हर अलीग पर सर सैयद रह० का ये कर्ज़ है कि वो क़ौम की जहालत दूर करने के लिए तालीम का काम करे’ – कलीमुल हफ़ीज़-आँचलिक ख़बरें-एसजेड मलिक

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*अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को क़ायम हुए एक सदी हो चुकी है। हम जानते हैं कि 1875 में मुहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल (एम ए ओ) कॉलेज एक स्कूल की शक्ल में शुरू हुआ। 1877 में इसे कॉलेज का दर्जा हासिल हुआ। 1898 में सर सय्यद रह० इस दुनिया से चल बसे। 1920 में कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा हासिल हुआ। ये वक़्त जहाँ एक तरफ़ अल्लाह का शुक्र अदा करने का है कि उसने सैंकड़ों उतार-चढ़ाव के बाद भी यूनिवर्सिटी की आबरू को बचाए रखा है। वहीं इस पहलू से सोच-विचार करने की ज़रूरत है कि पिछले सौ साल में मुसलमानों के उतार-चढ़ाव और उरूजो-ज़वाल (उत्थान और पतन) में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का क्या रोल रहा है?

*यूनिवर्सिटी के सौ साल पूरे होने के मौक़े पर ये भी देखा जाना चाहिये कि सौ साल में हमने कितने सर सय्यद रह० पैदा किये और कितनी यूनिवर्सिटियाँ क़ायम की हैं? मैं यह बात पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि हम सौ साल में एक भी सर सय्यद रह० पैदा नहीं कर सके। हाँ, इस बात पर शुक्र अदा किया जा सकता है कि इस दौरान सर सय्यद रह० के नक़्शे-क़दम पर चलने वाले कुछ दीवानों ने ज़रूर जन्म लिया, जिन्होंने सर सय्यद रह० की तरह मुख़ालिफ़तों के तूफ़ान तो बर्दाश्त नहीं किये लेकिन इस तूफ़ान की कुछ सरफिरी हवाएँ उनसे भी उलझ कर गुज़री हैं। इस मौक़े पर इस पहलू से भी विचार करने की ज़रूरत है कि यूनिवर्सिटी के पास-आउट लोगों ने सर सय्यद रह० के मिशन को कितना आगे बढ़ाया है?
*इसमें कोई शक नहीं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हिन्दुस्तानी मुसलमानों की तालीम के सिलसिले में रीढ़ की हड्डी की हैसियत रखती है। मुल्क की तामीर व तरक़्क़ी में इसके किरदार को भुलाया नहीं जा सकता। सर सय्यद रह० अगर न होते या उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी न क़ायम की होती तो मिल्लत की तालीमी सूरते-हाल कितनी ना-क़ाबिले-बयान होती, इसका सिर्फ़ अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है। सर सय्यद रह० ने जो कारनामा अंजाम दिया उसको एक पलड़े में रखिये और उनके ज़माने की जो दूसरी शख़्सियतें हैं उनके कारनामों को दूसरे पलड़े में रखिये, मैं यक़ीन से कह सकता हूँ कि सर सय्यद रह० के कारनामों का पलड़ा झुक जाएगा।

*इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। इसका मक़सद किसी की अहमियत को कम करना नहीं है बल्कि मेरा मक़सद आज क़ौम के फ़िक्रमन्द लोगों को इस तरफ़ तवज्जोह दिलाना है कि अगर वो किसी ऐसे नुक़सान से बचना चाहते हैं जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती हो और अनगिनत फ़ायदे चाहते हैं तो वह काम करने होंगे जो सर सय्यद रह० ने किये थे। आज सर सय्यद रह० के चमन के फूल दुनिया में चारों तरफ़ अपनी ख़ुश्बू बिखेर रहे हैं, हज़ारों इंस्टीट्यूट्स के नाम उनके नाम पर हैं। देश की कई जगहों पर यूनिवर्सिटी के कैम्पसेज़ हैं। लाखों नौजवान सर सय्यद रह० के इल्म के दरिया से अपनी प्यास बुझा रहे हैं।

*सर सय्यद रह० यह समझते थे कि मॉडर्न एजुकेशन के बग़ैर मुसलमानों का ज़िन्दगी और समाज के बड़े हिस्से से रिश्ता ख़त्म हो जाएगा। और वे दूसरी क़ौमों से, ख़ास तौर पर अपने मुल्क की दूसरी क़ौमों से बहुत पीछे रह जाएँगे। वे मॉडर्न एजुकेशन के विरोध को आत्म-हत्या मानते थे। सर सय्यद रह० की इच्छा थी कि एक ऐसी मुस्लिम नस्ल तैयार होनी चाहिये जिसके एक हाथ में क़ुरआन हो और दूसरे हाथ में साइंस। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी सर सय्यद रह० की इच्छाओं का प्रैक्टिकल मॉडल और उनके सपनों का साकार रूप है।

*आज हिन्दुस्तान के मुसलमान जिन मुश्किलों से गुज़र रहे हैं वो उन मुश्किलों से बहुत कम हैं जो सर सय्यद रह० के दौर में मुसलमानों के सामने थीं। उस वक़्त मुसलमान हुकूमत खो रहे थे। पूरा देश जंग की हालत में था। इन्सानों की जान पर बनी थी। नए हुक्मरानों के ज़ुल्म अपनी चरम सीमा पर थे। आज के हालात इतने संगीन नहीं हैं। आज हमारी तादाद भी ज़्यादा है, आज हमारे पास दौलत भी ख़ूब है, आज हमारे पास संविधान भी है। आज अगर कुछ इज़्ज़त और सम्मान है तो उसी काम की वजह से है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इल्म के जो चिराग़ रौशन हुए हैं उनका उजाला आसमान तक फैला हुआ है।

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