कहते हैं कि सियासत में न कोई अपना होता है और न कोई पराया, जब तक जिससे काम हुआ साथ दोस्ती की और जब उस दोस्त को जरूरत हुई तो आंखे घुमा ली।
यही बाते इन दिनों बंदायू जिले की गलियों में चर्चा का मुद्दा है और इस मुद्दे के केंद्र में हैं पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव
दरअसल समाजवादी पार्टी ने बदायूं की विधानसभा सीटों पर उम्मीदवारों के नाम का ऐलान जैसे ही किया सवाल भी उठने लगे। पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव के सियासी कद और पार्टी में उनकी एहमियत को लेकर चर्चा होने लगी।
2019 के लोकसभा चुनाव में जब धर्मेन्द्र यादव ज़िले में अकेले पङ चुके थे ,उन्हीं की पार्टी के पूर्व दर्जा राज्य मंत्री आबिद रज़ा ने मोर्चा खोल दिया था, आबिद रज़ा ने यहाँ तक कह दिया था कि बदायूं में सपा का मतलब धर्मेन्द्र यादव लिमिटेड कंपनी है।
ऐसे हालात में जिन लोगों ने धर्मेन्द्र यादव का साथ दिया।वो आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
बदायूँ सदर विधानसभा से टिकट को लेकर जिन के नाम पर मुहर लगने की उम्मीद थी उनमें एक नाम था ङॉ यासीन अली उस्मानी का ।पार्टी के संस्थापकों में से एक और मुलायम सिंह यादव के समय से समाजवादी पार्टी के साथ खङे रहने वाले यासीन उस्मानी ने पार्टी का साथ तब भी नहीं छोड़ा था जब कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी में आने के बाद मुसलमान नेता नाराज़ होकर पार्टी छोङ रहे थे ।जिस वक्त सलीम शेरवानी सपा छोङ कांग्रेस के टिकट पर बदायूँ से चुनाव लङने के लिए आये तब तमाम विरोध के बाद भी यासीन उस्मानी धर्मेन्द्र यादव के साथ खङे रहे।लेकिन अब जब विधानसभा चुनाव के लिए टिकट देने की बारी आयी तो निराशा हाथ लगी।
बदायूँ सदर विधानसभा से फख़रे अहमद शोबी जो धर्मेन्द्र यादव के साथ उस वक्त खङे हुए जब सत्ता में मौजूद बीजेपी के खौफ से कोई साथ देने को तैयार नहीं था। बदायूं सदर विधानसभा में धर्मेन्द्र यादव के कार्यक्रमों को सफल बनाना हो या बीजेपी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करना हो या गिरफ्तारी देना हो,फख़रे अहमद शोबी पार्टी के साथ डटे रहे। लेकिन धर्मेन्द्र यादव के आश्वासन के बावजूद टिकट के लिए धर्मेन्द्र यादव शोबी के नाम पर मोहर नहीं लगवा पाए । 2016 में भी शोबी के टिकट को लेकर धर्मेन्द्र यादव नाकाम साबित हुए ।
वहीं एक बहुत बङे औद्योगपति जिनका लाखों रूपया पार्टी के कार्यक्रमों में लगा,पूर्व सांसद के मुंबई, बदायूं से लखनऊ तक के कार्यक्रमों में उस औद्योगपति से जम कर पैसा बहाया।लेकिन आखिर में उनके हाथ भी निराशा लगी।
मौजूदा सियासी माहौल देखकर अंदाजा तो यही लग रहा है कि एक मुखालिफ को साइङ लाइन करने के चक्कर में धर्मेन्द्र यादव ने अपने कई हमदर्दों को खो दिया है।
दातागंज विधानसभा में भी धर्मेन्द्र यादव का साथ देने वालों को निराशा ही हाथ लगी,सिनोद शाक्य का उन लोगों में सबसे ऊपर है। सिनोद शाक्य ऐसे समय में धर्मेन्द्र यादव के साथ खङे हुए थे जब जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लङने वाला धर्मेन्द्र यादव को कोई मिल नहीं पा रहा था। यहां तक कि यादव बहुल ज़िले में धर्मेन्द्र यादव का साथ देने कोई खङा नहीं हुआ तब सिनोद शाक्य हर तरह से पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव का साथ दिया । लेकिन दातागंज से टिकट का जब नंबर आया तब जिले में धर्मेन्द्र यादव के एक और करीबी को निराशा ही हाथ लगी।
धर्मेन्द्र यादव के एक और करीबी विमल कृष्ण अग्रवाल को भी टिकट की रेस से बाहर कर दिया गया।लोकसभा चुनाव में धर्मेन्द्र यादव के लिए विमल कृष्ण अग्रवाल की मेहनत किसी से छुपी नहीं है
टिकट बंटवारे के पूरे घटनाक्रम को देखे तो यह साफ है कि दातागंज, बदायूं सदर और बिल्सी विधानसभा में गिन गिन के धर्मेन्द्र यादव का साथ देने वालों को किनारे लगाया गया है। साफ है कि संगठन में खास तौर पर बदायूँ ज़िले से जुड़े निर्णयों में धर्मेन्द्र यादव की एक नहीं चली और पिछले 5 सालों से धर्मेन्द्र यादव ज़िले के नेताओं को महज़ आश्वासन देते रहे।
बदायूँ सदर सीट को लेकर चर्चा इस बात पर भी है कि शेखूपुर की सीट बचाने के लिए काज़ी रिज़वान का शहर से टिकट कर दिया गया। क्योंकि धर्मेन्द्र यादव समेत आशीष यादव को यह पता था कि मुस्लिम खां टिकट न मिलने पर पार्टी छोङ सकते हैं ऐसे में मुस्लिम वोट को रोकने के लिए काज़ी रिज़वान को पार्टी में ला कर सदर से टिकट दिया गया। गौरतलब है कि काज़ी रिज़वान का परिवार का शेखूपुर विधानसभा में अच्छा दखल है।
ऐसे में शेखूपुर विधानसभा सीट बचाने के लिए बदायूँ सदर सीट पर धर्मेन्द्र यादव ने अपने कई भरोसेमंद लोगों का भरोसा तोङा।
पिछले दो साल से प्रेमपाल यादव ने जिस तरह से संगठन को खङा किया, लोगों को जोङा और समाजवादी पार्टी के जनाधार को बढाया उससे उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सभी सीटों पर जीत हासिल करेगी लेकिन जिस तरह से टिकट बंटवारा हुआ,उसने समाजवादी पार्टी के लिए ज़िले में ख़तरे की घंटी को बजा दिया है।
साफ है या तो धर्मेन्द्र यादव की संगठन में सुनी नहीं गयी या फिर धर्मेन्द्र यादव सब कुछ जानते हुए अंजान बन गए ।