प्रस्तावना: एक साधारण इंसान, असाधारण संकल्प
बिहार के गया जिले के गहलौर गांव में जन्मे दशरथ मांझी कोई आम व्यक्ति नहीं थे। वे एक गरीब मजदूर थे, लेकिन उनके भीतर एक ऐसा दृढ़ संकल्प था, जो पहाड़ों को भी झुका दे। अपने प्यार और जिद के कारण उन्होंने अकेले दम पर एक पहाड़ को काटकर रास्ता बना दिया, और पूरी दुनिया को हैरान कर दिया। उनकी यह प्रेरक कहानी आज भी हमें बताती है कि सच्चे इरादे और मेहनत से कोई भी असंभव कार्य संभव हो सकता है।
Dashrath Manjhi का प्रारंभिक जीवन
बचपन की कठिनाइयाँ
दशरथ मांझी का जन्म एक दलित (मुसहर) समुदाय में हुआ था, जो कि समाज के सबसे निचले वर्ग में गिना जाता था। उनका बचपन गरीबी, भुखमरी और भेदभाव से जूझते हुए बीता। शिक्षा तक की पहुंच नहीं थी और परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। बचपन से ही उन्हें मेहनत-मजदूरी करनी पड़ी।
शादी और पत्नी फाल्गुनी देवी
उन्होंने फाल्गुनी देवी से विवाह किया, जिनसे उन्हें बेहद प्रेम था। उनकी पत्नी ही उनकी प्रेरणा बनीं, और बाद में उनके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी भी।
प्रेम से पैदा हुई प्रेरणा
हादसा जिसने बदल दी दशरथ मांझी की जिंदगी
1960 के दशक में एक दिन फाल्गुनी देवी बीमार हो गईं और उन्हें पास के शहर इलाज के लिए ले जाना पड़ा। लेकिन उनके गांव गहलौर और वजीरगंज के बीच एक विशाल पहाड़ आड़े आता था, जिससे रास्ता 55 किलोमीटर लंबा हो जाता था। समय पर इलाज न मिल पाने के कारण फाल्गुनी की मौत हो गई।
यह हादसा दशरथ मांझी के जीवन का टर्निंग पॉइंट बना। उन्होंने ठान लिया कि वह पहाड़ को काटकर रास्ता बनाएंगे ताकि किसी और को यह पीड़ा न सहनी पड़े।
अकेले पहाड़ से लड़ाई: 22 वर्षों की तपस्या
शुरुआत – जब लोगों ने मजाक उड़ाया
दशरथ मांझी ने कुल्हाड़ी और छेनी से पहाड़ को काटना शुरू किया। लोगों ने पहले उन्हें पागल कहा, उनका मजाक उड़ाया। लेकिन वह न रुके, न झुके। उनका संकल्प पहाड़ से भी बड़ा था।
22 साल का संघर्ष
1960 से 1982 तक – पूरे 22 वर्षों तक उन्होंने हर दिन सुबह से शाम तक, तपती गर्मी, सर्दी, बारिश में – पहाड़ को काटा। अंततः उन्होंने 360 फुट लंबा, 30 फुट चौड़ा और 25 फुट ऊंचा रास्ता बना डाला।
परिणाम
इस रास्ते ने 55 किलोमीटर की दूरी को घटाकर सिर्फ 15 किलोमीटर कर दिया। गहलौर गांव के लोगों को अब आसानी से अस्पताल, स्कूल और बाजार तक पहुंच मिलने लगी।
सरकार और समाज की प्रतिक्रिया
बाद में मिली पहचान
शुरुआत में दशरथ मांझी की कोशिशों को नजरअंदाज किया गया, लेकिन जब उन्होंने रास्ता बना डाला, तो उन्हें ‘माउंटेन मैन’ कहा जाने लगा। बिहार सरकार ने बाद में उनकी सराहना की और उन्हें सम्मानित किया।
फिल्म और किताबें
2015 में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत फिल्म “मांझी – द माउंटेन मैन” ने दशरथ मांझी की कहानी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। उनकी जीवनी पर कई किताबें भी लिखी गईं।
दशरथ मांझी की मृत्यु और विरासत
अंतिम समय
2007 में दशरथ मांझी का निधन कैंसर के कारण हुआ। बिहार सरकार ने उनके अंतिम संस्कार को राजकीय सम्मान के साथ किया।
प्रेरणा का प्रतीक
आज दशरथ मांझी लाखों युवाओं के लिए प्रेरणा बन चुके हैं। उन्होंने दिखाया कि “जहाँ चाह वहाँ राह” केवल एक कहावत नहीं, बल्कि एक सत्य है।
निष्कर्ष: एक असाधारण जीवन की प्रेरणा
दशरथ मांझी की कहानी न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती है कि सच्चा परिवर्तन केवल सरकारों या संस्थाओं से नहीं आता, बल्कि एक आम इंसान भी दुनिया को बदल सकता है। उन्होंने न केवल एक पहाड़ काटा, बल्कि उस सोच को भी काटा कि गरीब, अनपढ़ और कमजोर कुछ नहीं कर सकते।
आज भी जब भी कोई कहता है कि “ये तो असंभव है”, दशरथ मांझी का नाम याद आता है — जिसने असंभव को मुमकिन कर दिखाया।
Also Read This- Munshi Premchand