भारत में आशापुरी में ब्रह्मर्षि भृगुजी की तपस्या से चौहान वंश की उत्पत्ति हुई-आंचलिक ख़बरें-ज्ञान प्रकाश शर्मा

News Desk
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अजय पाल चौहान ने अजयपुर बसाया था। फिर पावागढ़ को विजय कर पावागढ़ से चौहान वंश भारत के अन्य स्थानों पर बिखर गया। चौहान वंश के ही गंगाराव चौहान हुए जिनके दो पुत्र अजय पाल और उमरपाल हुए। अजय पाल अजमेर को अपना गढ़ बनाकर वहीं रहने लगे। इनके एक पुत्र का नाम सोमेश्वर था जिनका विवाह दिल्ली के राजा अग्निपाल की पुत्री कमला से हुआ। इनके ही पुत्र का नाम पृथ्वीराज सिंह चौहान था।

जबकि दूसरे पुत्र उमरपाल सिंह के पुत्र जेवर सिंह थे। जेवर सिंह ने ही हिडायल नगर बसाया था।

सिरसा पाटन के राजा की तीन पुत्रियों आछल, बाछल और बादल के साथ जेवर सिंह की शादी हुई थी। बहुत दिनों तक इनकी कोई संतान नहीं हुई जिससे निराश होकर यह श्री शिव गोरखनाथ जी की अखंड ज्योति जलाने लगे । कुंवर जेवर सिंह स्वयं भी वन में जाकर श्री शिव गोरखनाथ जी का ध्यान करने लगे। लगभग 24 वर्ष पश्चात श्री शिव गोरखनाथ जी हिडायल के नौलखा बाग में अपने 9 नाथ, 84 सिद्ध और 1400 शिष्यों के साथ वहां पर आए। जब जेवर सिंह की मछली पत्नी बाछल उनके दर्शन करने के लिए पहुंची तब तक श्री गोरखनाथ जी 12 वर्ष के लिए समाधि लगा चुके थे। बाछल ने भी वहीं रह कर कठोर तप किया।

जब श्री शिव गोरखनाथ जी की समाधि खुली तो उन्होंने बांछल की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके हाथ से भोजन करने की इच्छा प्रकट की। बाछल महल में भोजन की व्यवस्था करने चली गई । इसी बीच बाछल की बड़ी बहन आछल श्री शिव गोरखनाथ जी के दर्शनों के लिए वहां पहुंच गई। गोरखनाथ जी ने समझा कि यही बाछल है और उसे पुत्र प्राप्ति के लिए गूगल भस्म दे दी। जब बाछल भोजन व्यवस्था करके वहां पहुंची तब तक श्री शिव गोरखनाथ पुनः 12 वर्ष के लिए समाधिस्थ हो गए। बाछल पुनः वही रह कर कठोर तप करने लगी। 12 वर्ष पश्चात श्री शिव गोरखनाथ जी की समाधि खुली तब उन्होंने बाछल को भी पुत्र प्राप्ति के लिए गूगल भस्म दी। गूगल भस्म और 24 वर्ष की तपस्या से बाछल गर्भवती हुई तब तक उसके पति जेवर सिंह वन में ही तपस्या करते रहे। 3 महीने का गर्भ होने से बाछल के ससुर महाराज उमरपाल सिंह को जब यह मालूम हुआ कि उनकी बहु गर्भवती है। तब उन्होंने बाछल के गर्भस्थ शिशु को पवित्र ना मानते हुए मारने के लिए टूटा रथ और बूढ़े बैल भेजें। बूढ़े बेलो वाले टूटे रथ पर सवार होकर जब गर्भस्थ बाछल आरही थी तब शिशु के प्रताप से उस रथ के पहियों की भयानक घरघराहट नागलोक तक जा पहुंची।

नाग लोक के राजा वासुकी ने यह समझा कि जन्मेजय के नागयज्ञ से बचे हुए नागों को मारने के लिए महाराजा जन्मेजय के वंश का ही कोई राजा नागलोक में आक्रमण करने आ रहा है। यह सोचकर नागराज वासुकी भयभीत हो गए और उन्होंने अपने दो पुत्रो रतनाम और तक्षक को मृत्यु लोक में जाकर रथ में जो भी बैठा हो उसे डस लेने की आज्ञा दी।

