भुखमरी बेरोज़गारी और पलायन के साथ राजनीति ,चुनाव का दंश झेल रहा पश्चिम बंगाल

Aanchalik Khabre
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आँचलिक ख़बरें-संतोष कुमार

विधानसभा चुनाव की वजह से ऐतिहासिक रूप से समृद्ध पश्चिम बंगाल की चर्चा पूरे देश में हो रही है. कभी आजादी के आंदोलन में अग्रणी रहे बंगाल की एक अलग सांस्कृतिक पहचान है. स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, बंकिम चंद्र चटर्जी, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, रविंद्रनाथ टैगोर के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला बंगाल कभी भारत में पुनर्जागरण के केंद्र के रूप में जाना जाता था.

हिंदुस्तान में पश्चिम बंगाल आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से समृद्ध राज्य माना जाता था. चाहे व्यवसाय हो, शिक्षा हो, रोजगार हो या फिर साहित्य या संस्कृति, हर क्षेत्र में बंगाल अन्य राज्यों की तुलना में अग्रणी रहा है. लेकिन समय के अंतराल के साथ-साथ प० बंगाल अपना अस्तित्व खोता रहा, और आज बंगाल की गिनती एक आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य के रूप में की जाती है. बंगाल के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पतन की मुख्य वजह बंगाल की सियासी सोंच रही है. राजनीतिक विचारधारा में लगातार प्रयोग और बदलावों के बीच आर्थिक पिछड़ापन भी बंगाल की हमेशा नियति बनी रही. सियासी हिंसा, आर्थिक पिछड़ेपन, बड़ी आबादी, पलायन के बढ़ते बोझ जैसी कई समस्याओं ने बंगाल को खोखला कर दिया.

आज़ादी के बाद 1950 से 1962 तक इंडियन नेशनल कांग्रेस बंगाल की सत्ता पर आसीन रही. फिर 1962 से 1977 तक बंगाल कांग्रेस, इंडियन नेशनल कांग्रेस व निर्दलीय पार्टियों ने समय समय पर बंगाल की सत्ता संभाली. इस समय तक बंगाल की स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी. बंगाल की जनता को एक बदलाव चाहिए था. 1977 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्कशवादी) ने वहां की जनता को बदलाव की उम्मीद दी व 1977 में पहली बार बंगाल की सत्ता में कम्युनिस्ट ने अपना हक़ जमा लिया. कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं को बंगाल की कमजोरी पता थी. उन्होंने गरीबी, मजदूरों व किसानो के मुद्दों को खूब भुनाया और अपनी राजनिति चमकाई. भाकपा ने इस मुद्दे को अपना अहम् हथियार बना कर 1977 से 2011 तक बंगाल की सत्ता को अपने कब्जे में रखा. लेकिन एक लम्बे समय से सत्ता हाथ में होने के बाद भी माकपा ने बंगाल की आर्थिक स्थिति की मजबूती के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया था.

बंगाल के पतन का मुख्य कारण :- राज्य की आय का प्रमुख खेती रही है. 1943 के अकाल ने बंगाल को पूरी तरह तोड़ दिया था. इसी बीच प्रगतिशील राजनीति वैश्विक धारा के रूप में उभरी, पर इससे बंगाल में मूलभूत विकृतियां पैदा हो गईं. जिसमे सबसे पहले, पूंजीवाद को लेकर अंतरजात अविश्वास के कारण बंगाली बुद्धिजीवियों ने खुद को संपदा निर्माण की प्रक्रिया से काट लिया. उनका मानना था की परम्परावादी श्रोत ही विकास के बेहतर विकल्प हैं. 1950 के बाद बंगाली बुद्धिजीवी व राज्य की जनता धीरे-धीरे दूसरे पक्ष की तरफ मुड़ गई. जहाँ समाजवाद को पसंदीदा विकल्प के रूप में पेश किया गया, जबकि वास्तविकता इसके उलट थी.

