भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इनमें से एक नाम है खुदीराम बोस, जो महज 18 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए। वे न केवल साहस और बलिदान के प्रतीक थे, बल्कि उन्होंने अपने छोटे से जीवन में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बगावत की ज्वाला भड़का दी।

प्रारंभिक जीवन
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ। उनके पिता त्रैलोक्यनाथ बोस और माता लक्ष्मीप्रिया देवी धार्मिक और देशभक्त प्रवृत्ति के थे। बचपन में ही उन्होंने अपने माता-पिता दोनों को खो दिया, जिसके बाद उनका पालन-पोषण उनकी बड़ी बहन और बहनोई ने किया।
शिक्षा और देशभक्ति का अंकुर
खुदीराम बोस बचपन से ही तेज, साहसी और जिज्ञासु स्वभाव के थे। मिदनापुर के हैमिल्टन स्कूल में पढ़ते समय वे देशभक्त नेताओं और क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हुए। उन्होंने वंदे मातरम्, स्वदेशी आंदोलन और क्रांतिकारी साहित्य से प्रेरणा ली।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
1905 का बंगाल विभाजन आंदोलन खुदीराम बोस के जीवन में निर्णायक मोड़ लेकर आया। इस समय पूरे बंगाल में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष फैल चुका था।
वे अनुशीलन समिति जैसे गुप्त क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े।
उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ पर्चे बांटे और रैलियों में भाग लिया।
15 साल की उम्र में ही पुलिस की निगरानी सूची में उनका नाम शामिल हो गया।
मुजफ्फरपुर बम कांड
13 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी, मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या के मिशन पर निकले। उन्होंने मुजफ्फरपुर (बिहार) में किंग्सफोर्ड की गाड़ी समझकर एक गाड़ी पर बम फेंका। लेकिन उसमें किंग्सफोर्ड के बजाय यूरोपीय महिला और उसकी बेटी थी, जो मौके पर ही मारी गईं।
गिरफ्तारी
घटना के बाद खुदीराम बोस भाग निकले, लेकिन 2 दिन बाद उन्हें वैनी स्टेशन पर पकड़ लिया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल थी। गिरफ्तारी के समय वे अपने पास से देशभक्ति के पर्चे और पिस्तौल लिए हुए थे।
अदालती मुकदमा
खुदीराम बोस के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने सख्त मुकदमा चलाया। मुकदमे के दौरान उन्होंने अपराध स्वीकार करने से इंकार किया, लेकिन अपने उद्देश्य और देशभक्ति को खुलकर स्वीकार किया।
गवाही और फैसला
कई गवाहों और सबूतों के आधार पर अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। यह फैसला 8 जून 1908 को सुनाया गया, और 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई।
वीरगति
फांसी के समय खुदीराम बोस हंसते हुए, ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए फंदे पर झूल गए। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को दिखा दिया कि भारतीय युवाओं में आजादी के लिए कुछ भी करने का साहस है।
खुदीराम बोस का प्रभाव
उनकी शहादत ने पूरे देश में आजादी की लहर तेज कर दी।
बंगाल में स्कूल-कॉलेज के छात्रों ने आंदोलन तेज कर दिया।
वे युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए।
साहित्य और लोकगीतों में स्मृति
खुदीराम बोस की वीरता पर कई कविताएं, लोकगीत और नाटक रचे गए। बंगाल में आज भी उनकी याद में गीत गाए जाते हैं —
“Ekbar Biday De Ma… Ghure Ashi…”
खुदीराम बोस से प्रेरणा
खुदीराम बोस का जीवन हमें सिखाता है कि देश के लिए त्याग और साहस की कोई उम्र नहीं होती। 18 साल का एक युवक भी इतिहास बदल सकता है।
FAQ
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उनकी उम्र मात्र 18 वर्ष थी।
मुजफ्फरपुर बम कांड के कारण।
3 दिसंबर 1889, हबीबपुर, मिदनापुर, बंगाल।
वे अनुशीलन समिति से जुड़े थे।