लोकतंत्र के नाम पर भारतीयों का शोषण कबतक ?-आँचलिक ख़बरें-रवि आनंद

Aanchalik Khabre
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उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा का चुनाव होना है। लोकतंत्र के पर्व को धर्मिक पर्व का असर पड़ता दिख रहा है जहां पहले होली पर save water,no colours और दीपावली में नो क्रैकर की आवाज उठती है वही 31 दिसंबर की आधी रात को सारी दुनिया शराब के साथ आतिशबाजी करते आ रहे हैं । उसी प्रकार अब दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों की नकल वोटिंग पर भी पड़ रहा है जहां लोकतंत्र में सबसे मजबूत कड़ी की हि लगातार उपेक्षा की जा रही है।
नई नई तकनीक के प्रयोग से जनता को लगातार कमजोर करने और वेवकूफ बनाने के लिए प्रयोग को अंजाम दिया जा रहा है। इसके लिए जनता से सीधे संवाद के स्थान पर सोशल मीडिया के माध्यम का भी उपयोग किया जा रहा है।

फेक न्यूज़ से जनता के मुद्दे को बदल कर राजनीति दल खुद के मुद्दे को जनता थोपने पर ही आमादा है। कभी धर्म के नाम पर भाईचारा तो कभी भाई को ही चारा बनाते मुद्दे से समाज मे भय के वातावरण बनाने के लिए कारगर सिद्ध होता आ रहा है। अब अपराधियों के भी धर्म सम्प्रदाय के आधार पर ही दोषी करार दिया जाना या बेकसूर बताना आम सी बात हो रही है।

मठ मंदिर मस्जिद , मुस्लिम हिंदू दलित के साथ हिंदुस्तान खतरे में चर्चा शुरू किया जाता है । पर कोई नहीं पूछता गरीबी हटाओ की नारा देने वाली राजनीतिक दलों के खानदान ही अरबपति कैसे हो गए? और जनता को रोटी कपड़ा और मकान का ही मुद्दा का समाधान नहीं होने पर भी राजनीतिक दल कैसे पुनः चुनाव में शामिल हो जाते हैं।

संप्रदायिकता का आधार पर मत प्राप्त करने का ध्रुवीकरण करने का खेल कब तक होता रहेगा इसका भी जवाब किसी राजनीतिक दलों के पास नहीं है।

गोधरा कांड की चर्चा करने वाले भागलपुर-जहानाबाद,आरा कांड पर चुप क्यों हो जाते हैं?
यह देख कर भी आश्चर्य होता है कि जहां एक शमुदाय विशेष ऐसा है जो दुनिया भर के अपने सामान लोगों पर पूर्ण आस्था रखते लेकिन अपने पड़ोसियों से ही उन्हें जलन होती है। वही देश में ऐसा बहुसंख्यक भी है जो विषय की जानकारी ना होने पर भी अपनी राय विचार तुरंत पड़ोसियों की संवेदना प्राप्त करने के लिए जाहिर करता है वो यह भी नहीं देखता है कि उस समुदाय विशेष की आपकी संवेदन की आवश्यकता ही नहीं है तभी तो “हाफिज जी’ तो कभी ‘ओसामा साहब’ से संबोधित होता है वही पालघर में पुलिस की उपस्थिति में क्या हुआ किसी को बताने की जरूरत है क्या?

भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री किसी शिक्षाविद को ना बनाकर शिक्षाविद को राष्ट्रपति बनाया गया।ताकि शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर वाद विवाद से बचा जा सके और भारत के बारे में चीन यूनान के विद्वानों की राय को उपेक्षा कर अंग्रेजों की राय की प्राथमिकता दी गई।

परिणाम सामने है जहां हमारे देश पर कोविड के आक्रमण के बाद भी हम अपनी सुरक्षा के लिए किसी तीसरे की प्रतीक्षा में है जो हमें हमारे मुसीबतों से बचाएगा हम अब इतने लाचार हो गए हैं हम अपनी समस्या का समाधान भी नहीं ढूंढ सकते हैं। यह वर्तमान शिक्षा का ही असर है जहां विदेशों में अपनी भाषा को बढ़ावा देने के लिए विदेशी भाषा का परित्याग किया जा रहा है वहीं हमने अपनी मूल भाषा को ही समाप्त कर विदेशी भाषा को ऐसा अपना लिया है जो हमारी मानसिकता पर ही प्रहार कर रही है। सनातन धर्म के बौद्ध जैन सिख संप्रदाय को धर्म का नाम देकर आपस में ही लड़ाए जा रहा है।

दुनिया जो कल तक जो हमें आदर्श मानकर हमारे इर्द-गिर्द शिक्षा के लिए पहुंच रहे थे अरस्तु सुकरात और ना जाने कितने को आकर्षित करने वाले प्राचीन भारत आज वर्तमान समय में दुनिया के उस स्थान से सीखने को विवश है जिसका सका शिक्षा में कोई योगदान नहीं है अतीत में रहा है वास्तु कला में हमारे अतीत के धरोहरों को नष्ट कर हमें लगातार पाश्चात्य शैली के उत्कृष्ट नमूने दिखाए जाते हैं। विजयनगर साम्राज्य की स्थापत्य कला शैली हो या खजरोह हम्पी की कलाकृतियों को नजरअंदाज कर देना भी भरतवंशी को उपेक्षित करने का ही तो उपाय नहीं।

 

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