विचारधारा की लड़ाई में पिसता रहा बंगाल : 1967 तक कांग्रेस के जनाधार में सेंध लगने के बाद बंगाल में समाजवाद या मा‌र्क्सवाद की बहस छिड़ गई थी. वाम वर्चस्व ने विकास में बाधाएं खड़ी कर दीं और बौद्धिक रूढि़वाद को पनपाने में योगदान दिया. 1971 और 1977 में कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले सिद्धार्थ शंकर रॉय ने प्रगतिशीलता के दिखावे के दम पर माकपा और नक्सलवादियों को किनारे करने का प्रयास किया. जहाँ एक ओर राज्य में गरीबी और भुखमरी बढ़ती जा रही थी, वहीँ दूसरी ओर सियासी दल अपनी विचारधारा और सियासी फायदे को अधिक महत्व दे रहे थे.

नए उद्योगों और बाजारवाद की अनदेखी : बंगाल के सियासी दलों के नेताओं का मानना था की, कोल माइनिंग, खेती, बिजली उत्पादन जैसे परंपरागत आय के श्रोत राज्य की अर्तव्यवस्था को पटरी पर लाने में सक्षम है. लेकिन यह एक बड़ी भूल साबित हुई. विदित रहे की वाम गढ़ का घटनाक्रम देश में अर्थव्यवस्था के विकास के साथ हुआ. एक ओर भारत के अन्य राज्य नए उद्योगों, प्रयोगो, अविष्कारों की ओर अग्रसर था, और दूसरी ओर बंगाल में सियासी विचारधारा और वर्चस्व की लड़ाई में उलझा था. इससे यह हुआ की भारत के अन्य राज्यों ने बाजारोन्मुख नीतियों द्वारा दिए गए नए अवसरों को लपक लिया, वहीं बंगाल सशक्तीकरण के अपने मॉडल पर ही आत्ममुग्ध होता रहा.

उद्योगों का बंद होना व कंपनियों का पलायन : वाम विचारधारा मजदूरों और गरीबी के “हक़ के बात” की राजनिति करती है. कम्युनिस्ट पार्टी की यह सियासी विचारधारा बंगाल के पतन का बड़ा कारण है. किसानो, गरीबो और मजदूरों के हक़ की बात करना गलत नहीं है. लेकिन सिर्फ हक़ की बात करने से स्थिति नहीं सुधरती. वामदल ने बंगाल में स्थित उद्योगों को जरुरी सुविधाएँ नहीं दी. अगर कम्युनिस्ट पार्टी वाकई गरीबी को मिटाना चाहती तो उद्योगों को बढ़ावा देती और निवेश के नए रास्ते खोलती जिससे की राज्य में “कर” व “रोजगार” के नए अवसर खुलते. लेकिन वामदल ने उद्योगपतियों पर नकेल कसना शुरू किया और अनावश्यक आंदोलन और हड़तालों को बढ़ावा दिया. फलस्वरूप टाटा समेत अन्य कई बड़े उद्योगपतियों ने बंगाल छोड़ कर गुजरात व अन्य राज्यों में अपने उद्योग स्थापित कर लिया. उद्योगों के पलायन से बंगाल में बेरोगारी और गरीब में काफी इजाफा हुआ. वाम मोर्चे का यह मानना कि ग्रामीण समाज का सशक्तीकरण औद्योगिकीकरण की नई लहर पैदा कर देगा, बिल्कुल लचर साबित हुआ. बंगाल में निवेश का माहौल न होने के कारण यह विकास की दौड़ में पिछड़ता चला गया. सबसे ज्यादा हैरान वाली बात यह है कि बंगाल के आर्थिक पतन का लंबे समय तक संज्ञान नहीं लिया गया. गरीबी बढ़ती जा रही थी. बंगालवासी अन्य राज्यों में पलायन करने को मजबूर थे. राज्य के लोग माकपा की नीतियों से तंग आ चुके थे. फलस्वरूप बंगाल की राजनिति में एक ऐतिहासिक बदलाव के साथ तृणमूल कांग्रेस ने माकपा को करारी हार दी.

