Jhansi UP News | महाबोधि महाविहार: बौद्धों के अधिकारों की अधूरी लड़ाई

News Desk
7 Min Read
21 1609359956

महाबोधि महाविहार: बौद्धों के अधिकारों की अधूरी लड़ाई
महाबोधि मंदिर पर बौद्धों का संघर्ष: कब मिलेगा न्याय?
बौद्ध धर्म की पवित्र भूमि, पर अधिकार से अब भी वंचित!
महाबोधि महाविहार विवाद: बौद्धों के शांतिपूर्ण आंदोलन को क्यों कुचला गया?
क्या बौद्धों को मिलेगा महाबोधि महाविहार का पूरा अधिकार?
बौद्धों की आस्था बनाम प्रशासन की नीति: संघर्ष की नई कहानी

महाबोधि महाविहार: एक संघर्ष की गाथा : बौद्धों की आस्था और अधिकार का सवाल

महाबोधि महाविहार, बोधगया – एक ऐसा पवित्र स्थल, जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ। यही वह भूमि है, जहां से करुणा, शांति और अहिंसा की ज्योति पूरे संसार में फैली। परंतु, क्या विडंबना है कि जिस स्थान पर बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, वहां के मूल अधिकारों से बौद्ध समुदाय आज भी वंचित है।

बौद्ध समाज के लोगों का यह संघर्ष वर्षों से जारी है। वे इस पवित्र स्थल पर अपने अधिकारों की बहाली चाहते हैं। परंतु 6 जुलाई 1949 को बने वी.टी. एक्ट के कारण यह महाबोधि महाविहार पूर्णतः बौद्धों के अधिकार में नहीं है। इस कानून के अनुसार, ट्रस्ट में 4 बौद्ध प्रतिनिधियों के साथ 4 हिंदू सदस्य और एक स्थानीय हिंदू जिलाधिकारी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए जाते हैं। यह व्यवस्था आज भी चली आ रही है, जबकि 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ, तब उसने सभी धर्मों को समान अधिकार दिए थे।

संविधान और बौद्धों के अधिकार

संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, हर नागरिक को अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है। अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थानों के स्वतंत्र प्रबंधन की गारंटी देता है। फिर भी, महाबोधि महाविहार बौद्धों के हाथों में नहीं है।

आजादी के बाद, भारत के अन्य धार्मिक स्थलों को उनके धर्मावलंबियों को सौंप दिया गया। हिंदू मंदिर हिंदू संगठनों द्वारा संचालित किए जाते हैं, मस्जिदें मुस्लिम संगठनों द्वारा, चर्च ईसाई समुदाय द्वारा और गुरुद्वारे सिखों के अधिकार में हैं। लेकिन, महाबोधि महाविहार अभी भी इस न्याय से वंचित क्यों है? बौद्ध समुदाय इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठा रहा है, लेकिन सरकार और प्रशासन इस मांग पर कोई ठोस कदम उठाने के लिए तैयार नहीं दिख रहे।

बौद्धों का शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रशासन की दमनकारी नीति

बौद्ध समाज वर्षों से इस अधिकार के लिए संघर्ष कर रहा है। झांसी सुगत बौद्ध बिहार फेस्टिवल ट्रस्ट के अध्यक्ष भिक्षु कुमार काश्यप के नेतृत्व में बौद्ध समाज के लोगों ने महामहिम राष्ट्रपति के नाम एक ज्ञापन सौंपा। इस ज्ञापन में उन्होंने स्पष्ट रूप से मांग की कि महाबोधि महाविहार को पूरी तरह से बौद्धों को सौंपा जाए।

हाल ही में, जब बौद्ध भिक्षुओं ने शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन किया, तो बिहार सरकार ने उनके आंदोलन को कुचलने के लिए बल का प्रयोग किया। शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे भिक्षुओं को जबरदस्ती अस्पताल में नजरबंद कर दिया गया। महिला भिक्षुणियों को भी वहां से हटाने की कोशिश की गई। यह केवल एक धरना नहीं था, बल्कि यह बौद्धों के अधिकारों की बहाली की लड़ाई थी।

बौद्ध भिक्षु और अनुयायी अपने ही पवित्र स्थल के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन प्रशासन ने उन्हें बलपूर्वक हटाकर एक स्पष्ट संदेश दे दिया कि सरकार उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं ले रही। लेकिन, क्या यह अन्याय अधिक दिनों तक चल पाएगा?

महाबोधि महाविहार: इतिहास और वर्तमान परिदृश्य

महाबोधि महाविहार केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म का हृदयस्थल है। यह वह स्थान है जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। यह दुनिया भर के बौद्धों के लिए एक तीर्थस्थल है। लेकिन आज, उसी स्थान पर बौद्ध भिक्षुओं को आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

बौद्ध समुदाय का स्पष्ट कहना है कि यदि जल्द ही महाबोधि महाविहार को पूरी तरह से बौद्धों को नहीं सौंपा गया, तो एक बड़ा आंदोलन खड़ा होगा। यह संघर्ष केवल एक मंदिर तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह भारत में बौद्धों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की बहाली के लिए एक व्यापक अभियान बनेगा।

संघर्ष की अगली कड़ी

बौद्ध समाज के लोगों ने स्पष्ट कर दिया है कि यह संघर्ष यहीं नहीं रुकेगा। यदि सरकार ने उनकी मांगों को अनदेखा किया, तो वे अपने अधिकारों की लड़ाई को और तेज करेंगे। यह आंदोलन केवल बिहार तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी गूंज सुनाई देगी।

बौद्ध समाज ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि जल्द ही महाबोधि महाविहार को बौद्धों को सौंपने का निर्णय नहीं लिया गया, तो देशभर के बौद्ध समुदाय द्वारा बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए जाएंगे। यह केवल एक मंदिर का सवाल नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म के अस्तित्व और उसकी पहचान की लड़ाई है।

एक याचना या एक क्रांति?

महाबोधि महाविहार को लेकर बौद्ध समाज की यह लड़ाई अब अपने निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। यह एक साधारण मांग नहीं, बल्कि न्याय और समानता की लड़ाई है। बौद्ध समाज शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है, लेकिन प्रशासन का रवैया इस आंदोलन को और उग्र बना सकता है।

अब सवाल यह है कि क्या सरकार बौद्धों की इस जायज़ मांग को स्वीकार करेगी? या फिर यह संघर्ष एक नए ऐतिहासिक आंदोलन का रूप लेगा?

महाबोधि महाविहार केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म की आत्मा है। इसे उसके असली उत्तराधिकारियों को सौंपना ही न्यायसंगत होगा। यदि न्याय में देर हुई, तो इतिहास गवाह रहेगा कि कैसे अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले धर्म के अनुयायी भी अपने अधिकारों के लिए क्रांति करने को मजबूर हो गए।

 

Share This Article
Leave a Comment