आर्य समाज के संस्थापक Swami Dayanand की आज 200वीं जयंती

Aanchalik khabre
By Aanchalik khabre
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Swami Dayanand की आज 200वीं जयंती आज
Swami Dayanand की आज 200वीं जयंती आज

सनातन हिंदू धर्म के महान स्तंभ Swami Dayanand का जन्म 12 फरवरी 1824 को काठियावाड़ में हुआ था

आर्य समाज के संस्थापक Swami Dayanand का जन्म उन्नसवीं शताब्दी में काठियावाड़ में हुआ। थोड़ी ही आयु में उन्होंने मां बाप को छोड दिया और वेदों का अध्ययन करने के लिए देश के विभिन्न भागों में घूमते रहे। स्वामी विराजानंद को उन्होंने अपना गुरु बनाया और इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त करने में उनको समुचित मार्ग दर्शन मिला। उन्होंने वेदों के ज्ञान का प्रचार तथा प्रसार का काम अपने हाथ में लिया। इस कार्य के लिए उन्होंने अनेक संतों से विचार विमर्श किया तथा व्यापक भ्रमण किया। Swami Dayanand को अंग्रेजी की शिक्षा नहीं मिली थी। वे ईसाई धर्म के प्रचारकों के संपर्क में भी नहीं आए, परंतु वे संस्कृत के महान विद्वान थे।

Swami Dayanand का जन्म उन्नसवीं शताब्दी में काठियावाड़ में हुआ
Swami Dayanand का जन्म उन्नसवीं शताब्दी में काठियावाड़ में हुआ

Swami Dayanand ने मूर्तिपूजन का खंडन किया। उन्होंने बताया कि वेदों में कहीं भी मूर्ति पूजा का उल्लेख नही है। पुश बलि के भी वह विरोधी थे। उन्होने बाल विवाह का भी प्रतिरोध किया, स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह का उन्होंने समर्थन किया और इन कामों के लिए उन्होंने बड़ा प्रचार तथा परिश्रम किया। जाति भेद को वह कृत्रिम मानते थे, और उसका विरोध करते थे।

उन्होंने जनता का आव्हान कि वेदों का अध्ययन करो सारा ज्ञान वेदों में भरा पड़ा है। Swami Dayanand ने वेदों को आधार मानकर कहा कि वर्ण व्यवस्था आदिकाल में मनुष्य के गुण स्वभाव हिन्दू धर्म कर्म के आधार पर बनाई थी। परतु अपने‌ उच्च कर्मों द्वारा मनुष्य उच्च वर्ण प्राप्त कर सकता है। उनका विचार था कि जाति व्यवस्था उस पर पुरातन वर्ण व्यवस्था का विकृत रुप है तथा समाज के लिए हानीकारक है। अतः उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

Swami Dayanand का प्रचार कार्य रचनात्मक था। उन्होंने हिंदू धर्म या अन्य किसी धर्म की निंदा नहीं की, बल्कि उन्होंने कहा कि अन्य धर्मो को मानने वाले भी वैदिक धर्म की दीक्षा ले सकते हैं। उन्होंने वैदिक धर्म का द्वार सबके लिए खुला छोड़ दिया, उन्होंने इतिहास का प्रमाण देकर लोगों को बताया कि वास्तव में हिंदू धर्म मूल वैदिक धर्म का विकृत रुप है।

उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे ब्राम्हणों के प्रभुत्व के कारण धार्मिक पाखंड बनते चले गए। और धर्म की मूल भावना दबती गई, कालांतर में भारत में मुसलमान आए, उन्होंने लोगो को जबरदस्ती मुसलमान बनाया और हिंदू धर्म की निर्बलता के कारण मुसलमानों को इस काम में कठिनाई नहीं हुई। Swami Dayanand ने कहा कि इस प्रकार धीरे-धीरे धर्म की आत्मा दब गई अतः धर्म के नवीन पुनर्जागरण का नारा देकर उन्होंने सबको वैदिक धर्म का अनुयायी बनने का संदेश दिया।