नंदीग्राम ने बनाया ममता को बंगाल का नायक : साल 2007 में शुरू हुए उग्र जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में ममता ने अपना सियासी दाव खेला. विदित रहे की तत्कालीन सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल की लेफ्ट सरकार ने ‘स्पेशल इकनॉमिक जोन’ नीति के तहत नंदीग्राम में एक केमिकल हब की स्थापना करने की अनुमति प्रदान करने का फैसला किया था. राज्य सरकार की योजना को लेकर उठे विवाद के कारण विपक्ष की पार्टियों ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आवाज उठाई. टीएमसी, SUCI,जमात उलेमा-ए-हिंद और कांग्रेस के सहयोग से भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी (BUPC) का गठन किया गया और सरकार के फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया. ममता बनर्जी के नेतृत्व में कई लेखकों, कलाकारों, कवियों और शिक्षा-शास्त्रियों ने पुलिस फायरिंग का कड़ा विरोध किया, जिससे परिस्थिति पर अन्य देशों का ध्यान आकर्षित हुआ. फलस्वरूप इस आंदोलन के दौरान वामपंथी सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा, लेकिन इस आंदोलन का राजनीति पर असर पड़ा और ममता बनर्जी जनमानस में अपनी छवि बनाने में सफल रही और इसका परिणाम हुआ कि साल 2011 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट की 34 वर्षों के शासन को समाप्त करके राज्य में मां, माटी, मानुष की सरकार की स्थापना की.

ममता बनर्जी बंगाल की मुख्यमंत्री बनी. लोगो को ममता से काफी उम्मीदे थी. लेकिन बंगाल की जनता को सिवाय निराशा के और कुछ नहीं मिला. 2011 से वर्तमान समय तक तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सत्ता पर काबिज है. पिछले दस वर्षो में बंगाल में न तो रोजगार का कोई ठोस विकल्प निकल सका है और न गरीबी में कोई कमी आयी है. विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आते ही तमाम सियासी दलों को अब बंगाल की दशा-दुर्दशा दिखने लगी है. आइये डालते है एक नजर बंगाल की वर्तमान स्थिति पर.

वर्तमान के आंकड़ों के अनुसार करीब 9 करोड़ की आबादी वाला पश्चिम बंगाल देश के सबसे ज्यादा घनी आबादी वाले राज्यों में से एक है तो क्षेत्रफल के हिसाब से देश में इसका स्थान 14वां है. बांग्लादेश, नेपाल और भूटान तीन देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बंगाल से लगती हैं. तो वहीं भारतीय राज्यों में बिहार, झारखंड, सिक्किम, असम और ओडिशा की सीमाएं लगती हैं. राज्य में गंगा के बेसिन के इलाके हैं तो दार्जीलिंग जैसे पहाड़ी इलाके और सुंदरवन के डेल्टा इलाके भी हैं. राज्य में जल संसाधन से समृद्ध नदियां हैं तो समंदर के किनारों और बंदरगाहों के करीब व्यापार के बड़े केंद्र भी हैं.

बंगाल की आबादी में हिन्दुओं का 70 फ़ीसदी , 27 फ़ीसदी मुस्लिमो का एवं अन्य संप्रदाय का 3 फ़ीसदी योगदान है. आर्थिक स्थिति के हिसाब से बंगाल देश में छठे पायदान पर है. वहीँ शिक्षा दर 77 प्रतिशत है. और बेरोजगारी दर 6.5 प्रतिशत. विदित रहे की बंगाल राज्य पर चार लाख करोड़ रूपए का कर्ज भी है. वहीँ नाबार्ड ने दावा किया है कि पश्चिम बंगाल के 20 प्रतिशत लोग अब भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं. यहां लोगों के पास औसतन 0.77 हेक्टेयर जमीन है. यहाँ एक बात जान कर आपको हैरानी होगी कि बंगाल देश के उन छह राज्यों में से एक है जो भारत के आर्थिक उत्पादन में आधा योगदान देते हैं. लेकिन फिर भी बंगाल कि आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है. लोग पलायन को मजबूर है. बंगाल कि इस खस्ताहाल स्थिति की प्रमुख वजह वहां सत्तासीन रहे राजनितिक दलों का स्वार्थ है. चाहे यूपीए हो, बंगाल कांग्रेस हो, निर्दलीय सत्ताधारी हों या की दशकों शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी, बंगाल की वर्तमान स्थिति देख कर तो यही लगता है की इन दलों ने सिर्फ अपनी झोली भरी है.

