आदिवासी महिलाओं की कहानी | जब दाना और चूज़ा बना आर्थिक क्रांति का ज़रिया!

Aanchalik Khabre
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आदिवासी महिलाओं की कहानी

एक गांव की बदलती तस्वीर

मध्य प्रदेश के कटनी ज़िले के दूरदराज़ गांवों की 48 आदिवासी महिलाओं की ज़िंदगी में कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल दिया — उनकी पहचान, आत्मविश्वास और सबसे बढ़कर, उनकी रोज़मर्रा की जद्दोजहद।

बदलाव जो आया मिट्टी से, न कि किसी योजना से

ये कहानी है उस बदलाव की, जो किसी सरकारी योजना या बड़े उद्योग से नहीं आया… बल्कि कुछ ऐसा था जो गांवों की मिट्टी से निकला, पसीने से पला और आत्मनिर्भरता में ढला।

कभी खेतों की मेड़ पर थकती इनकी ज़िंदगी में अब उम्मीद की हरियाली है। कभी हाथ में खाली टोकरी लिए काम की तलाश में भटकती थीं, अब वही टोकरी आज भरती है सपनों से।

क्या था इस क्रांति का असली कारण?

लेकिन ये बदलाव आया कैसे?

ना कोई बड़ा बैंक लोन, ना ही कोई बड़ा व्यापारिक गठजोड़… फिर ऐसा क्या हुआ कि इन गांवों की महिलाएं अब पूरे ज़िले में चर्चा का विषय बन गईं? क्या कोई खास योजना आई? या कोई NGO ने कोई बड़ा निवेश किया?

नहीं… ये बदलाव एक बेहद साधारण सी चीज़ से आया — इतनी साधारण कि अक्सर इसे कोई क्रांति का ज़रिया मानता ही नहीं।

मुर्गी पालन बना आत्मनिर्भरता की चाबी

ढीमरखेड़ा ब्लॉक के कोठी ग्राम पंचायत और उसके आसपास के इलाकों में कुछ साल पहले तक गरीबी, बेरोज़गारी और अभाव का अंधेरा पसरा हुआ था। लेकिन अब इन गांवों की 48 आदिवासी महिलाएं एक नई रौशनी की किरण बन गई हैं — और इसका ज़रिया है मुर्गी पालन

ये महिलाएं न सिर्फ अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी हैं, बल्कि अपने घरों की आर्थिक रीढ़ भी बन गई हैं। दिन की शुरुआत होती है मुर्गी फार्म से, फिर खेतों की मेड़ पर मेहनत, और फिर बच्चों की परवरिश। ये महिलाएं अब हर मोर्चे पर मजबूती से डटी हुई हैं।

रसोई से कारोबार तक का सफर

जहां कभी रसोई तक ही सीमित थीं, आज खुद का कारोबार संभाल रही हैं…

ढीमरखेड़ा की महिला मुर्गी पालन समिति अब एक आंदोलन बन चुकी है। कोठी, दादर, सिहुड़ी, सागोंना, दियागढ़, देहरी, जामुनचुआ, खैरानी, उचेहरा, डबरा जैसे 12 गांवों की महिलाएं इस समिति का हिस्सा हैं। पहले ये महिलाएं छोटी-मोटी मजदूरी पर निर्भर थीं। आज ये महिलाएं सालाना 35,000 से 40,000 रुपये तक की कमाई कर रही हैं — वो भी अपने गांव में रहकर।

सप्लाई से लेकर बिक्री तक – सब कुछ आसान

इन महिलाओं की सबसे बड़ी जीत ये है कि अब उन्हें न तो बाज़ार के चक्कर काटने पड़ते हैं, न ही बिचौलियों के सामने हाथ फैलाना पड़ता है। दाना, दवाई, और चूजे सब कुछ समिति के माध्यम से घर बैठे उपलब्ध हो जाता है। और जब मुर्गियां तैयार होती हैं, तो उन्हें बेचने की पूरी सुविधा भी संगठन के ज़रिए मिल जाती है।

पेट की चिंता से बेटियों की पढ़ाई तक

एक समय था जब रोटी के लाले पड़ते थे… अब बेटियों की पढ़ाई की प्लानिंग होती है…

मुर्गी पालन न सिर्फ इन महिलाओं की आय का स्रोत बना, बल्कि उनका आत्मविश्वास भी लौटाया। जो महिलाएं कभी अपने घर से बाहर बोलने में भी झिझकती थीं, आज वो मीटिंग्स में निर्णय ले रही हैं, योजनाएं बना रही हैं और दूसरों को भी प्रोत्साहित कर रही हैं।

प्रशासन की भी पड़ी नज़र

इनकी सफलता को देखते हुए सरकारी अफसरों की नज़र भी इस मॉडल पर पड़ी है। हाल ही में प्रशासन की एक टीम ने कोठी गांव पहुंचकर फार्म का निरीक्षण किया, महिलाओं से बातचीत की और उनके काम की सराहना की।

आसान नहीं था सफर – पर इरादा मजबूत था

लेकिन ये सफर इतना आसान नहीं था।

शुरुआत में गांव वालों के ताने, समाज की रुढ़िवादी सोच और आर्थिक तंगी हर कदम पर रुकावट थी। लेकिन महिलाओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने समूह बनाए, प्रशिक्षण लिया और एक-दूसरे का हाथ थामे रखा। धीरे-धीरे फार्म बने, काम बढ़ा और आज वो एक मुकाम पर हैं।

बन गईं गांव की प्रेरणा

अब ये महिलाएं सिर्फ खुद की नहीं, बल्कि गांव की अन्य महिलाओं की भी प्रेरणा बन गई हैं। जो काम सरकारें और योजनाएं वर्षों में नहीं कर पाईं, वो इनकी एकजुटता ने कर दिखाया।

साधारण काम, असाधारण बदलाव

मुर्गी पालन एक साधारण काम, जिसने इन महिलाओं की ज़िंदगी असाधारण बना दी।

आज अगर आप कोठी या दियागढ़ जैसे गांवों में जाएं, तो वहां आपको खाली आंखें नहीं, बल्कि आत्मविश्वास से भरी मुस्कुराहटें दिखेंगी। ये वो गांव हैं, जहां अब ‘काम की तलाश’ नहीं, बल्कि ‘काम का विस्तार’ हो रहा है।


निष्कर्ष: ये सिर्फ कहानी नहीं, एक क्रांति है

इनकी कहानी सिर्फ एक न्यूज़ स्टोरी नहीं है, ये उन लाखों ग्रामीण महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण है, जो आज भी किसी मौके की तलाश में हैं।

और इस बदलाव की बुनियाद है साहस, संगठन और स्वाभिमान

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