Meera Bai: प्रेम, भक्ति और विद्रोह की अनुपम स्वर-सरिता

Aanchalik Khabre
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Meera Bai

भूमिका:

भारतीय भक्ति साहित्य के आकाश में Meera Bai एक ऐसा उज्ज्वल नक्षत्र हैं, जिनकी आस्था, प्रेम और आत्म-समर्पण की चमक आज भी अक्षुण्ण है। वे केवल एक भक्त कवयित्री नहीं थीं, बल्कि एक क्रांतिकारी चेतना थीं, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को चुनौती देकर भक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मा की मुक्ति का मार्ग बना दिया। Meera Bai का जीवन और साहित्य स्त्री स्वतंत्रता, आध्यात्मिक प्रेम और सामाजिक विद्रोह की अनूठी मिसाल हैं।


Meera Bai का जीवन परिचय:

Meera Bai का जन्म लगभग 1498 ईस्वी में राजस्थान के मेड़ता (जोधपुर के पास) के एक राठौड़ राजपूत राजघराने में हुआ था। उनके पिता रतनसिंह राठौड़ मेड़ता के शासक थे। बचपन से ही Meera Bai श्रीकृष्ण के प्रति अत्यंत आकर्षित थीं। कहा जाता है कि उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में एक साधु से श्रीकृष्ण की मूर्ति प्राप्त की और उसी दिन से उन्हें अपना पति मान लिया।

Meera Bai का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से हुआ था, परंतु विवाह के बाद भी उनका मन संसार में नहीं रमा। पति की मृत्यु के बाद जब Meera Bai पर सती होने का दबाव डाला गया, तब उन्होंने दृढ़ता से इंकार कर दिया और भक्ति के मार्ग पर चल पड़ीं।


Meera Bai और भक्ति आंदोलन:

16वीं शताब्दी में जब भारत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था, तब भक्ति आंदोलन ने आध्यात्मिक चेतना का नया द्वार खोला। Meera Bai इस आंदोलन की प्रमुख स्त्री स्वर थीं। उन्होंने ईश्वर से सीधा संवाद किया, बिना किसी पुरोहित, संस्कार या जाति-धर्म के बंधन के।

उनकी भक्ति निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में व्यक्त हुई, परंतु श्रीकृष्ण उनके आराध्य रूप में केंद्रीय रहे। Meera Bai का कृष्ण से प्रेम लौकिक प्रेम की सीमाओं को पार कर आत्मिक एकता में बदल गया।


Meera Bai का साहित्य: आत्मा की पुकार

Meera Bai ने ब्रज भाषा, राजस्थानी और गुजराती में भक्ति काव्य की रचना की। उनके पदों में विरह की पीड़ा, मिलन की लालसा, समाज के विरोध का दंश और कृष्ण-प्रेम का उन्माद मिलता है। उन्होंने कभी काव्यशास्त्रीय नियमों की परवाह नहीं की, बल्कि अपने भावों को सरल, मार्मिक और आत्मीय भाषा में अभिव्यक्त किया।

उनके प्रमुख भजनों में ये भाव स्पष्ट झलकते हैं:

  • “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो”
  • “मीरां के प्रभु गिरधर नागर, हरि अपरंपार”
  • “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई”

इन पंक्तियों में Meera Bai का संपूर्ण जीवनदर्शन समाया हुआ है – एकनिष्ठा, आत्मसमर्पण और निर्विकार प्रेम।


Meera Bai और स्त्री स्वतंत्रता:

Meera Bai ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था में आत्मा की आवाज़ सुनी, जहाँ स्त्रियों को मौन और पतिव्रता बनने का पाठ पढ़ाया जाता था। उन्होंने राजा की पत्नी होते हुए भी न किसी सत्ता को स्वीकार किया, न किसी परंपरा को। उनके लिए केवल एक ही संबंध था – आत्मा और कृष्ण का।

जब उन्हें राजमहल में बंदी बना दिया गया, जब विष का प्याला उनके सामने लाया गया, जब समाज ने उन्हें पतिता कहा – तब भी Meera Bai अपने निर्णयों पर अडिग रहीं। उन्होंने यह दिखाया कि एक स्त्री भी धर्म, भक्ति और प्रेम में अपने लिए रास्ता खुद चुन सकती है।


Meera Bai के जीवन की घटनाएँ: भक्ति की अग्निपरीक्षा

Meera Bai के जीवन में कई ऐसे प्रसंग हैं जो उनकी भक्ति की गहराई और सामाजिक विद्रोह को दर्शाते हैं:

  • विष का प्याला: राजपरिवार द्वारा भेजा गया विष का प्याला Meera Bai ने प्रसाद समझकर पी लिया, किंतु वे बच गईं। यह प्रसंग उनके भक्तिपथ की अग्निपरीक्षा बन गया।
  • राजमहल का परित्याग: Meera Bai ने एक दिन दरबार, महल और वैभव का त्याग कर संन्यास ले लिया और द्वारका, वृंदावन, पुष्कर, चित्तौड़, और गोवर्धन की यात्रा पर निकल पड़ीं।
  • ब्रज में व्रजवास: वे ब्रज की गलियों में कृष्ण को पुकारतीं, मंदिरों में कीर्तन करतीं और जन-जन को भक्ति का मार्ग दिखाती थीं।

