लघुकथा-चार पैसे(दीवाली विशेष)
लघुकथा – चार पैसे, एक छोटी 7 साल की बच्ची की कहानी है जो अपनी के साथ चलने की जिद कर रही है
‘अम्मा न तुमने इत बार दीये दादा बनाए, और न तोई तैयाली कल लई हो दुकान सजाने की |’
7 वर्ष की निशा ने अपनी माँ बित्तो से तुतलाते हुए कहा |
बित्तो बिना जवाब दिए चूल्हे की आग को फूंकनी से सिलगाती रही और रोटियाँ बनाती रही |
‘माँ तुछ तो बोलो, तुम तो हल साल सलक ते तिनारे जो पटरी है उस पल अपनी दुतान सजाती हो, मेले लिए नए तपड़े लातर देती हो | ”
मुदे पता है मुदे कलोना से बताने ते लिए नहीं जा लई हो न !’
‘**पर अभी तो पितले साल जैसा कलोना नहीं है !*
तुम त्यों इत्ती परेतान हो रही हो ?’*
बित्तो निशा की कोमल वाणी के आगे टूटती जा रही थी पर फिर भी निःशब्द थी |
‘*माँ देथो तित्ते साले लोद धूम रहे हैं, पूला दिल्ली सहल तित्ता सुंदल लग लहा है |
लघुकथा – चार पैसे

मुदे भी ले तलो न माँ |’ मैं तुपताप बैठी लऊंदी तुमाले पास |
पिछले साल भी हमाली दीवाली सूनी-सूनी थी तम-से-तम अभी थोड़ा तो *तुम्हीं तो तहती हो ति-*
‘**चाल’ पैसे आएंदे, दूध-रोती *थाएंदे…. नए तपड़े लाएंदे… दीवाली *मनाएन्दे…..’
निशा की सरस-कोमल वाणी को सुनते-सुनते बित्तों की आँखों से आँसू ढरक गए, वह मन-ही-मन सोचने लगी कि
‘इस मासूम बच्ची को वह क्या जवाब दे कि हमारे जैसे सड़क पर बैठ दीये बेचने और रोटी के ‘चार पैसे कमाने वालों की तरफ़ इक्का-दुक्का लोग ही मुश्किल से रुकते हैं । बड़ी-बड़ी चमक-धमक वाली दुकानों में ही जाते हैं और दूने दाम देकर आते हैं |’ कैसे समझाऊँ कि हमारी ज़िंदगी में ख़ुशियों का सूरज क़िस्मत से चमकता है **न जाने मेरी निशा जैसों की निशा कब ढलेगी !*
भावना अरोड़ा ‘मिलन’
एडुकेशनिस्ट,लेखिका, मोटिवेशनल स्पीकर
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