जब से इंसान धरती पर आया है, तब से लेकर अब तक उसकी ज़िंदगी में बहुत कुछ बदला है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हम इंसान अपनी ज़्यादातर ज़िंदगी कैसे जीते आए हैं?
अगर इंसान की पूरी इतिहास को एक दिन मानें, तो खेती-किसानी और सभ्यता केवल अंतिम घंटे में आई है। मानव जाति को धरती पर आए हुए लगभग 2 लाख साल हो गए हैं, लेकिन खेती करना हमने सिर्फ 12,000 साल पहले शुरू किया। यानी कि हम इंसान अपनी 94% ज़िंदगी शिकारी और घुमंतू जीवन के रूप में जी चुके हैं — जंगलों में रहकर, शिकार करके, जंगली फल-बेर खाकर, ज़िंदा रहने की कोशिश करते हुए।
भूख और मस्तिष्क: एक बड़ा रिश्ता
मानव शरीर जानवरों की दुनिया में आकार में बड़ा माना जाता है — और खासकर हमारा मस्तिष्क तो सबसे ज़्यादा ऊर्जा खाता है। अकेला मस्तिष्क ही हमारी 20% दैनिक कैलोरी खर्च करता है। उस जमाने में खाना बहुत मुश्किल से मिलता था — तो आदमी की पूरी ऊर्जा यही सोचने में लगती थी कि क्या खाएं, कैसे ढूंढें, और कैसे बचें। ना कोई किताब थी, ना स्कूल, ना मोबाइल — केवल ज़िंदा रहने की जद्दोजहद थी।
और हमारा मस्तिष्क इसी जीवन के लिए डिज़ाइन हुआ — भूख, डर, सुरक्षा, प्रजनन, और समूह में जीने की जरूरतें। पढ़ना–लिखना तो 5,000 साल पहले ही आया, उससे पहले किसी को शब्दों, भाषा या विचारों की परवाह नहीं थी।
केला दिखा = खाना है!
कल्पना कीजिए एक पुराने इंसान की — वह जंगल में चल रहा है, और उसे एक पीला, टेढ़ा सा फल दिखता है — केला। वह नहीं सोचता कि “इस पीले रंग की अनुभूति मेरी आंखों की रेटिना और दिमाग के विजुअल कॉर्टेक्स की प्रोसेसिंग का परिणाम है।” उसके लिए केला बस एक असली चीज़ है — खाना है, बस!
वह यह भी नहीं सोचता कि उसका स्वाद क्यों अच्छा है, या उसमें मौजूद शुगर क्यों दिमाग को अच्छा महसूस कराता है। वो बस जानता है — पीला केला अच्छा होता है, हरा केला कच्चा है।
इसीलिए वैज्ञानिक मानते हैं कि हमारे पूर्वज “डायरेक्ट रियलिस्ट“ थे — यानी जो देख रहे हैं, वही सच मानते थे। जो दिख रहा है, वही दुनिया है। उनके लिए रंग, स्वाद, गंध — ये सब दिमाग की प्रोसेसिंग नहीं बल्कि सीधी हकीकत थी।
लेकिन अब हमें क्या पता है?
अब जब विज्ञान और दर्शन (philosophy) ने तरक्की की है, तो हम जानते हैं कि जो हम देखते-सुनते-चखते हैं, वो असल में हमारे दिमाग की बनावट और काम करने के तरीके का परिणाम है। हमारा मस्तिष्क बाहर की दुनिया को “रिप्रेजेंट” करता है।
उदाहरण के लिए:
- “गर्मी“ असल में कुछ नहीं बल्कि अणुओं (molecules) की तेज़ गति है। लेकिन हम उसे ऐसे नहीं महसूस करते। हमें वह जलन, गर्म हवा, पसीना जैसी लगती है — क्योंकि दिमाग उसे उसी तरह समझाता है।
- “नीला रंग“ और “लाल रंग“ — फिजिक्स में दोनों बस अलग-अलग तरंगों की फ्रीक्वेंसी हैं। लेकिन हमारे लिए उनके अलग-अलग भाव, भावनाएं, और पहचान होती है।
- शुगर दिमाग के लिए “अच्छी चीज़” है, और हाइड्रोजन परॉक्साइड (जहरीला रसायन) “बुरी चीज़” — हमारे स्वाद और गंध की प्रणाली इस तरह विकसित हुई है कि जो चीज़ें शरीर के लिए फायदेमंद हैं, उन्हें अच्छा महसूस कराया जाए।
और अब आता है असली ट्विस्ट — सपने!
