Mahakumbh 2025 | आस्था का संगम या राजनीति की नई धारा? | Political Analysis

News Desk
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महाकुंभ 2025: आस्था का संगम या राजनीति की नई धारा?
66 करोड़ श्रद्धालुओं की डुबकी—क्या 2029 का चुनाव संगम तट से तय होगा?
महाकुंभ से सत्ता परिवर्तन तक: क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?
हिंदू वोटों की एकजुटता का केंद्र बनेगा कुंभ 2025?
‘मृत्युकुंभ’ से ‘हिंदू एकता’ तक—बंगाल में क्यों गरमाई राजनीति?
जब-जब कुंभ, तब-तब सियासी भूचाल—क्या 2029 में भी यही होगा?

महाकुंभ 2025: आस्था की डुबकी या सत्ता का शंखनाद?

संगम तट की रेत अभी भी करोड़ों कदमों की आहट संजोए हुए थी। घंटों और शंखों की गूंज मंद पड़ चुकी थी, लेकिन इसकी प्रतिध्वनि राजनीति के गलियारों में अब भी सुनाई दे रही थी। 45 दिनों तक गंगा में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालु लौट चुके थे, साधुओं की धूनी ठंडी पड़ चुकी थी, और तंबू उखड़ चुके थे। लेकिन कुंभ केवल जल में डुबकी लगाने का पर्व नहीं था।

सियासत ने इसे कभी आस्था का संगम कहा, तो कभी हिंदू एकता का केंद्र। लेकिन असल सवाल अब खड़ा था—क्या यह आयोजन आध्यात्मिक शुद्धिकरण था या फिर यहाँ से राजनीतिक रणनीति का नया समीकरण शुरू हो रहा है? क्या संगम में बहा यह जल भारत की राजनीति की नई दिशा तय करेगा?

राजनीतिक गलियारों में हलचल थी। दिल्ली से पटना, लखनऊ से कोलकाता तक, सभी की निगाहें प्रयागराज पर टिकी थीं। महाकुंभ केवल आस्था का पर्व नहीं रह गया था—यह चुनावी रणनीतियों का अखाड़ा बन चुका था। इतिहास गवाह था कि जब-जब कुंभ का आयोजन हुआ, तब-तब भारतीय राजनीति में भूचाल आया। अब सवाल था—क्या 2025 से 2029 तक भारत की राजनीति का भविष्य भी इसी संगम तट पर लिखा जा रहा है?gsdgsg

महाकुंभ और राजनीति: एक अदृश्य गठबंधन

पिछली बार जब कुंभ के पावन जल में आस्था की डुबकी लगी थी, तब परिणाम ऐतिहासिक निकले थे। 2013 के प्रयागराज कुंभ में संतों ने नरेंद्र मोदी के नाम का समर्थन किया था, और 2014 में वह प्रधानमंत्री बने। 2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने संगम में स्नान किया और चुनाव में प्रचंड जीत दर्ज की। इससे पहले 1989 में जब संतों ने अयोध्या में राम मंदिर शिलान्यास की घोषणा की थी, तो देश की राजनीति एक नए मोड़ पर पहुंच गई थी।

अब 2025 में कुंभ एक बार फिर भारत की सियासत को दिशा देने वाला था।

इस बार महाकुंभ ने इतिहास रच दिया था—45 दिनों में 66 करोड़ 30 लाख लोगों ने संगम में स्नान किया। यह आंकड़ा चौंकाने वाला था, क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में कुल 64 करोड़ 40 लाख लोगों ने मतदान किया था। यानी इस महाकुंभ में स्नान करने वालों की संख्या मतदान करने वालों से भी अधिक थी!

इससे बड़ा राजनीतिक संकेत और क्या हो सकता था?

बंगाल तक पहुंची कुंभ की लहरें

राजनीतिक रणनीतिकारों ने इसे समझने में देर नहीं लगाई। पश्चिम बंगाल, जहां गंगा अपने अंतिम पड़ाव गंगा सागर में मिलती है, वहां संगम का जल कलश में भरकर ले जाया जाने लगा। बीजेपी नेताओं ने इसे कोलकाता के पार्टी कार्यालय में शुद्धिकरण के लिए रखा। लेकिन यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं था—यह एक बड़ा सियासी संकेत था।

पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जब महाकुंभ को ‘मृत्युकुंभ’ कहा, तो राजनीति और भी गर्मा गई। बीजेपी ने इसे हिंदू आस्था का अपमान बताया और बंगाल में हिंदुत्व की राजनीति को और तेज़ कर दिया।

ममता बनर्जी की बेचैनी बढ़ गई थी। पश्चिम बंगाल में 2026 में चुनाव होने थे, लेकिन बीजेपी ने कुंभ के जल को हिंदू वोटों की एकता के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने का इशारा दे दिया था।gdsgh

क्या कुंभ से बनेगी हिंदू वोटों की एकजुटता?

2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में बीजेपी को 57% हिंदू वोट मिले थे, जबकि ममता को 70% मुस्लिम वोट। 2024 में ममता ने वापसी की और 42 में से 29 सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन बीजेपी को 6 सीटों का नुकसान हुआ।

अब सबसे बड़ा सवाल था—क्या महाकुंभ का हिंदू एकता संदेश 2026 के चुनाव में नया मोड़ ला सकता है?