वेदों के अनुशीलन के बाद स्वामी दयानंद ने जो विचार व्यक्त किए वे निः संदेह क्रांतिकारी थे। उनहोंने छूआछुत का विरोध कर स्त्री शिक्षा का समर्थन तथा प्रचार प्रसार किया। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और उसकी उपासना के लिए मूर्ति पूजा अनावश्यक है। उनकी धारणा थी कि मृत्यु के पश्चात मनुष्य की आत्मा पुनः जन्म धारण करती है। अतः उसके लिए तर्पण तथा श्राद्ध जैसे अंध विश्वासों को त्यागने की अपील की। अपने विचारों के प्रचार तथा प्रतिपादन के लिए स्वामी दयानंद ने कई ग्रंथों की रचना की।

जनता तक वेदों का संदेश पहुंचाने के लिए Swami Dayanand ने सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ लिखा और 1875 ई. में आर्य समाज की संस्था की स्थापना की

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उन्होंने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद का हिंदी में अनुवाद किया। जनता तक वेदों का संदेश पहुंचाने के लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ लिखा, इस ग्रंथ को ऑर्य समाज का मुख्य ग्रंथ माना जाता है इसी विचार से प्रेरित होकर स्वामी जी ने 1875 ई. में आर्य समाज की संस्था की स्थापना की जो थोड़े ही समय में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। Swami Dayanand का नाम भारत के नवजागरण के इतिहास में सदा श्रद्धा तथा आदर के साथ लिया जाएगा। उन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों के साथ-साथ भारतवासियों में राजनैतिक चैतन्यता लाने का कार्य भी किया। भारत की तत्कालीन राजनैतिक दुर्दशा को देखकर उनका हृदय बड़ा क्षुब्ध था, तथा इसकी तीव्रता को वह अनुभव करते थे।

उन्होने अपने धर्म के अनुयायियों तथा भारत की सामान्य जनता से देश उस प्राचीन तथा लुप्त गौरव तथा वैभव को पुनः प्राप्त करने को कहा जो चक्रवतीं संम्राटो के समय में इस देश को प्राप्त था। विदेशी शासन को समाप्त करने का घोष सर्वप्रथम Swami Dayanand ने ही दिया था, उनका कहना था कि सुशासन कभी भी स्वशासन का स्थान नहीं ले सकती। इसका अभिप्राय यह है कि विदेशी शासन चाहे कितना भी सुशासित तथा उत्कृष्ट क्यों न हो परंतु स्वराज उसकी अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा है। इस प्रकार देश में स्वशासन अथवा स्वराज का घोष फूंकने वाले स्वामी दयानंद ही थे।

आर्य समाज की स्थापना 1875 ईस्वी में हुई थी और 1883 इसी में इसके संस्थापक Swami Dayanand की मृत्यु हो गई। परंतु उनके अनुयायियों ने इस काम को पूरे उत्साह से जारी रखा। आर्य समाज ने हिंदू समाज के सुधार कार्य को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। इसमें शुद्ध कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मुख्य बात यह थी कि जो हिंदू लोग किसी भी कारण अन्य धर्मो में सम्मिलित हो गए हैं। उनको पुनः शुद्ध करके हिंदू धर्म में लाया जाए। इसके अतिरिक्त अन्य धर्म वाले यदि चाहें तो उन्हें भी हिंदू धर्म में सम्मिलत कर लिया जाए इस शुद्धि आंदोलन के फलस्वरुप बहुत से लोगों ने हिंदू धर्म अपनाया।

शिक्षा प्रचार के क्षेत्र में भी आर्य समाज ने प्रशंसनीय कार्य किया, इसने देश में अनेक शिक्षा संस्थाएं स्थापित की। इन संस्थानों ने देश के राष्ट्रीय जीवन में बहुत बड़ा योग दिया। आर्य समाज के महान कार्यकर्ताओं में महात्मा ने लाहौर में डी.ए.वी. कालेज की नींव डाली। यह उत्तर भारत की एक बड़ी शिक्षा संस्था थी। देश के अन्य भागों में भी डी ए वी कालेजों की शाखाएँ स्थापित हुए।

1892 में आर्य समाज में दो दल के नेता हो गए थे। इस दल ने वेदों के पठन-पाठन के लिए देश के कई भागों में गुरुकुल की स्थापना की। गुरुकुल में विद्यार्थीयों के आवास तथा उनकी शिक्षा की निः शुल्क व्यवस्था की गई। ये गुरुकुल भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा की ओर भी बहुत ध्यान दिया। आर्य समाज के प्रायः सभी मंदिरों के साथ कन्या पाठशालाएं भी स्थापित की गई है।

 

सुरेश सिंह बैस शाश्वत

 

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