क्या हमारी पुरानी यादें सच होती हैं या बस दिमाग का खेल?

Aanchalik Khabre
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Brain Power

सोचिए… बचपन की कुछ बातें आज भी इतनी साफ़ याद हैं जैसे कल की ही हों—स्कूल का फेयरवेल डांस, पहला क्रश, या वो टीचर जो आपको सबसे प्यारे थे। लेकिन ज़रा ठहरिए, क्या ये यादें सच में वैसी ही हैं जैसी आप सोचते हैं? या फिर आपका दिमाग़ सालों में इन्हें थोड़ा-बहुत बदल चुका है?

Brain Thinking

यादों का खेल – सच या झूठ?

मान लीजिए, आप अपने पुराने मोहल्ले में ऑनलाइन ऑर्डर लेने गए हैं और अचानक एक पुराने स्कूल टीचर से मुलाकात हो जाती है। बातचीत में वो याद दिलाती हैं कि आप और उनकी बेटी ने मिलकर एक सफाई अभियान में हिस्सा लिया था और अवॉर्ड भी जीता था। आप दंग रह जाते हैं—क्योंकि आपको तो ये बात याद ही नहीं! आप politely कहते हैं कि शायद उन्हें किसी और से कन्फ्यूज़न हो गया है।

अगले दिन, उनके व्हाट्सऐप पर एक फोटो आती है—आपके और आपकी दोस्त के साथ। अब सोचिए, ये कैसे हो सकता है कि इतना बड़ा मौका आप पूरी तरह भूल गए?

बचपन की यादें क्यों गायब हो जाती हैं

रिसर्च बताती है कि ज्यादातर लोग बड़े होने पर अपने बचपन की बहुत कम बातें याद रख पाते हैं। इसे कहते हैं “चाइल्डहुड एम्नेशिया”
पहले के दार्शनिक जैसे अरस्तू और प्लेटो मानते थे कि हर अनुभव हमेशा के लिए दिमाग़ में दर्ज हो जाता है। लेकिन विज्ञान कहता है—ऐसा नहीं है।

बचपन में हमारा दिमाग़ और भाषा की क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं होती। जब बच्चा खुद को “मैं” के रूप में पहचानना शुरू करता है, तभी उसकी यादें “मेरे अनुभव” बनती हैं। लेकिन तब भी, बचपन की बहुत सी बातें बस टुकड़ों में रह जाती हैं, जिन्हें नए अनुभव धीरे-धीरे ढक देते हैं।

Brain Power

झूठी यादें भी बनती हैं

कई बार ये बची-खुची यादें भी पूरी तरह सच नहीं होतीं। किसी फोटो, कहानी या दूसरों की बात से दिमाग़ में ऐसा चित्र बन जाता है जो असलियत से अलग हो सकता है।
और दिमाग़ पुराने, कम ज़रूरी अनुभवों को मिटाकर नई और ज़रूरी जानकारी के लिए जगह बनाता है।

मतलब, दिमाग़ वही याद रखता है जो उसे लगता है कि आज के समय में आपके काम आएगी।

जवानी की बातें क्यों ज़्यादा याद रहती हैं – "रिमिनिसेंस बंप"

एक दिलचस्प बात ये है कि किशोरावस्था से लेकर शुरुआती 30 साल तक की बातें उम्र बढ़ने पर सबसे साफ़ याद रहती हैं। इसे कहते हैं “रिमिनिसेंस बंप”
ये वो दौर होता है जब ज़िंदगी में प्यार, पढ़ाई, करियर, रिश्ते—सब अपनी जगह बना रहे होते हैं, और दिमाग़ इन्हें मज़बूती से सहेज लेता है।

लेकिन इसमें भी ट्विस्ट है—कई बार हम दूसरों की कहानियों या पारिवारिक चर्चाओं से ऐसी बातें याद कर लेते हैं जो कभी हुई ही नहीं।

यादें और हम

चाहे याद पूरी तरह सही हो या नहीं, वो आपकी पहचान का हिस्सा बन जाती है।
आप इन्हें बार-बार सोचते, सुनाते, और कभी-कभी बदल भी देते हैं, ताकि वो आज की सोच से मेल खाएँ।

उस टीचर वाली कहानी को याद कीजिए—वो घटना आपके “यादगार” दौर में हुई थी, फिर भी आप भूल गए। लेकिन अब जब फोटो देखी, तो शायद आपने अपने बारे में कुछ नया जाना—कि आप सोच से ज़्यादा अच्छे, मददगार या एक्टिव थे।

आख़िर में, यादें सिर्फ़ दिमाग़ में बसी तस्वीरें नहीं, बल्कि आपकी कहानी का वो हिस्सा हैं जो आपको बताता है कि आप कौन थे और कैसे बने।
और ज़िंदगी में, कभी-कभी याद का सच से ज़्यादा ज़रूरी होता है उसका मतलब।

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