तृणमूल कांग्रेस के पिछले दस वर्षो में कितना बना या बिगड़ा बंगाल: एक बार फिर बंगाल चुनावी मैदान बना हुआ है. सियासी पहलवान अपने दावपेंच लगा रहे है. दीदी की सरकार का द्वितीय कार्यकाल समाप्त होने वाला है. आइये डालते है ममता बनर्जी के पिछले दस वर्ष के कार्यकाल पर एक नजर.

विकास व रोजगार : ममता बनर्जी हमेशा यह कहते हुए नजर आती है की बंगाल विकास के मामले में अन्य राज्यों से बहुत आगे है. लेकिन जमीनी हकीकत इसके बिलकुल उलट है. राज्य में बेरोजारी का स्तर बढ़ा है. विकास के मामले में भी बंगाल अन्य राज्यों की तुलना में सबसे पीछे है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की एक रिपोर्ट के अनुसार बंगाल में बेरोजगारी दर बढ़कर 6.8 प्रतिशत हो गयी है. पश्चिम बंगाल राज्य के लोगो को रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है.

अपराध के मामलो में हुई बढ़ोत्तरी : बंगाल में गुटबाजी, संप्रदाय विशेष व राजनितिक गतिविधियों से प्रभावित अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई है. एनसीआरबी के 2018 के रिकॉर्ड के अनुसार ममता बनर्जी के पहले व दूसरे कार्यकाल के पांच वर्षों में अपराधों की संख्या 19,682 थी.

वहीँ चोट कारित करने वाले अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. कोलकाता में 6,439 चोट कारित करने वाले मामले दर्ज हुए है. एनसीआरबी की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के प्रति अपराध के 14.50 लाख लंबित मामलों में 20 प्रतिशत से अधिक 2.56 लाख मामले अकेले प.बंगाल के हैं.

महिलाओं के विरुद्ध एसिड अटैक के मामलों में भी कोलकाता देश में तीसरे स्थान पर है. बताते चलें की 2014-2018 के बीच पश्चिम बंगाल में महिलाओं के विरुद्ध 165641 अपराधी मामले हुए हैं.

यदि तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी की बात करें तो 2014 से ही टीएमसी के कार्यकर्ता गुंडागर्दी पर आमादा थे. ज्ञात हो की जुलाई 2014 में सैकड़ों टीएमसी कार्यकर्ताओं ने पुलिस चौकी में हमला कर तोड़ फोड़ की थी. तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी के खिलाफ आये दिन मामले दर्ज होते है, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जाती. बताते चले की बीजेपी ने भी टीएमसी के ख़िलाफ़ हज़ार से ज़्यादा मामले दर्ज करवाए हैं.

टीएमसी में है 68 दागी विधायक: टीएमसी के अधिकांश विधायक दागी छवि के हैं, जिनमे से कइयों पर आपराधिक मामले दर्ज व विचाराधीन हैं. एडीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार , पश्चिम बंगाल के 282 विधायकों में से 37 प्रतिशत यानी कुल 104 विधायक दागी हैं. कुल 90 विधायकों ने खुद पर गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जबकि सात विधायकों ने हत्या से संबंधित मामले दर्ज होने की जानकारी दी है. इसके अलावा 24 एमएलए पर हत्या के प्रयास के मामले दर्ज हैं. बता दें कि तृणमूल कांग्रेस के 205 में से 68 विधायक दागी हैं.

