UP News | संभल जिले में गाजी मेले पर विवाद: कौन था सैयद सालार मसूद गाजी और क्यों है बवाल? जानें हर पहलू CM Yogi

News Desk
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इतिहास के कटघरे में गाजी मेला: परंपरा या पराजय का उत्सव?
गाजी का मेला: आस्था या आक्रांता का महिमामंडन?
नेजा मेले का सच: परंपरा की पहचान या आक्रांताओं का महिमामंडन?
गाजी का मेला या राष्ट्र का अपमान? सच्चाई जानकर हैरान रह जाएंगे!”
गाजी सूफी संत या खूंखार आक्रांता? सच जानने के बाद दंग रह जाएंगे!
इतिहास का सबसे बड़ा झूठ? गाजी मेले की सच्चाई उड़ा देगी होश!
आस्था के नाम पर गाजी का महिमामंडन? जानिए वो कड़वी सच्चाई!
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संभल का गाजी मेला रद्द! सूफी संत या खूंखार आक्रांता? सच्चाई जानकर दंग रह जाएंगे!
उत्तर प्रदेश के संभल जिले में गाजी मेला बंद! क्या एक आक्रांता की पूजा जायज़ है?

जब इतिहास ने करवट ली
उत्तर प्रदेश का संभल जिला। इतिहास की कहानियों और धार्मिक मान्यताओं से सजी यह धरती आज विवादों के घेरे में है। हर साल यहां नेजा मेले का आयोजन होता है, लेकिन इस बार कहानी कुछ अलग है। मेला है, पर मंजूरी नहीं। भावनाएं हैं, पर विवाद भी हैं। एक तरफ सूफी संत के मानने वाले हैं तो दूसरी तरफ राष्ट्रभक्ति के स्वर बुलंद करते लोग। सवाल एक है – क्या एक आक्रांता के नाम पर मेला लगना चाहिए?

गाजी कौन था? संत या आक्रांता?
सैयद सालार मसूद गाजी – नाम सुनते ही ध्रुवीकृत विचार सामने आ जाते हैं। कोई उन्हें सूफी संत मानता है तो कोई बर्बर आक्रांता।
गाजी कौन था?
कहते हैं कि गाजी, गजनी के आक्रमणकारी महमूद गजनवी का सेनापति और भांजा था। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि उसने दिल्ली, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और कन्नौज के राजाओं को कुचल डाला। प्रमुख देवस्थानों को ध्वस्त करते हुए वह बाराबंकी तक आ पहुंचा। सपना था – अयोध्या तक विजय पताका लहराना।
लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती। 1034 ईस्वी में बहराइच में उसकी सेना और महाराजा सुहेलदेव के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। सुहेलदेव के पराक्रम के आगे गाजी और उसकी एक लाख तीस हजार की सेना ढेर हो गई। उसी गाजी की दरगाह आज भी बहराइच में स्थित है, जहां हर साल जेठ मेला लगता है।

नेजा मेला – एक परंपरा या अज्ञानता?
संभल जिले में लगने वाला नेजा मेला दरअसल गाजी के साथियों की शहादत को समर्पित है। नेजा कमेटी के अध्यक्ष शाहिद हुसैन मसूदी का दावा है कि यह मेला 1030 ईस्वी के आसपास पृथ्वीराज चौहान के बेटे और शेख पचासे मियां की बेटी की शादी से जुड़ा है।
कहानी कहती है कि पृथ्वीराज चौहान के बेटे ने जब मियां की बेटी से विवाह की जिद की, तो गाजी ने युद्ध का ऐलान कर दिया। संभल की धरती पर वह युद्ध लड़ा गया और गाजी के कई साथी वीरगति को प्राप्त हुए। इन्हीं शहीदों की मजारों के पास यह मेला आयोजित किया जाता है।
परंतु, विवाद यहीं से शुरू होता है। 2024 में छपे मुरादाबाद मंडल के गजेटियर में नेजा मेले का जिक्र है, लेकिन इसके ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते।

