जब सिनेमाघर बन जाते हैं मंदिर

Aanchalik Khabre
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Cinema Hall

आपने शायद कभी सोचा भी न हो कि एक फिल्म देखते-देखते आप खुद को मंदिर में महसूस करेंगे। लेकिन हाल के सालों में कुछ फिल्में—‘महावतार नरसिंह’, ‘कांतारा’, ‘हनुमान’ और ‘आदिपुरुष’—ने यही कर दिखाया है।

इन फिल्मों के शो में ऐसा माहौल होता है, जैसे सचमुच किसी पूजा या आरती में शामिल हों। लोग जूते-चप्पल बाहर उतार देते हैं, हाथ जोड़कर स्क्रीन की ओर देखते हैं, मंत्रोच्चार करते हैं, यहां तक कि प्रसाद भी बांटते हैं।

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महावतार नरसिंह’ – जब कहानी आस्था में बदल गई

सिनेमा हॉल की सीट पर बैठे-बैठे आप अचानक महसूस करते हैं कि आस-पास कोई फिल्म नहीं, बल्कि एक पौराणिक कथा हो रही है।

स्क्रीन पर भक्त प्रह्लाद और असुर राजा हिरण्यकश्यप की कहानी चल रही है—हिरण्यकश्यप का गुस्सा, प्रह्लाद की मासूम भक्ति और फिर वो क्षण जब भगवान नरसिंह प्रकट होते हैं।

और तभी…
पूरे हॉल में “नरसिंह देव की जय!” की गूंज उठती है। कुछ लोग आंखें बंद करके मंत्र जपते हैं, किसी की आंखें भर आती हैं।

निर्माता भी मानते हैं कि यह फिल्म सिर्फ एक प्रोजेक्ट नहीं रही, बल्कि एक आंदोलन बन गई है—

“थिएटर मंदिर बन गए हैं, लोग कीर्तन कर रहे हैं, आरतियां गा रहे हैं… यही हमारी सबसे बड़ी सफलता है।”

पुरानी यादें, नया दौर

ये नज़ारा नया जरूर लगता है, पर इसकी जड़ें पुरानी हैं।
1970 के दशक में ‘जय संतोषी मां’ के शो में भी लोग फूल-माला लेकर जाते थे, अगरबत्तियां जलाते थे और प्रसाद बांटते थे। उस वक्त भी फिल्म देखना, एक तरह से पूजा करने जैसा था।

कांतारा’ – जब लोककथा की दिव्यता महसूस हुई

कुछ साल पहले ‘कांतारा’ ने भी यही जादू किया।
तटीय कर्नाटक की लोककथा पर बनी इस फिल्म का क्लाइमैक्स देखते-देखते कई दर्शक trance में चले गए—जैसे वे किसी दैवीय अनुष्ठान में शामिल हों, किसी देवता की उपस्थिति महसूस कर रहे हों।

हनुमान’ – थिएटर में स्पिरिचुअल एनर्जी का संचार

‘हनुमान’ की स्क्रीनिंग के दौरान भी “जय श्री राम” और “जय हनुमान” के नारे गूंजते थे।

फिल्म के निर्देशक अश्विन कुमार कहते हैं—

“यह सिर्फ हिंदुओं के लिए नहीं है। मुझे मुस्लिम दर्शकों से भी संदेश मिले कि इस फिल्म ने उनके बिलीफ को और मजबूत किया। धर्म कोई भी हो, आस्था एक ही भाषा बोलती है—समर्पण।”

आदिपुरुष’ – अलौकिक आहट का अनुभव

‘आदिपुरुष’ की शूटिंग के दौरान सेट पर अचानक एक बंदर आ गया। किसी ने उसे भगाया नहीं, बल्कि सभी ने इसे किसी अलौकिक उपस्थिति की आहट माना।

जब थिएटर मंदिर बन जाए

इन फिल्मों ने साबित किया है कि सिनेमा सिर्फ देखने की चीज़ नहीं—यह महसूस करने की चीज़ है। यह आपको आपके भीतर छिपी उस जगह तक ले जाता है, जहां आस्था, संस्कृति और भावनाएं एक साथ मिलती हैं।

इन फिल्मों ने दिखाया कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागरण का साधन भी बन सकता है। यह सामूहिक भक्ति का रूप ले सकता है, लोगों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों और धार्मिक भावनाओं से जोड़ सकता है।

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