भारतीय सिनेमा में जहां महिलाओं को लेकर अक्सर एकतरफा और सतही चित्रण देखा गया है, वहीं “उल्लोज्झुक्कु” जैसी फिल्म एक मजबूत जवाब बनकर सामने आई है। यह फिल्म महिलाओं की जटिल भावनाओं, उनके रिश्तों और उनके निर्णय लेने की ताकत को बहुत खूबसूरती से दिखाती है।
71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में ‘उल्लोज्झुक्कु’ को दो बड़ी उपलब्धियां मिलीं:
सर्वश्रेष्ठ मलयालम फिल्म का अवॉर्ड, और
उर्वशी को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का सम्मान उनके शानदार अभिनय के लिए।
क्यों ‘उल्लोज्झुक्कु’ खास है?
इस फिल्म में प्रमुख भूमिकाओं में पार्वती तिरुवोथु और उर्वशी हैं। निर्देशक क्रिस्टो टोमी ने एक ऐसी कहानी रची है जो एक आम सास-बहू की कहानी नहीं है, बल्कि इसमें भावनात्मक गहराई, आत्ममंथन और स्त्री शक्ति का चित्रण है।
जब बाकी फिल्मों के अवॉर्ड्स को लेकर विवाद हो रहा था कि किसे अवॉर्ड मिला और किसे नहीं मिलना चाहिए था, तब “उल्लोज्झुक्कु” जैसी फिल्म को मिला सम्मान वाकई में योग्य लगा। यह फिल्म जून 2024 में सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी और दर्शकों व समीक्षकों दोनों से इसे खूब सराहना मिली।
फिल्म की कहानी
‘उल्लोज्झुक्कु‘ का मतलब होता है “अंडरकरंट” यानी छुपा हुआ बहाव। यह फिल्म तीन पात्रों पर केंद्रित है:
लीलम्मा (उर्वशी)
उनका बेटा थॉमस कुट्टी (प्रसांत मुरली)
और बहू अंजू (पार्वती तिरुवोथु)
लीलम्मा अपने बेटे की गंभीर बीमारी से परेशान रहती हैं, लेकिन फिर भी उसकी शादी करवाती हैं। अंजू, अपने बीमार पति की सेवा करती है, लेकिन वह एक ऐसे रिश्ते में फंसी है जिसमें वह खुश नहीं है। इसी दौरान पति की मृत्यु होती है और घर के अंदर कई राज़ उजागर होने लगते हैं — ठीक वैसे ही जैसे बारिश के कारण अलप्पुझा (केरल) में बाढ़ का पानी धीरे-धीरे बढ़ता है।
स्टीरियोटाइप से हटकर
जहां अधिकतर फिल्मों में सास-बहू को झगड़ते दिखाया जाता है, वहीं क्रिस्टो टोमी की यह फिल्म दोनों के बीच के भावनात्मक रिश्ते को उजागर करती है।
उर्वशी की लीलम्मा कोई खलनायिका सास नहीं है। वह बस एक मां है, जो अपने बेटे की बीमारी को छिपाकर उसकी शादी करवाती है।
वहीं अंजू भी पूरी तरह निर्दोष नहीं है। वह अपने पति की सेवा करते हुए भी एक प्रेम-प्रसंग में शामिल है।
लेकिन फिल्म इन दोनों को जज नहीं करती, बल्कि उनके किरदारों को इंसानी नजरिए से दिखाती है। वे दोनों अपने-अपने हालातों के गुलाम है
सास और बहू के बीच अनकहा रिश्ता
फिल्म में दोनों महिलाएं — अंजू और लीलम्मा — एक जैसी स्थिति में हैं। दोनों अपने-अपने पतियों के घर आईं, एक पत्नी और फिर एक केयरटेकर बन गईं। उनके अपने सपने, पहचान और आज़ादी, सब कुछ रिश्तों की जिम्मेदारियों में दब गए।
फिर भी, दुख और जिम्मेदारी की इसी साझा जमीन पर उनके बीच एक सहज बहन जैसा रिश्ता (sisterhood) पैदा होता है। यह कोई मजबूरी का रिश्ता नहीं है, बल्कि एक गहराई से उपजा भावनात्मक जुड़ाव है।
व्यक्तिगत क्यों लगती है ‘उल्लोज्झुक्कु’ की जीत?
जो दर्शक वर्षों से महिला पात्रों को स्क्रीन पर सच्चाई के साथ देखना चाहते थे, उनके लिए यह फिल्म और इसकी जीत जैसे एक व्यक्तिगत जीत है। यह दिखाता है कि सिर्फ हीरो या मसाला फिल्में ही नहीं, बल्कि महिलाओं की वास्तविक कहानियों पर बनी फिल्में भी सफल हो सकती हैं।
यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक बयान है
“उल्लोज्झुक्कु” की जीत इस बात की मिसाल है कि अच्छी कहानी, सच्चे किरदार और भावनात्मक गहराई आज भी दर्शकों का दिल जीत सकती है — चाहे आज की फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादा पैसा कमाने वाली फिल्में छाई हुई हों।
यह फिल्म बताती है कि संकट के समय, जब परिवार और समाज मुंह मोड़ लेते हैं, तो औरतें ही एक-दूसरे का सबसे बड़ा सहारा बनती हैं।
निष्कर्ष
“उल्लोज्झुक्कु” जैसी फिल्में केवल कहानी नहीं सुनातीं, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थिति पर सवाल उठाती हैं, और दिखाती हैं कि कैसे वे तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने लिए और एक-दूसरे के लिए ताकत बनती हैं।
यह फिल्म एक नारी-सशक्तिकरण की गूंज है, जो दर्शकों के दिल में गहराई से उतरती है — और यही वजह है कि इसकी नेशनल अवॉर्ड जीत हर महिला और समझदार दर्शक के लिए एक निजी जीत जैसी लगती है।
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