Meera Bai का दर्शन: प्रेम ही परम धर्म

Meera Bai का भक्ति-दर्शन ‘प्रेम’ के इर्द-गिर्द केंद्रित है। उन्होंने ईश्वर को पति, प्रियतम, सखा और आराध्य सभी रूपों में अनुभव किया। उनके अनुसार, जब प्रेम शुद्ध होता है, तो वह ईश्वर तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग बन जाता है।

उनका यह पद अत्यंत प्रसिद्ध है:

“जोगिया रंग में रंगी, मीरां हो गई दिवानी।
हरि बिना और न भावे, दुनिया लागे वीरानी।”

Meera Bai के अनुसार प्रेम का मार्ग कठिन है, पर जो उस पर चल पड़ा, उसका आत्मा से ईश्वर का मिलन निश्चित है।


Meera Bai का संगीत और कीर्तन परंपरा:

Meera Bai की भक्ति मुख्यतः कीर्तन-आधारित थी। वे मंजीरा और एकल नृत्य-गीत के साथ कीर्तन करती थीं। उनका भक्ति-संगीत जन-जन तक पहुँचा, क्योंकि उसमें न रसूख था, न विद्वता का बोझ – केवल प्रेम का माधुर्य था।

उनकी रचनाएँ आज भी राजस्थान, गुजरात और उत्तर भारत में लोकगीतों के रूप में गाई जाती हैं।


Meera Bai और आध्यात्मिक क्रांति:

जहाँ तुलसीदास और सूरदास ने भक्ति को ग्रंथों और भक्तिसंहिता में बाँधा, वहीं Meera Bai ने उसे जीवंत कर दिया। वे मंदिरों की मूर्तियों में कृष्ण को नहीं खोजती थीं, बल्कि उनकी उपस्थिति हर जगह अनुभव करती थीं।

उनका यह आत्मिक दृष्टिकोण एक गहरी आध्यात्मिक क्रांति का संकेत था – “ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है।”


Meera Bai की मृत्यु और आत्म-विलय:

Meera Bai के अंतिम वर्षों के बारे में किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि द्वारका में श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने भजन करते हुए वे उसमें समा गईं – जैसे प्रेम अपनी चरम परिणति को प्राप्त कर चुका हो।


Meera Bai की आज की प्रासंगिकता:

आज जब स्त्रियों की स्वतंत्रता, आत्म-निर्णय और आध्यात्मिक खोज को नए सिरे से समझा जा रहा है, तब Meera Bai का जीवन और विचार और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। उन्होंने यह सिखाया कि धर्म केवल परंपरा या लिंग-भेद का विषय नहीं है – यह आत्मा की स्वतंत्रता है।

उनका साहस, उनका प्रेम, और उनका साहित्य हमें आज भी यह सिखाता है कि एक अकेली स्त्री भी समाज, सत्ता और परंपरा को प्रेम से हरा सकती है।


Meera Bai की रचनाओं का सार (सारणी):

विधा प्रमुख योगदान
भक्ति पद लगभग 1300 से अधिक
भाषाएँ ब्रजभाषा, राजस्थानी, गुजराती
प्रमुख विषय श्रीकृष्ण प्रेम, विरह, आत्मनिष्ठा, समाज से विद्रोह
संगीत शैली लोकधुनों पर आधारित कीर्तन

Meera Bai: वैश्विक साहित्य में स्थान

Meera Bai के पदों का अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हो चुका है। अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, जापानी और रूसी विद्वानों ने उन्हें ‘Indian Mystic Poetess’ की संज्ञा दी है। अमेरिका के लेखकों ने Meera Bai को ‘Mystic Rebel’ और ‘Saint of Feminine Freedom’ की उपाधि दी है।


प्रमुख उद्धरण (Quotes by/about Meera Bai):

  1. “मैं तो सांवरिया के रंग में रंगी, अब कोई और रंग न भाये।” – Meera Bai
  2. “Her soul danced beyond caste, gender, and royal duty.” – A.K. Ramanujan
  3. “Meera Bai showed the world that love can be a revolution.” – Devdutt Pattanaik

निष्कर्ष:

Meera Bai केवल एक भक्त कवयित्री नहीं थीं, वे भारतीय इतिहास की पहली आध्यात्मिक विद्रोहिणी थीं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि प्रेम अगर ईश्वर से हो, तो वह समाज की दीवारें गिरा सकता है। Meera Bai ने धर्म को आत्मा की यात्रा बनाया, न कि परंपराओं का पिंजरा।

उनका जीवन हमें बताता है कि:

  • प्रेम आत्मा का सर्वोच्च अधिकार है।
  • भक्ति में साहस चाहिए – स्वयं को खोने का साहस।
  • स्त्री केवल देह नहीं, चेतना भी है – और वह चेतना यदि जगे, तो सृजन कर सकती है।

Meera Bai की भक्ति आज भी व्रज की गलियों में गूंजती है, और उनकी आवाज़ हर उस आत्मा में प्रतिध्वनित होती है, जो प्रेम की तलाश में है।

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