सवाल उठते हैं।

संविधान क्या कहता है?

संविधान में यह साफ नहीं लिखा है कि राज्यपाल कितने समय में विधेयक को पास करना होगा।
लेकिन यह भी नहीं कहा गया है कि वह अनिश्चित काल तक उसे रोक सकते हैं। इसलिए ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है, ताकि इस ग्रे एरिया को स्पष्ट किया जा सके।

जनता के हक में फैसला ज़रूरी

यह मामला सिर्फ कानून या तकनीकी पहलू का नहीं है, बल्कि यह सीधे-सीधे जनता के अधिकार, चुनी हुई सरकार की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़ा है।

अगर सुप्रीम कोर्ट यह तय करता है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति को एक निश्चित समय में निर्णय देना होगा, तो यह लोकतंत्र को और मजबूत करेगा
अगर ऐसा नहीं होता, तो यह एक ऐसी रुकावट का रास्ता खोल देगा जहां केंद्र सरकारें राज्य की सरकारों को कमजोर करने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल कर सकती हैं।

इसलिए इस केस का फैसला यह तय करेगा कि क्या हमारा लोकतंत्र जनता के लिए और जनता के द्वारा है — या फिर केवल संवैधानिक औपचारिकताओं तक सीमित रह गया है।

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