जब दोनों नाग मृत्यु लोक में आए उस समय गर्भस्थ शिशु ने गर्भ से ही अपनी मां को यह सुझाव दिया कि वह गुरु गोरखनाथ महाराज का स्मरण करके रथ से नीचे उतर जाए, वासुकी नाग के बेटे उसे डसने आ रहे हैं। जब बाछल रथ से नीचे उतरी तब पाताल लोक से दोनों नाग आए और गर्भवती बाछल पर निगाह पड़ते ही दोनों आंख से अंधे हो गए। अंधे हो जाने से उन्हें कुछ दिखाई भी नहीं दिया। वह बेलो पर जा गिरे और बैलों को डस लिया। भय के कारण दोनों तत्काल नागलोक की ओर चले गए।जबकि इन दोनों नागों के जहर से दोनों बैल तत्काल मर गए। गर्भस्थ शिशु ने अपनी मां से फिर कहा कि वह श्री शिव गोरखनाथ जी की जय बोल कर बेलो पर हाथ फेर दे तो बेल जीवित हो जाएंगे और ऐसा ही हुआ।

बाछल अपने पिता के घर पहुंची तो वहां भी उसकी कड़ी परीक्षा ली गई जिसमें वह सफल हुई। गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से ही उसके पिता जेवर सिंह वन से वापस आए और आदर पूर्वक बाछल को अपने घर ले गए । वहां बाछल के ससुर महाराज उमरपाल सिंह ने बाछल पर विश्वास न करते हुए गर्भस्थ शिशु की हत्या करने के लिए दासी को कटोरे में विष देकर कहा कि यह शिशु को पिला दे। जब दासी विष का कटोरा लेकर जाने लगी तो एक दरवाजा पार करते ही पैर में ठोकर लगने से उसके हाथ से प्याला फर्श पर गिर गया। दासी प्याले में डर के मारे दूध भर कर ले गई। जिसे शिशु ने पीने से मना कर दिया और कहा कि वह उसके दादा का दिया हुआ जहर ही पिएगा। राजा उमरपाल क्रोधित हुए और वे चाहते थे यह बच्चा किसी भी तरह से खत्म हो जाए। उन्होंने शिशु को रुई की बत्ती से जहर पिलाने की कोशिश की मगर उसकी मृत्यु नहीं। हुई तब राजा उमरपाल सिंह भी मान गए कि यह शिशु दिव्य और पवित्र है। जहर पीने के कारण राजा उमरपाल सिंह ने ही अपने पोते का नाम जहर वीर सिंह रखा। जिसे जाहर वीर सिंह भी कहा जाता है।

जहरवीर सिंह श्री शिव गोरखनाथ जी के साथ-साथ भगवती दुर्गा जी के भी परम उपासक थे और उन्हें भगवती का दर्शन होता था। मध्य प्रदेश के सतना जिले के मैहर नामक स्थान पर मैहर माता के परम भक्त आल्हा-उदल के हाथों युद्ध में मरते समय भी माता भगवती ने उन्हें दर्शन दिए। तब मां भगवती से उन्होंने अब और जीवन ना चाहकर समाज की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की। जिस पर माँ भगवती ने उन्हें उच्च प्रेतयोनि दी।

तब से ही वह कुंवर बाबा, तेजदेव, खाती बाबा, हीरा भूमिया, राजा सामदेव, कलयुगी नारायण, डूंगर जी, चौहान बाबा, ठाकुर बाबा आदि के नामों से जाने जाते हैं। इन्हीं नामों से उनके स्थान बने हैं। इन स्थानों पर वह अपने भक्तों के माध्यम से लोगों के कष्ट दूर करते हैं। आज भी जब किसी को सांप काट लेता है तो उपरोक्त स्थानों पर किसी एक स्थान के नाम से बंद बांध दिया जाता है। जिससे सर्प विष प्रभावहीन हो जाता है। सर्प बन्ध काटने के लिए भादो महीने की शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष की चौदस को इन स्थानों पर बंध काटे जाते हैं। जिससे यहां पर भारी भीड़ होती है।

इन्ही वीर जाहर गोगादेव की छड़ी को वाल्मीकि समाज पूरे भारत में भादौ की कृष्ण जन्माष्टमी के दूसरे दिन नवमीं को आदर के साथ घुमाता है और अपने आराध्य गोगादेव की उपासना करता है।

वीर जाहर गोगादेव के कारण ही वाल्मीकि समाज पृथ्वीराज चौहान का वंशज मानता है। गोगादेव की छड़ी को घुमाने वाला, उठाने वाला व्यक्ति पूरे 9 दिन कड़े उपवास और नियमों में बंधा जीवन जीता है।

ईश्वरीय शक्तियों को मानने और उससे साक्षात्कार होने के लिए आस्थावान होना पहली आवश्यकता है।

जय वीर जाहर गोगादेव।

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