Human संवेदनाओं का परिक्षेत्र बहुत ही व्यापक है ।

Aanchalik khabre
By Aanchalik khabre
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Human मूल्य व परम्पराए होती है ।

यदि Human संवेदनाओं की बात करें तो उसका परिक्षेत्र बहुत ही व्यापक है । Human संवेदनाएं सिर्फ मनुष्य के आचार, विहार व आपसी व्यवहार तक ही सीमित नहीं है वरन् इस पृथ्वी पर चर अचर के साथ मानव व्यवहार से जुड़ी हुई है । आज मनुष्य समाज में बनाए गये प्रतिमानों को खंडित करने पर तुला हुआ है । ऐसे प्रतिमानों की स्थापना की जा रही है जो समाज को नकारात्मक दिशा की और धकेल रहे हैं । समाज में परिपक्वता का ह्रास हो रहा है । आपसी रिश्तों की मर्यादाएं टूट रही है । आधुनिकता की आड़ में संबंधों में फूहड़ता पनप रही है ।

Human

आज की उपभोक्ता संस्कृति केवल उपभोग करना जानती है । आमजन का हित, अहित , सुख दुख , लाभ हानि आदि संदर्भो से इनका कोई इनका कोई सरोकार नहीं रह गया है । आज की युवा पीढ़ी भटकाव का रास्ता अख्तियार कर चुकी है । इसका मूल कारण है पारिवारिक संस्कारों का अभाव व सामाजिक मूल्यों में बदलाव । शिक्षा केवल और केवल किताबों तक ही सिमट कर रह गई है ।‌ नैतिक मूल्यों का समाज से पलायन जारी है । परिवारों का एकल होना भी नैतिक शिक्षा के अभाव का मूल कारण है । आज के युवा का जीवन भ्रम व भ्रांति में कट रहा है ।

सामंती एवं पूंजीवादी मूल्यों से ग्रसित समाज ने आमजन को चेतना शून्य बना दिया है । स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि मनुष्य सच का साथ देना तो दूर उसका बंया भी नहीं कर सकता व अन्याय के प्रति प्रतिकार करने क्षमता का पतन हो गया है ।किसी भी सभ्यता , जाति और समाज की संस्कृति का मूल आधार उसके Human मूल्य व परम्पराए होती है । जो किसी भी काल में घात प्रतिघात सहते हुए अपने मूल स्वरूप को नहीं खोती है । किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति उस देश के समाज व समय के अनुरूप होती है परन्तु यदि दूसरे देश की नकल की जाए तो परिणाम घातक होते हैं ।

आज का युवा पश्चिमी संस्कृति का दास बनकर रह गया है । इसके गलत उपयोग से परम्परागत आस्थाएं, मान्यताएं और Human मूल्य विकृत हो गये है । चिंतन की विकृति से चरित्र भी विकृत हो गया है । युवाओं को ऐसे मार्ग दर्शन की जरूरत है जिनके सानिध्य से युवा उर्जा का उध्र्व गमन हो , पवित्र एवं परिष्कृत जीवन शैली अपनाने की प्रेरणा मिले । आज युवा पीढ़ी को जरूरत है Human मूल्यों को समझने की , खुद के अंदर विकृतियों से लड़कर सृजनात्मक चिंतन विकसित करने की तभी हम मानवीय मूल्यों की स्थापना कर सकते हैं ।

                                                                                                                                           झुन्झुनू(चंद्रकांत बंका)

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