ममता बनर्जी को यह अच्छी तरह समझ आ रहा था कि महाकुंभ केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन भी बन सकता है। यही कारण था कि उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा—”चिंता मत करो, खेला होगा!”

लेकिन क्या यह खेला वाकई उनके पक्ष में होगा?

1977 से 2024 तक: जब-जब कुंभ, तब-तब सत्ता परिवर्तन

महाकुंभ हमेशा से सत्ता परिवर्तन का संकेत देता आया है।

1977: इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी कुंभ में संतों के विरोध का सामना कर चुकी थीं। नतीजा—कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
– 1989: कुंभ में राम मंदिर शिलान्यास की घोषणा हुई, और कुछ महीनों बाद देश में मंदिर आंदोलन तेज़ हो गया।
– 2001: सोनिया गांधी ने कुंभ स्नान किया। उसके तीन साल बाद यूपीए की सरकार बनी।
– 2013: नरेंद्र मोदी के नाम का समर्थन संतों की धर्म संसद में हुआ, और 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ।
– 2019: प्रधानमंत्री मोदी ने संगम स्नान किया, और चुनाव में प्रचंड जीत मिली।

अब 2025 में कुंभ का महापर्व फिर से हुआ है। सवाल उठता है—क्या यह 2029 के चुनावों तक कोई बड़ा असर डालने वाला है?

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ बनाम ‘एक हैं तो सेफ हैं’

2014 से 2019 तक हिंदू वोट बैंक बीजेपी के साथ था, लेकिन 2024 में इसमें दरार दिखी। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक में बीजेपी को झटका लगा। यही कारण था कि 2024 में बीजेपी अकेले बहुमत नहीं पा सकी।

अब बीजेपी को 2029 के लिए हिंदू वोटों की एकता फिर से बनानी होगी। क्या कुंभ इस एकता का मंच बनेगा?

2014 में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ हैं’ जैसे नारे चुनावी मंचों पर गूंजते थे। लेकिन 2024 में यह नारे उतनी जोर से नहीं लगे। क्या अब बीजेपी इन्हें फिर से जिंदा करेगी?

2029 का गणित: कुंभ से नई राजनीति का जन्म?

2024 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम वोट 90% से ज्यादा विपक्षी दलों के साथ था। यूपी, बिहार, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में मुस्लिम वोट कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के पक्ष में गया।

लेकिन हिंदू वोट बंट गया था।

बीजेपी को यह अच्छी तरह पता है कि हिंदू वोटों के संगम के बिना सत्ता में लौटना मुश्किल होगा। यही वजह है कि कुंभ को केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि हिंदू वोटों की एकजुटता का केंद्र बनाने की रणनीति तैयार की जा रही है।

महाकुंभ से निकलेगा 2029 का भविष्य?

महाकुंभ सदियों से केवल आस्था और अध्यात्म का केंद्र नहीं, बल्कि भारत की राजनीति को नई दिशा देने वाला मंच भी रहा है। इतिहास गवाह है कि जब-जब कुंभ मेला अपने शिखर पर पहुंचा, तब-तब देश की राजनीति में बदलाव की बयार चली। 2025 का कुंभ भी इससे अलग नहीं है।
66 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं की संगम में डुबकी केवल धार्मिक आस्था का प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संकेत भी है। जिस तरह यह आयोजन 2029 के लोकसभा चुनावों से पहले आया है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका असर देश की राजनीति पर गहरा होगा।Maha Kumbh

बीजेपी के लिए यह हिंदू एकता को पुनः संगठित करने का अवसर है, वहीं विपक्ष के लिए यह चुनावी ध्रुवीकरण का खतरा। पश्चिम बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश तक, कुंभ की लहरें न सिर्फ गंगा के जल में, बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी उठ रही हैं।
क्या यह कुंभ बीजेपी के लिए सत्ता की सीढ़ी बनेगा? क्या विपक्ष इसके प्रभाव को कम कर पाएगा? या फिर यह आयोजन भारतीय राजनीति की नई इबारत लिखेगा?

अगले कुछ वर्षों में जवाब मिल जाएगा, लेकिन इतना तय है—महाकुंभ 2025 सिर्फ आस्था का पर्व नहीं, बल्कि 2029 की राजनीति की प्रस्तावना है!
महाकुंभ का जल केवल आस्था की डुबकी के लिए नहीं, बल्कि राजनीति की नई लहरों को जन्म देने के लिए भी प्रवाहित हो रहा है।
सवाल यह है—क्या यह लहर बीजेपी के लिए सत्ता की गारंटी बनेगी?
क्या विपक्ष इसे रोकने के लिए कोई नई रणनीति बनाएगा?
क्या ममता बनर्जी और INDIA गठबंधन के लिए यह हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का संकेत है?
या फिर यह महाकुंभ एक ऐसी शक्ति को जन्म देगा, जो भारत की राजनीति को अगले दशक तक प्रभावित करेगा?
जवाब संगम की लहरों में छिपा है… 2025 से 2029 तक के चुनाव ही तय करेंगे कि महाकुंभ केवल आस्था का पर्व है या सत्ता के भविष्य का संकेत!

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