मेले की अनुमति पर घमासान
इस साल प्रशासन ने नेजा मेले की अनुमति नहीं दी। वजह?
संभल के एएसपी श्रीश चंद्र का बयान –
लुटेरे और हत्यारे की याद में मेला नहीं लगेगा। अगर कोई मेला लगाने की कोशिश करेगा, तो सख्त कार्रवाई होगी।
उन्होंने कहा कि महमूद गजनवी, जिसने सोमनाथ मंदिर लूटा था, का सेनापति था गाजी। क्या एक हमलावर के नाम पर महोत्सव होना चाहिए?
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के सांसद जियाउर्रहमान बर्क और विधायक इकबाल महमूद ने इसे धार्मिक आयोजन बताते हुए विरोध किया। बर्क का कहना है कि गाजी सूफी संत थे, जिनकी उम्र सोमनाथ हमले के वक्त महज 11 साल थी। उनके अनुसार, नेजा मेला रोकना अनैतिक है।

विवाद की राजनीति – आस्था बनाम राष्ट्रभक्ति
उत्तर प्रदेश की राजनीति गरमा चुकी है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का स्पष्ट संदेश –
“विदेशी आक्रांता का महिमामंडन देशद्रोह जैसा है। सुहेलदेव ने आक्रांता गाजी को हराकर इस धरती की रक्षा की थी। ऐसे आक्रांता का महिमामंडन माफी योग्य नहीं।”
भाजपा का रुख साफ है – राष्ट्रभक्ति के खिलाफ कोई आयोजन नहीं होगा।
लेकिन दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी का कहना है कि मेले को रोककर सांप्रदायिक माहौल खराब किया जा रहा है। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि प्रशासन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति कर रहा है।

संस्कृति और इतिहास की जंग
क्या नेजा मेला संस्कृति है या अज्ञानता?
क्या सूफी संत की आस्था आक्रांता की क्रूरता पर भारी पड़ती है?
क्या एक धार्मिक आयोजन को रोकना सही है?
नेजा मेले के समर्थक इसे सदियों पुरानी परंपरा मानते हैं। वे कहते हैं कि जब कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे, तब भी मेला लगा था। फिर अब क्यों रोका जा रहा है?
दूसरी ओर, राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक सवाल उठाते हैं कि क्या हमें आक्रांताओं का महिमामंडन करना चाहिए? क्या राष्ट्र की अस्मिता से समझौता संभव है?

सत्य की तलाश – क्या आस्था और इतिहास साथ चल सकते हैं?
गाजी के समर्थक कहते हैं कि उन्होंने इंसानियत के लिए लड़ाई लड़ी। लेकिन इतिहास के तथ्य क्या कहते हैं?
गजनवी का सेनापति, जिसने भारत की धरती पर लूटपाट और कत्लेआम मचाया – क्या उसे सूफी संत मान लेना उचित है?
क्या मेले की परंपरा को कायम रखना हमारी संस्कृति का हिस्सा है या इतिहास की भूल को दोहराना?

मंच पर राजनीति का रंग
सियासतदान अपने-अपने पाले में खड़े हैं।
सपा नेता इसे धार्मिक स्वतंत्रता और परंपरा का अपमान मानते हैं।
भाजपा इसे राष्ट्रविरोधी गतिविधि और आक्रांता का महिमामंडन कहती है।
प्रशासन दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सवाल अभी भी वहीं है – क्या मेले को अनुमति मिलनी चाहिए या नहीं?

समाधान की तलाश
क्या इसका समाधान इतिहास की सच्चाई को स्वीकार करके निकाला जा सकता है?
क्या धार्मिक आयोजन के नाम पर आक्रांता का महिमामंडन होना चाहिए?
क्या सूफी संत की आस्था और राष्ट्रभक्ति के सम्मान में तालमेल संभव है?

विवाद जारी है। मेले के पक्ष और विपक्ष के तर्क अपनी जगह खड़े हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमें इतिहास की गलतियों से सबक लेना चाहिए या परंपरा के नाम पर उन्हें दोहराना चाहिए?
इस विवाद की कहानी में इतिहास, आस्था, राजनीति और राष्ट्रवाद की जंग है। फैसला अब जनता के विवेक और प्रशासन की सूझबूझ पर निर्भर है।

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