दिन भर इंसान यही सोचता था कि जो दिख रहा है, वही सच है। लेकिन जब रात को नींद आती थी — तब कुछ चमत्कारिक घटता था।
सपना आता था।
आंखें बंद, शरीर स्थिर, लेकिन अंदर एक नई दुनिया खुल जाती थी — रंग, लोग, बातें, डर, प्यार, लड़ाई, जंगल, जानवर — सबकुछ।
अब सोचिए — एक आदिमानव, जो हमेशा यही मानता था कि जो आंखों से दिखता है वही सच है — उसे सपने में कुछ और दिखा। तो क्या उसने कभी सोचा होगा कि ये सब कैसे हो रहा है? क्या ये सब भी उसके दिमाग में बन रहा है?
क्या सपने ने उसके यथार्थ को चुनौती दी?
आज हम जानते हैं कि सपने भी मस्तिष्क का ही कमाल हैं — नींद के एक खास हिस्से में (REM sleep) दिमाग खुद ही एक “आभासी दुनिया“ बना लेता है — बिना आंखें खोलकर देखे, बिना कानों से सुने। लेकिन तब के इंसान के लिए ये सब रहस्य था।
क्या उसने कभी सोचा होगा कि “अगर सपना नकली है, तो शायद दिन में जो मैं देखता हूँ, वो भी दिमाग की बनावट है?”
शायद नहीं — लेकिन सपनों ने उसके सीधे-सादे यथार्थ की सोच को थोड़ी चुनौती तो जरूर दी होगी।
आज हम कहां हैं?
आज हमारे पास विज्ञान, किताबें, प्रयोगशालाएं, MRI स्कैन, और बहुत कुछ है। हम जानते हैं कि हम जो अनुभव करते हैं, वह दिमाग की प्रोसेसिंग, न्यूरॉन्स के नेटवर्क, और इंद्रियों से मिली जानकारी की व्याख्या है।
लेकिन असल में, हमारा दिमाग अभी भी उसी पुराने मानव का दिमाग है। उसका डिज़ाइन तो उसी समय हुआ था — जब हमें बस शिकार करना था, खाना ढूंढना था, और खुद को ज़िंदा रखना था।
निष्कर्ष: क्या दिखता है, वही सच है?
हम आज भी कई बार “डायरेक्ट रियलिस्ट” की तरह सोचते हैं।
जब हम किसी को देखते हैं, किसी चीज़ का स्वाद लेते हैं, या कोई रंग महसूस करते हैं — तो हम मानते हैं कि वही सच्चाई है।
लेकिन सपने, और आज की न्यूरोसाइंस हमें यह बताती है कि दुनिया जैसी हमें दिखती है, वैसी शायद वह है नहीं।
वह हमारे दिमाग का एक चित्रण है — ज़रूरी नहीं कि वही वास्तविकता हो।
तो अगली बार जब आप सपना देखें — तो थोड़ा रुकिए, और सोचिए:
अगर नींद में दिखा दृश्य नकली था, तो क्या जागती आँखों से दिखता हर दृश्य भी एक “भ्रम” हो सकता है?
आपका दिमाग जो दिखा रहा है, क्या वह असली है — या सिर्फ आपके दिमाग की बनाई एक कहानी?
शायद, सपना ही वह सुराग है, जिससे हम अपने अनुभवों की असलियत को समझ सकते हैं।