ममता बनर्जी पर भृष्टाचार के आरोप : ममता बनर्जी पर भृष्टाचार सम्बन्धी आरोपों की एक लम्बी फेहरिस्त है. ममता बनर्जी पर करोड़ों रुपये के शारदा चिट फंड घोटाले में संलिप्त होने के आरोप लग चुके हैं. बता दे की ममता बनर्जी के करीबी अधिकारी और कोलकाता के पूर्व पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार से चिटफंड घोटाले में सीबीआई पूछताछ कर चुकी हैं. ममता बनर्जी शुरू से ही राजीव कुमार का बचाव करती रही हैं. सबसे दिलचस्प बात तो यह है की ममता बनर्जी ने सबको हैरान करने वाला कदम उठाते हुए शारदा चिटफंड घोटाले के आरोपी कुणाल घोष को पार्टी का प्रवक्ता बनाया था.

केंद्र सरकार विरोधी नीतियां : टीएमसी हमेशा से ही केंद्र सरकार विरोधी रही है. ममता बनर्जी ने केंद्र की भाजपा सरकार की खिलाफत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. ज्ञात हो की एनआरसी व सीएए मामले पर ममता ने कहा था की केंद्र कुछ भी कर ले, हम बंगाल में एनआरसी व सीएए लागू नहीं होने देंगे.

रोहंगिया के शरणार्थी और मुस्लिम वोटबैंक : बंगाल में ममता बनर्जी की जीत की प्रमुख वजह मुस्लिम वोट बैंक भी है. ममता बनर्जी के द्वारा सीएए एनआरसी के विरोध के पीछे की एक वजह उनका रोहंगिया मुस्लिमो के प्रति झुकाव भी था. विदित हो की बंगाल में असंवैधानिक रूप से रोहंगिया मुस्लिम रहते हैं. इतना ही नहीं बल्कि गैरकानूनी तरीके से रोहंगियां मुस्लिमो को भारतीय वोटर कार्ड जारी करने की बात भी मीडिया रिपोर्ट्स में आयी थी. बंगाल के हिन्दुओं पर रोहंगिया मुस्लिमो के द्वारा कई बार आपराधिक वारदातों को भी अंजाम दिया गया. फलस्वरूप बंगाल का सामाजिक सौहार्द्य भी बिगाड़ा है.

अल्पसंख्यकों व मुस्लिमो के प्रति विशेष रुझान : ममता बनर्जी पर संप्रदाय विशेष के प्रति झुकाव का आरोप लगता रहा है. भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने कहा था कि तृणमूल कांग्रेस सरकार की नीतियां ‘‘हिन्दू विरोधी’’ मानसिकता और ‘‘तुष्टीकरण’’ की राजनीति से प्रेरित हैं. उन्होंने दावा किया कि राज्य सरकार लोगों को केन्द्र की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित कर रही है.

आज़ादी के पूर्व से ही बंगाल एक व्यावसायिक केंद्र के रूप में जाना जाता रहा है. एक समय था जब कोलकाता देश की राजधानी हुआ करती है. कोलकाता को सिटी ऑफ़ जॉय (आनंद का शहर) कहा जाता था. सांस्कृतिक और पर्यटन के लिहाज से भी बंगाल एक महत्वपूर्ण राज्य है.

लेकिन सियासी दलों के स्वार्थ की मंशा ने बंगाल को आर्थिक रूप से खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बंगाल की फैक्ट्रियां व मिलें तंगी और कर्ज के बोझ से बंद हो चुकी है. कोल माइनिंग बंगाल की गरीब जनता के लिए आमदनी का प्रमुख श्रोत हुआ करता था लेकिन लगातार घोटाले और स्मगलिंग की वजह से अधिकांश कोल माइंस बंद हो चुकी हैं. आज बंगाल अपनी पहचान खो चुका है. एक बार फिर बंगाल की जनता के पास अपना प्रतिनिधि चुनने का अवसर है. अब यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि बंगाल की जनता खोखले दावों और वादों के झांसे में आती है या विकास के लिए कोई बेहतर विकल्प चुनती है…!

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